आविर्भाव
मनुष्य के मन का कोई विचार तब तक उसका नहीं है जब तक उसने आत्मसात किया हो। सत्य का आविर्भाव होता है, आत्मसात नहीं किया जा सकता। विचार तभी आपका है जब उसका आविर्भाव हो, वह आपके भीतर जन्मे। और वह तभी होगा जब आप सब विचारों को, सब धारणाओं को विदा दे दें। निष्धारण, निर्विचार, सब धारणाओं से शांत और शून्य जो हो जाता है, वही खुद के विचार को, खुद की अनुभूति को, खुद के सत्य को उपलब्ध होता है। आत्मसात नहीं करना है, आविर्भाव करना है। आत्मसात करने की प्रक्रियाओं ने ही मनुष्य के जीवन से परमात्मा को दूर किया है और मनुष्य के जीवन से धर्म को नष्ट किया है। धर्म तब सत्य की खोज न रह कर केवल कल्पना का खेल रह गया।आत्मसात करना एक भ्रम, सपना है और आविर्भाव एक सत्यता, क्योंकि किसी भ्रम में और किसी कल्पना में पड़ जाने से कोई हित नहीं है। हां, यह हो सकता है कि सपना बहुत मधुर हो और बहुत अच्छा लगे। लेकिन फिर भी सपना सपना है। कल्पना कल्पना है, चाहे कितना ही सुख देती मालूम पड़े। और ऐसी कल्पना जो सुख देती हो उस कल्पना से खतरनाक है जो दुख देती हो। क्यों? क्योंकि दुख देने वाली कल्पना से जागना आसान होता है और सुख देनी वाली कल्पना में तो और सोने का मन होता है, जागने की इच्छा नहीं होती है। धन्य हैं वे लोग जो दुखद सपने देखते हैं, क्योंकि उनको सपने तोड़ने की इच्छा पैदा होगी। और अभागे हैं वे लोग, जो ऐसे सपने देखते हैं जो बहुत सुखद हैं, क्योंकि फिर उन सपनों से जागने की इच्छा नहीं होती है। वह बहुत घातक, बहुत विषाक्त, बहुत नशीली स्थिति हो जाती है। इसलिए मैं कोई आत्मसात करने को नहीं कहता। किसी भी विचार, किसी भी धारणा, किसी भी कल्पना को; वरन यह कह रहा हूं कि सब धारणाएं, सब विचार, सब कल्पनाएं जब आपसे विदा हो जाती हैं, तब शेष रह जाती है आपकी चेतना। उस शेष चेतना में प्रश्न उठते हों, उस शेष चेतना में समस्या मात्र खड़ी रह जाए--नग्न समस्या, नग्न प्रश्न--तो उस प्रश्न की पीड़ा में जब कोई कल्पना, कोई स्मृति उत्तर देने को न होगी, तो आपके प्राणों से ही उत्तर, आपके प्राणों से ही समाधान आएगा। वह समाधान आपका निजी अनुभव है, निजी विचार है। कोई आत्मसात करने से विचार आपका नहीं होता है, न हो सकता है, न होने का कोई उपाय है।
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