रैदास

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हरि-सा हीरा छांड़िकै, करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रैदास।।
अंतरगति रांचै नहीं, बाहर कथै उदास।
ते नर जमपुर जाहिंगे, सत भाषै रैदास।।


रफ्ता-रफ्ता यह जमाने का सितम होता है
एक दिन रोज मेरी उम्र से कम होता है
बाग रोता है असीराने-कफस को शायद
दामने-सब्जा-ओ-गुल सुबह को नम होता है

मनुष्य सोचता है कि जी रहा है; सच्चाई कुछ और है; हम रोज मर रहे हैं। यह प्रक्रिया, जिसे हम जीवन कहते हैं, मृत्यु की प्रक्रिया है। जिस दिन हम जन्मे उसी दिन से मरना शुरु हो गया है। रोज एक-एक दिन चुकता जाता, प्रतिपल जीवन क्षीण होता। घट खाली हो रहा है, भर नहीं रहा है। और बूंद-बूंद खाली हो तो सागर भी खाली हो जाता है। और हम तो केवल गागर हैं। लेकिन इतने धीरे-धीरे होती है यह बात कि पता नही चलती। इतने आहिस्ता-आहिस्ता होती है यह बात कि जो बहुत सचेत हैं, जो बहुत जागरूक हैं, बहुत सावधान हैं, उन्हीं के अनुभव में आती है, बाकी तो धोखा खा जाते हैं।सुबह जाकर बगीचे में देखा है--फूलों की पंखुड़ियां, घास की पत्तियां, पत्तियों के किनारे गीले होते है। शायद बगीचा रो रहा है, बगीचे की आंखों में आंसू हैं--जान कर यह बात कि ये फूल अभी हैं, अभी नहीं हो जाएंगे; जान कर यह बात कि यहां सभी कुछ पिंजड़े में बंद कैदियों जैसे हैं। पिंजड़ों में बंद पक्षी ही नहीं हैं--आदमी भी, जो पिंजड़ों में बंद दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि उसके पिंजड़े सूक्ष्म हैं, अदृश्य हैं। वह भी बंद है। वह भी कैदी है। कोई हिंदू पिंजड़े में बंद है, कोई मुसलमान पिंजड़े में बंद है, कोई जैन पिंजड़े में बंद है। ये सब पिंजड़े हैं। पक्षपात अर्थात पिंजड़ा। बिना जाने किसी बात को मान लेना अर्थात पिंजड़ा। बिना अनुभव किए आस्था बना लेना अर्थात अंधापन। शायद बगीचा भी हमारे लिए रोता है; रोज सुबह फूलों के, पत्तियों के कोर-किनारे गीले होते हैं। लेकिन हमें होश नहीं; हम दौड़े चले जाते हैं अपनी बेहोशी में। हम वही किए चले जाते हैं जो हमने कल किया था, परसों किया था; जो हमने पिछले जन्मों में अनंत बार किया है। कैद तो कैद ही रहेगी, घर नहीं बन सकती। तुम्हारी कल्पनाएं कितनी ही करवटें बदलें--और यही हमने किया है जन्मों-जन्मों में। कल्पनाओं ने करवटें बदलीं। कभी यह थे तो वह होना चाहा, कभी वह थे तो यह होना चाहा--ऐसे हमने चौरासी करोड़ योनियों में यात्रा की है। कल्पनाओं की करवटें हैं, और कुछ भी नहीं। गरीब अमीर होना चाहता है और अमीर सोचता है, गरीबी में बड़ा अध्यात्म है। अमीर सोचता है, गरीबी में बड़ी स्वतंत्रता है। अमीर सोचता है, गरीब जानता है कैसे घोड़े बेच कर सोना, मैं तो सो ही नहीं पाता। शय्या है सुंदर तो क्या होगा, भवन है सुंदर तो क्या हो गया--नींद तो खो गई है! भोजन है स्वादिष्ट तो क्या करूं, भूख तो खो गई है! भूख तो है गरीब के पास, भोजन है अमीर के पास। गरीब तड़फता है कि भोजन हो अमीर जैसा; और अमीर तड़फता है कि भूख हो गरीब जैसी। जो जहां है वहीं अतृप्त है। जिनके पास धन है उनकी चिंता का अंत नहीं। और जिनके पास धन नहीं है उनकी एक ही चिंता है कि धन कैसे हो। जिनके पास है वे डरे हैं कि कहीं खो न जाए, जिनके पास नहीं है वे पीड़ित हैं कि कब होगा। जिनके पास है वे चाहते हैं कि और हो। तृप्ति कहीं भी नहीं है। आपा-धापी है, असंतोष है,अतृप्ति है। ये सब हमारे पिंजड़े हैं जिनमें हम बंद हैं। ये अदृश्य हैं पिंजड़े। इसलिए हम चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं; फिर भी हम पिंजड़ों में बंद हैं। ठीक से समझो तो शरीर भी पिंजड़ा है, मन भी पिंजड़ा है। शरीर है हड्डी-मांस-मज्जा से बना पिंजड़ा; मन है विचार,धारणाएं, पक्षपात, इनसे बना पिंजड़ा। मन और शरीर से जो मुक्त है, वही मुक्त है; वही जानता है जीवन के परम सौंदर्य को, जीवन के अर्थ को--अर्थवत्ता को, जीवन की भगवत्ता को! वही जानता है जीवन की शाश्वतता को। वही परिचित होता है--वह जो रहस्यों का रहस्य है, परमात्मा-उससे। उससे परिचित होते ही मृत्यु मिट जाती है, दुख मिट जाते है, पीड़ाएं मिट जाती हैं। आंनद की अहर्निश वर्षा होने लगती है, अमृत की झड़ी लग जाती है। फिर सावन ही सावन है, फिर कोई दूसरी ऋतु ही नहीं है।

रंगे-निशात देख मगर मुत्मइन न हो
शायद कि यह भी हो कोई सूरत मलाल की
गुलशन बहार पर है, हंसो ऐ गुलो हंसो
जब तक खबर न हो तुम्हे अपने मआल की
अहसास अब नही है मगर इतना याद है
शक्लें जुदा-जुदा थीं उरूजो-जवाल की

देखो चारों तरफ लोग हंस रहे, मुस्करा रहे, जीवन को जीने की चेष्टा कर रहे। हारें आखिर में भला, मगर चेष्टा में कोई कमी नहीं है। मुस्कुराहटें चाहे झूठी हों, ऊपर से चिपकाई गई हों, मगर हैं तो बहुत। देखो ये रंगीनियां! देखो यह उल्लास! यह ऊपर-ऊपर का उल्लास, ये ऊपर-ऊपर की रंगीनियां, यह ऊपर-ऊपर की बहार, यह झूठी बहार, ये झूठे वसंत!

लेकिन खयाल रखना, धोखा मत खा जाना, आश्वस्त मत हो जाना। लोगों को हंसते देख कर यह मत समझ लेना कि उनकी जिंदगी में हंसी है। हंसी तो कभी कुछ थोड़े से लोगों की जिंदगी में होती है--कोई बुद्व, कोई जीसस, कोई कबीर, कोई नानक, कोई रैदास। इस जगत में बहुत थोड़े से लोग हंस सके हैं। हंस सके हैं वे ही जिन्होंने अपने को जाना है। उनके भीतर फव्वारे फूटे हैं--आंनद के, उल्लास के, उत्सव के। बाकी सब हंसियां झूठी हैं, थोथी हैं--भीतर के खालीपन को छिपाने के उपाय हैं, भीतर की रिक्तता को भुलाने की व्यवस्थाएं हैं। आंसू हैं भीतर, और आंसू किसको दिखाओ! आंसुओं को छिपाना पड़ता है, कोई क्या कहेगा? क्यों अपनी भद्द कराओ! अंहकार कहता है, छिपा लो आंसुओं को; हंसो, मुस्कुराओ। नहीं भीतर मुस्कुरा सकते, कम से कम बाहर मुस्कुराओ। नहीं हो सत्य तुम्हारे पास, कोई फिकर नहीं; कम से कम सत्य का पाखंड तो करो! फूल असली न मिलें न सही, प्लास्टिक के भी फूल तो उपलब्ध हैं! कम से कम पड़ोसी तो धोखा खा जांएगे! नीत्शे ने कहा: अगर सच पूछो तो मैं इसीलिए हंसता हूं कि कहीं रोने न लगूं। अगर न हंसूंगा तो रो पडूंगा। वह जो ऊर्जा आंसू बनने को तत्पर खड़ी है, उसे किसी तरह मुस्कुराहट बनाता हूं। ऐसे औरों को धोखा देता हूं और औरों की आंखों में देखता हूं कि वे धोखा खा गए, तो उनके धोखे से खुद धोखा खाता हूं। जिंदगी बड़ी बेबूझ है! यहां तुम दूसरे को धोखा देते-देते अपने को धोखा देने लगते हो।

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