आत्मा चित्तम्
आत्मा चित्तम्--इसका अर्थ है कि तुम अपने को पृथक मत मानना, कितने ही बुरे तुम हो। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपनी बुराई किए चले जाना। इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम बुरे बने रहना। तुम बने ही न रह सकोगे। मनस्विद कहते हैं कि व्यक्ति वैसा ही हो जाता है, जैसा वह स्वयं को मानता है। मान्यता ही धीरे-धीरे जीवन बन जाती है। मनस्विद कहते हैं कि अगर आदमी बुरा भी हो तो भी उसे बुरा मत कहना। क्योंकि बुरा कहने से, बार-बार पुनरुक्त करने से--कि तुम बुरे हो, तुम बुरे हो--यह मंत्र बन जाता है। और अगर सब तरफ सभी लोग दोहराते हों कि तुम बुरे हो, तो वह व्यक्ति भी भीतर दोहराने लगता है कि मैं बुरा हूं। न केवल वह दोहराता है, बल्कि जो सबकी अपेक्षा है, उसको सिद्ध करने की कोशिश भी करता है। धीरे-धीरे बुराई में आबद्ध हो जाता है। शायद धर्म के जगत में खोज करने वाले लोग इस सत्य को बहुत पहले पहचान लिए थे। उन्होंने तुम्हें जीवन की परम सत्ता को मंत्र बनाने को कहा है: आत्मा चित्तम्। तुम परमात्मा हो। तुम्हारी आत्मा ही तुम्हारा मन है। यह बड़ी से बड़ी बात है, जो तुम्हारे संबंध में कही जा सकती है। और अगर यह तुम्हारा मंत्र बन जाए; और यह तुम्हारे जीवन में ओत-प्रोत हो जाए; तुम्हारे रोएं-रोएं में समा जाए इसकी झंकार, तो तुम धीरे-धीरे पाओगे कि जो तुमने सोचा, वह तुम होने लगे हो; जो तुमने धुना भीतर, वह तुम्हारे जीवन में आना शुरू हो गया है।
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