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कार्ल मार्क्स का एक प्रसिद्ध वचन है--धर्म एक भ्रमात्मक सूर्य है, जो मनुष्य के गिर्द तब तक घूमता रहता है, जब तक कि मनुष्य मनुष्यता के गिर्द नहीं घूमता। लेकिन मेरे देखे धर्म है मनुष्य के पार जाने का विज्ञान। धर्म है अतिक्रमण की कला। धर्म न हो तो मनुष्य मनुष्य रह जाएगा। और मनुष्य का मनुष्य रह जाना ही दुख है, पीड़ा है, संताप है। क्योंकि मनुष्य अधूरा है। अधूरेपन में पीड़ा है। मनुष्य होकर कोई तृप्त नहीं हो सकता। मनुष्य के होने में ही अतृप्ति छिपी है।मनुष्य ऐसे है जैसे कली। कली जब तक फूल न हो, तब तक परेशान होगी। कली फूल होगी तो ही खुलेगी और खिलेगी। कली फूल होगी तो ही आनंद को उपलब्ध होगी। कली सिर्फ मार्ग पर है--फूल होने के मार्ग पर है। कली अंत नहीं, कली मंजिल नहीं। ऐसा ही मनुष्य है। मनुष्य का दुख भी यही है, मनुष्य की गरिमा भी यही है। दुख यह है कि मनुष्य पूरा नहीं है। और पशु-पक्षी पूरे हैं। पूरे से अर्थ है: वे यात्रा पर नहीं हैं। वे जैसे हैं, जहां हैं, वहीं समाप्त हो जाएंगे। कुत्ता कुत्ते की तरह ही रहेगा और मर जाएगा। कुत्ते में कोई प्रगति नहीं है। तुम किसी कुत्ते से यह न कह सकोगे कि तुम कम कुत्ते हो। सब कुत्ते बराबर कुत्ते हैं। लेकिन आदमी से तुम कह सकते हो कि तुम थोड़े कम आदमी हो। क्यों कह सकते हो? क्योंकि कोई आदमी थोड़ा कम आदमी होता है और कोई आदमी थोड़ा ज्यादा आदमी होता है। कोई आदमी इतना पूर्ण आदमी हो जाता है--कोई बुद्ध, कोई महावीर--कि हमें उसे भगवान कहना पड़ता है। वस्तुतः बात इतनी ही घटी है कि बुद्ध का फूल खिल गया; और कुछ नहीं हुआ है। हमारी कली बंद थी, बुद्ध का फूल खिल गया है। हम जहां हैं, जैसे हैं, वहां से आगे जाना होगा। आगे जाने की कला का नाम धर्म है। तो धर्म और मनुष्यता एक ही नहीं हैं। अगर साधारण मनुष्य को हम मनुष्य समझें, तो धर्म मनुष्य के पार जाने का विज्ञान है। अगर हम बुद्ध और महावीर को मनुष्य समझें और साधारण आदमी को समझें कि अभी मनुष्य नहीं है, तो फिर धर्म मनुष्य होने का विज्ञान है। कार्ल मार्क्स की उक्ति बुनियादी रूप से गलत है। लेकिन मार्क्स और साम्यवादियों की यह धारणा रही है कि मनुष्य के पार कुछ और नहीं है; मनुष्य अंत है। यह बड़ी खतरनाक भ्रांति है। अगर ऐसा मान लिया जाए कि मनुष्य के पार कुछ भी नहीं है, तो फिर रोटी-रोजी पर सब समाप्त हो जाता है। फिर आजीविका जीवन हो जाती है। फिर सुबह रोज उठो, दफ्तर जाओ, कमा लो, खा लो, पी लो, बच्चे पैदा कर दो और मर जाओ। फिर इसके पार कुछ बचता नहीं। फिर जीवन में कोई गहराई पैदा नहीं हो सकती। जीवन छिछला और उथला रह जाएगा। धर्म है मनुष्य के भीतर गहराई पैदा करने का उपाय, मनुष्य के भीतर डुबकी। और गहराइयों पर गहराइयां हैं। एक गहराई छुओगे, दूसरी गहराई के दर्शन शुरू होंगे। एक द्वार खोलोगे, नया द्वार सामने आ जाएगा। द्वार पर द्वार हैं। इस रहस्य की अनंतता है। धर्म के बिना मनुष्य नाममात्र को मनुष्य होगा। न तो फूल खिलेगा और न सुवास होगी।
लेकिन मार्क्स को धर्म का कुछ पता नहीं था। हो भी नहीं सकता था। कभी ध्यान तो किया नहीं। मार्क्स का वक्तव्य धर्म के संबंध में ऐसा ही है, जैसे किसी बहरे का वक्तव्य संगीत के संबंध में, या किसी अंधे का वक्तव्य प्रकाश के संबंध में।
हां, मार्क्स ने बाइबिल पढ़ी थी, ईसाइयों की किताबें पढ़ी थीं। उनसे धर्म का कुछ लेना-देना नहीं है। किताबों में धर्म नहीं है। अगर किताबों के धर्म को धर्म समझा जाए, तो मार्क्स ठीक कहता है कि धर्म एक भ्रमात्मक सूर्य है; अच्छा है कि आदमी इससे मुक्त हो जाए। अगर चर्चों में, और मंदिरों में, और मस्जिदों में धर्म समझा जाए, तो मार्क्स ठीक कहता है, अच्छा है इनसे मुक्त हो जाया जाए। अगर पुरोहितों और पंडितों में धर्म समझा जाए, तो मार्क्स ठीक कहता है कि इनके जाल के बाहर हो जाना बेहतर है। लेकिन वहां धर्म है नहीं। जिसको मार्क्स धर्म समझ रहा है, वह धर्म नहीं है। धर्म बुद्धों में है। मस्जिद में नहीं है, न मंदिर में है। धर्म तो ध्यानी में है, जहां समाधि फलती है, वहां धर्म है। मार्क्स को कोई समाधिस्थ व्यक्ति का सत्संग तो मिला नहीं। मार्क्स के धर्म के संबंध में जो भी विचार थे, किताबी थे। उसने संगीत के संबंध में किताबों में पढ़ा था, और प्रकाश के संबंध में औरों से सुना था; अपना कोई निजी अनुभव नहीं था। निजी अनुभव न होने के कारण अगर कोई अंधा यह कह दे कि यह सूर्य की सारी बात बकवास है, मुझे तो दिखाई नहीं पड़ता! और यह संगीत सब झूठ है, मैंने कभी सुना नहीं; जो मुझे नहीं सुनाई पड़ता, वह कैसे हो सकता है? ऐसे ही वक्तव्य हैं मार्क्स के। उनका कोई मूल्य नहीं है। धर्म के संबंध में मूल्य तो उसके वक्तव्य का है जिसने ध्यान जाना हो, जिसने ध्यान की गहराई छुई हो, ध्यान का अमृत पीया हो। उनके वक्तव्य का कोई मूल्य है जो अपने भीतर गए हों, जिन्होंने भीतर डुबकी मारी हो, जिन्होंने भीतर का रस पीया हो, जिन्होंने भीतर की रोशनी देखी हो, जो अंतर-आकाश में उड़े हों। उन सबने कहा है कि धर्म के बिना आदमी आदमी ही नहीं है। आदमी फिर कली रह जाएगा। और कली कितनी भी सुंदर हो, कुछ कमी है। अभी कली फूल नहीं हुई। और जब तक फूल न हो, तब तक नाचेगी कैसे? और जब तक फूल न हो, तब तक सुवास को लुटाएगी कैसे? और जब तक फूल न हो, तब तक तृप्ति कहां? आनंद कहां? धर्म मनुष्य के पार जाने की सीढ़ी है। ऐसा कहो, या ऐसा कहो कि असली मनुष्य होने की कला है। दोनों का मतलब एक ही होता है। अगर तुम असली मनुष्य हो, तो मनुष्यता के पार जाने की कला है धर्म। तुम्हारे तो पार जाना ही होगा। तुम जैसे हो इससे ऊपर उठना ही होगा। तुम तो परिधि पर जी रहे हो, तुम्हारे जीवन में कोई केंद्र नहीं है। और अगर बुद्ध और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट को हम मनुष्य की परिभाषा मानें, तो फिर धर्म का अर्थ होगा: पूर्ण मनुष्य होने की कला। यह मनुष्य की परिभाषा पर निर्भर होगा। लेकिन मार्क्स से पूछने मत जाओ। मार्क्स को कुछ पता नहीं है। ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में बैठ-बैठ कर उसने जो भी जाना था, वह धर्म नहीं है। धर्म जानने के लिए प्रार्थना में उतरना पड़ता है। वह काम हिम्मतवर का है। पागल होना पड़ता है। मस्ती में डूबना पड़ता है। किताबी नहीं है काम, शब्दों का नहीं है, शून्य के अनुभव में जाना होता है। और जो उस अनुभव में जाएगा, वह पाएगा: धर्म के अतिरिक्त मनुष्य के जीवन में कभी सुगंध नहीं आती। फिर उस धर्म का अर्थ ईसाइयत, हिंदू, इस्लाम नहीं होता। उस धर्म का अर्थ होता है: तुम्हारे भीतर छिपे हुए स्वभाव की अभिव्यक्ति; तुम्हारे भीतर पड़े हुए गीत का प्रकट होना।
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