उत्क्रांति

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‘उत्क्रांतिः स्मृतिवाक्यशेषात्‌ च।’ शांडिल्य

उत्क्रांति का अर्थ है: इतना तुम करो प्रार्थना, प्यास और शेष परमात्मा को करने दो। प्रार्थना तुम्हें करनी होगी, इसलिए थोड़ी क्रांति उसमें है। क्योंकि इतनी तो तुम्हें चेष्टा करनी होगी--प्रार्थना की, प्यास की, पुकार की। लेकिन फिर शेष अपने आप होता है; बाकी सब विकास है। इसलिए उत्क्रांति बड़ा अदभुत शब्द है। उसमें विकास और क्रांति का समन्वय है। उसमें जो भी शुभ है विकास में, वह सब ले लिया गया है; और जो अशुभ है, वह छोड़ दिया गया है। क्या शुभ है विकास में? शुभ है कि सब अपने से होता है। याद करो परमात्मा ने कितनी बार कहा है--उत्क्रांति से होगा। 

'सैकान्तभावो गीतार्थप्रत्यभिज्ञानात्‌।'

भक्तगण सब कर्मों का उल्लंघन कर एक बार ही सिद्धिलाभ करने में समर्थ होते हैं।’ सब कर्मों का उल्लंघन कर! यह बात गणित को पकड़ में नहीं आती। सोच-विचारशील आदमी इससे बड़ी बेचैनी में पड़ जाता है। सोच-विचारशील आदमी सोचता है कि जितने हमने पापकर्म किए हैं, उतने हमें पुण्यकर्म करने पड़ेंगे, तब तराजू बराबर, पलड़े दोनों एक वजन के होंगे। बुरा किया, अच्छा करना होगा। चोट किसी को पहुंचाई, तो सेवा करनी होगी। किसी को लूट लिया, तो दान देना होगा। यह बात बिलकुल गणित की है। यह बात बिलकुल न्याययुक्त मालूम होती है कि बुरे को साफ करना होगा। फिर बुरा करने में जनम-जनम लगे हैं, तो साफ करने में भी जनम-जनम लगेंगे। उत्क्रांति कैसे हो जाएगी? एक क्षण में कैसे हो जाएगा? तत्क्षण कैसे हो जाएगा? लेकिन भक्त जानता है कि तत्क्षण भी हो जाता है। तत्क्षण होने की कला है, कीमिया है। क्या कीमिया है? पहली बात, तुमसे बुरा कभी हुआ है, वह इसीलिए हुआ है कि तुम सजग न थे, सचेत न थे। तुमसे बुरा अगर कभी हुआ है, तो तुमने जान कर बुरा नहीं किया है। तुम ऐसा आदमी नहीं खोज सकोगे जो जान कर बुरा करता है। बुरे से बुरा करने वाला भी अनजाने करता है। या सोच कर करता है कि ठीक ही कर रहा हूं। या सोचता है कि इससे कुछ न कुछ ठीक होगा। और बुरा से बुरा आदमी भी पछताता है कि ऐसा मैंने क्यों किया? एकांत क्षण में, अपनी निर्जनता में, अपने मौन में सोच-विचार करता है, प्रायश्चित्त करता है। नहीं करना था। हो गया। अब न करूंगा। अब दुबारा नहीं होने दूंगा। तुम बुरे मन की स्थिति समझो। बुरा मन, बुरा है, ऐसा सोच कर नहीं करता, पहली बात। अगर लगता भी है कि बुरा होगा तो यह अपने को समझा लेता है कि इससे कुछ भला होने वाला है, इसलिए कर रहा हूं। करने के बाद कभी भी इसको अंगीकार नहीं कर पाता कि मैंने क्यों किया। प्रसन्नता से, प्रफुल्लता से स्वीकार नहीं कर पाता। पछताता है। चाहे औरों के सामने न भी कहे, अकड़ और अहंकार की वजह से रक्षा भी करे, लेकिन एकांत में जानता है कि भूल हुई है और नहीं होनी थी। अपनी ही आंखों के सामने पतित हो जाता है। अपनी ही आंखों में श्रद्धा खो जाती है, अपने ही प्रति। और सोचता है कि अब नहीं करूंगा, अब कभी नहीं करूंगा। सबके जीवन में ऐसी घटना घटती है, छोटे पाप हों कि बड़े पाप हों। भक्ति की उदघोषणा यह है कि आदमी से पाप इसलिए हो रहा है बहुत पाप हों कि कम, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता--हो इसलिए रहा है कि आदमी अभी सचेत नहीं है। और उसके सचेत होने में बाधा क्या है? उसके सचेत होने में अहंकार बाधा है। मैं हूं, यही उसकी मूर्च्छा है। भक्ति का शास्त्र एक ही मूर्च्छा मानता है--मैं। और जब तक मैं है तब तक बुरा होता ही रहेगा। तुम चाहे पुण्य करो, तो भी पाप होगा। तुम भला करो, तो भी बुरा होगा। जिस दिन मैं चला जाएगा उस दिन तुम बुरा करना भी चाहोगे तो नहीं कर पाओगे। क्योंकि मैं के बिना बुरा नहीं होता। और जहां मैं जाता है, वहां परमात्मा तुम्हारे भीतर से सक्रिय हो जाता है। मैं के कारण परमात्मा सक्रिय नहीं हो पाता। इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम एक-एक कर्म को शुद्ध करें, सवाल यह है कि कर्मों का जो मूल है, अहंकार, उसको समर्पित कर दें। जड़ को काट दें। फिर पत्ते अपने आप ऊगने बंद हो जाते हैं। कर्ता होनेका भाव नरक जाता है। न तो अच्छा नरक ले जाता, न बुरा, कर्ता का भाव नरक ले जाता है। सिर्फ कर्ता-भाव चला जाए। न कोई पाप है, न कोई पुण्य है। एक ही पाप है कि मैं करने वाला हूं, और एक ही पुण्य है कि परमात्मा करने वाला है। इसी भाव को शांडिल्यने सूत्र में उत्क्रांति कहा है।

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