श्रद्धा और अंधश्रद्धा के पार
श्रद्धा बड़ी मूल्यवान है। उस जैसा मूल्यवान कुछ भी नहीं। लेकिन श्रद्धा का अर्थ और श्रद्धा की नाजुकता को समझना जरूरी है। बहुत डेलीकेट है। अति नाजुक है। और जो बहुत कुशलता से सम्हालेगा, वही सम्हाल पाता है। श्रद्धा का अर्थ संदेह का उठाना नहीं है। श्रद्धा का अर्थ यह नहीं कि तुम संदेह ही मत उठाओ। श्रद्धा का यह भी अर्थ नहीं है कि तुम्हारी बुद्धि और समझ के जो बिलकुल विपरीत पड़ता हो, उसको भी तुम माने चले जाओ। श्रद्धा का यह भी अर्थ नहीं है कि तुम्हारे अनुभव में जो आता ही न हो, उसको भी तुम स्वीकार करते रहो। श्रद्धा का इतना ही अर्थ है कि तुम्हारी समझ के पार जो पड़ता हो, उसके लिए भी समझ को खुली रखो। बंद मत करो। आज तुम्हें जो समझ में न आता हो बराबर कहो कि समझ में नहीं आता; लेकिन नासमझी में मजबूत मत हो जाओ। श्रद्धा का अर्थ है, मैं अपनी समझ का तो उपयोग करूंगा, लेकिन यह कभी न कहूंगा कि मेरी समझ पर सत्य समाप्त हो जाता है। मेरी समझ के बाहर भी सत्य होगा। और जब तक मैं न जान लूंगा, मैं उसे न मानूंगा; लेकिन जानने की तैयारी मैं रखूंगा। मैं इंकार न करूंगा कि मैं जानने की तैयारी भी नहीं रखता। मैं अपने मन को बंद न करूंगा, खुला रखूंगा। मेरे द्वार खुले रहेंगे। अगर अनजान सत्य मेरे द्वार पर दस्तक देगा, मेरा अतिथि बनना चाहेगा, तो मैं उसका आतिथेय बनने को राजी हूं। मैं यह न कहूंगा कि तुम अनजान हो इसलिए तुम्हें ठहरने न दूंगा। तुम अपरिचित हो, इसलिए इस घर में तुम न ठहर सकोगे। मैं बंद न हो जाऊंगा, मैं खुला रहूंगा। श्रद्धा एक खुलापन है। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम प्रश्न न उठा सकोगे। तुम प्रश्न न उठाओगे, तुम बढ़ोगे कैसे? लेकिन प्रश्न भी श्रद्धापूर्ण हृदय से उठाये जा सकते हैं। यह नाजुकता है। तुम सोचते हो, प्रश्न तभी उठाये जा सकते हैं जब अश्रद्धा हो। सच तो यह है, अश्रद्धा हो तो प्रश्न उठाने का सवाल ही नहीं रह जाता। तुमने निर्णय तो पहले ही कर लिया है। एक दुश्मन भी प्रश्न पूछ सकता है, एक शिष्य भी प्रश्न पूछ सकता है। दुश्मन पूछता ही इसलिए है, कि उसे पक्का पता है कि तुम गलत हो। शिष्य पूछता इसलिए है, कि वह जानना चाहता है। दुश्मन विवाद के लिए पूछता है, शिष्य खोज के लिए पूछता है। उसकी जिज्ञासा एक यात्रा की शुरुआत है। वह जानना चाहता है। उसे पता नहीं है। इसलिए वह यह तो न कहेगा कि तुम जो कह रहे हो वह गलत है। वह इतना ही कहेगा, मेरी समझ में नहीं आता। मेरी समझ को बढ़ाने में सहायता दो। इस फर्क को समझ लो। अश्रद्धालु कहेगा, तुम जो कहते हो, वह गलत है। श्रद्धालु कहेगा, तुम जो कहते हो, वह मेरी समझ में नहीं आता। मेरी समझ अभी छोटी है। मैं इसे बड़ा करने को राजी हूं। लेकिन श्रद्धालु भी तब तक नहीं मान लेगा, जब तक उसकी समझ में न आ जाये। लेकिन धर्मगुरुओं ने, पंडितों ने, पुरोहितों ने आदमी को श्रद्धा के नाम पर वे सब बातें सिखा दीं, जिनका परिणाम बुद्धिमानी नहीं है। जिनका परिणाम बुद्धिहीनता है। फिर तुम कितनी ही बातें सीख लो और कितनी ही श्रद्धा से अपने को ढांक लो और कितने ही शास्त्र तुम्हें कंठस्थ हो जायें, इनके भीतर तो तुम्हारा अज्ञान छिपा ही रहेगा; क्योंकि उसी को तुमने पहले दिन छिपाया था। वह भीतर ही दबा रहेगा। और तुम ऐसा मत सोचना कि तुम अगर नास्तिक हो तो तुम श्रद्धालु नहीं हो। तुम्हारी सिर्फ श्रद्धा उल्टी है, बस! और तुम ऐसा भी मत सोचना कि तुम कम्युनिस्ट हो, तो तुम श्रद्धालु नहीं हो। तुम्हारी श्रद्धा कम्युनिज्म की है, बस! कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम महावीर और बुद्ध को नहीं मानते, लेकिन तुम मार्क्स और लेनिन को मानते हो। तुमने रामकृष्ण और रमण को छोड़ दिया, तो तुमने माओ और चेगवारा को पकड़ लिया। तुम्हारी पकड़ वही है। शास्त्र बदल गये होंगे, तुम पैर के बल खड़े न होकर सिर के बल खड़े होओगे, बस! लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम वही हो। लेकिन आदमी नहीं बदलता।आदमी तो तभी बदलता है, वह क्रांति का क्षण तभी आता है, जब तुम कान को छोड़ कर आंख का भरोसा लाते हो। कान है परंपरा और आंख है धर्म। कान है शास्त्र, आंख है सत्य। कान और आंख के बीच केवल चार अंगुल का फासला है। लेकिन सत्य और शास्त्र के बीच अनंत फासला है।
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