गुणात्मक

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सत्य उतना काफी हुआ; उतना स्वर्ग तक ले जा सके। और स्वर्ग हे कितनी दूर, खुद के भीतर ही तो है। जिसने ये समझ लिया, उसने सब सीख लिया। तुम सीखने की ज्यादा दौड़ में मत पड़ना, उसमें तुम वंचित हो जाओगे। किंचित भी, जरा सा भी बोध परमात्मा का आ गया, परमात्मा का गीत थोड़ा सा भी सुनाई पड़ गया, एक कड़ी भी कान में पड़ गई, एक शब्द भी हृदय तक उतर गया, तो वही बीज बन जाएगा--फूटेगा, वृक्ष बनेगा, परमात्मा का गीत थोड़ा सा भी सुनाई पड़ गया, एक कड़ी भी कान में पड़ गई, एक शब्द भी हृदय तक उतर गया, तो वही बीज बन जाएगा--फूटेगा, वृक्ष बनेगा, तुम अनंत सुगंध से भर जाओगे। एक बीज में सब कुछ छिपा है। पंडित, मौलवी कोरे के कोरे रह जाते हैं--गीता, कुरान बाइबल कंठस्थ हो जाती है, गीत सुनाई नहीं पड़ता; शब्दों से मस्तिष्क भर जाता है, हृदय भीगता नहीं; दोहरा सकते हैं गीता को, आंख में एक आंसू नहीं उतरता; प्राण में कोई स्वर नहीं बजता; पैर में कोई थिरक नहीं आती; पत्थर की तरह, मुर्दे की भांति, यंत्र की भांति दोहरा देते हैं; भीतर सब अछूता ही रह जाता है; रेखा भी नहीं पड़ती, छाया भी नहीं पड़ती। इसलिए कहते हैं: ‘जिसने किंचित भी गीता, कुरान और बाइबल पढ़ी है...’ इस जीवन से कोई श्रीमद् भगवद्गीता, कुरान और बाइबलका कोई संबंध नहीं है। क्योंकि जिसने किंचित भी कुरान पढ़ा है, वह भी पहुंच जाएगा; जिसने किंचित भी बाइबिल पढ़ी है, वह भी पहुंच जाएगा। और जिसने न बाइबिल पढ़ी है, न कुरान पढ़ा है, न गीता पढ़ी है--किंचित भी जीवन पढ़ा है, वह भी पहुंच जाएगा।  जोर है इस बात पर कि जिसने थोड़ी अपनी समझ जगाई है, जिसने जाग कर देखा है; जो सोया-सोया नहीं जीया; जिसने आंखें खोलीं और जीवन को पहचाना है--जरा सा भी। जरा सा छोर हाथ में आ जाए, फिर सारा स्वर्ग हाथ में है। एक किरण को भी तुम पकड़ लो, पूरा सूरज तुम्हारे हाथ में है। उसी किरण के सहारे अगर तुम चल पड़ो, तो सूरज कहां जाएगा? तुम अंधेरे घर में बैठे हो, खपड़ों के छेद से जरा सी एक किरण उतर रही है। उस किरण में पूरा सूरज छिपा है। तुम उसके सहारे ही चल पड़ो, तुम सूरज तक पहुंच जाओगे। पूरे सूरज को घर में उतारने की जरूरत भी नहीं है। उतने ज्यादा का करोगे क्या? अपच हो जाएगा। तो ध्यान रखना, कहीं ऐसा न हो कि तुम शास्त्र को इकट्ठा करने में लग जाओ। अन्यथा शास्त्र तुम्हारा कारागृह बन जाएगा। उससे तुम्हारे पंख उन्मुक्त न होंगे; न तुम्हारे प्राण नाचेंगे; न तुम स्वाभाविक हो सकोगे। शास्त्र के कारण जितने लोग अस्वाभाविक हो जाते हैं, उतने और किसी कारण से नहीं होते। अगर तुम समझ सको तो मैं तुमसे कहना चाहूंगा: शास्त्र के कारण जितने लोग अधार्मिक हो गए हैं, उतने किसी और कारण से नहीं। जितने शास्त्र बढ़ते गए हैं, उतना आदमी अंधा होता गया है; क्योंकि उसे लगता है कि सब समझ तो किताब में रखी है; पढ़ लेंगे किताब और समझ हाथ आ जाएगी। काश समझ इतनी सस्ती होती! तो सारी दुनिया समझदार हो गई होती। गीता घर-घर में है; बाइबिल, कुरान घर-घर में है। क्या कमी है? समझ बिलकुल नहीं है। और शास्त्र जितना उपलब्ध हो जाता है, उतना ही तुम चेष्टा छोड़ देते हो। ध्यान रखना, सिद्धांतों के जंगल में मत भटक जाना। ‘जिसने किंचित भी गीता पढ़ी है, गंगाजल की एक बूंद भी पी ली है...’ पूरी गंगा का करोगे भी क्या? जरूरत भी क्या है? पूरी गंगा बहुत है; एक बूंद तुम्हारे लिए काफी है। किस गंगा की बात कर रहे हैं शंकर? जिस गंगा पर तुम तीर्थयात्रा करने गए हो, उस गंगा की बात नहीं हो रही। गंगा तो प्रतीक है। जिसने पवित्रता की एक बूंद पी ली है; जिसने निर्दोषता की एक बूंद पी ली है; जिसने सरलता की एक बूंद पी ली है; बस उसने गंगा को चख लिया। गंगा जाने की जरूरत नहीं है। क्योंकि गंगा के किनारे कितने लोग ही बैठे हुए हैं, और कुछ भी नहीं हुआ। गंगा में ही जीए हैं, गंगा में ही स्नान किया है और कुछ भी नहीं हुआ। नहीं, बाहर दिखाई पड़ने वाली गंगा का सवाल नहीं है; एक और गंगा है जो भीतर बहती है। और एक बूंद काफी है। तुम्हारे लिए एक बूंद भी जरूरत से ज्यादा है। क्योंकि हमारी सीमा एक बूंद से बड़ी कहां? हमारा होना एक बूंद से बड़ा कहां? हम इस विराट अस्तित्व में एक छोटी सी बूंद हैं। गंगा की एक छोटी सी बूंद ही हमें नहला देगी और पवित्र कर देगी। लेकिन ठीक से समझ लेना: गंगा से अर्थ है निर्दोषता का; गंगा से अर्थ है सरलता का; गंगा से अर्थ है भीतर के कुंआरेपन का; गंगा से अर्थ है छोटे बच्चे की तरह निर्दोष हो जाने का। एक बूंद भी तुम्हारे बचपन की तुम वापस लौटा लो, फिर से तुम एक बार दुनिया को वैसा देख लो जैसा तुमने बचपन में देखा था--उन्हीं ताजी आंखों से, बिना किसी विचार के, बिना किसी निंदा के, बिना किसी निर्णय के। ऐसे ही देख लो जगत को जैसा तुमने पहली बार आंख खोली थी संसार में और देखा था। सिर्फ देखा था, कुछ भीतर विचार न उठा था--न कहा था अच्छा, न कहा था बुरा; न सुंदर, न असुंदर; न पाप, न पुण्य--सिर्फ देखा था भर आंख; सारा जगत तुम्हारे सामने था और भीतर कोई विचार न था। वैसे ही अगर तुम पुनः देख लो, एक बूंद भी वैसे बालपन की तुम्हें फिर मिल जाए, तो गंगा की बूंद तुमने चख ली। ‘गंगाजल की एक बूंद भी पी है और मुरारी की थोड़ी भी अर्चना की है...’ बहुत अर्चना से कुछ भी न होगा। बहुत अर्चना तो यही बताती है कि तुम अर्चना करना जानते नहीं। बहुत अर्चना का तो यही अर्थ है कि तुम पुनरुक्ति कर रहे हो मृत प्रक्रियाओं की। अन्यथा एक बार भी राम का नाम ले दिया तो बस काफी होना चाहिए। तुम रोज बैठे माला फेर रहे हो, राम-राम, राम-राम कहे चले जा रहे हो। कितनी बार राम-राम कहने से जीवन में राम का अवतरण होगा? कोई संख्या का हिसाब है? लोग हैं, जो हिसाब रखे बैठे हैं कि उन्होंने एक करोड़ दफे मंत्र पढ़ा है। लेकिन अगर एक बार मंत्र पढ़ने से कुछ भी न हुआ, तो एक करोड़ बार पढ़ने से क्या होगा? इसे थोड़ा समझो। मंत्र कोई गणित थोड़े ही है। मंत्र गुणात्मक है; क्वांटिटेटिव थोड़े ही है, मंत्र तो क्वालिटेटिव है; परिमाणात्मक नहीं है, गुणात्मक है। अगर होना है तो एक बार में हो जाएगा, अगर नहीं होना है तो तुम करोड़ बार दोहराते रहो तो क्या होगा! अगर पहली बार ही तुमने गलत दोहराया है, तो दूसरी बार तुम और भी गलत दोहराओगे, तीसरी बार और भी ज्यादा गलत दोहराओगे; क्योंकि गलती मजबूत होती जाएगी; जितना दोहराओगे, उतनी लीक मजबूत होती जाएगी। फिर तुम करोड़ बार दोहराओ कि दस करोड़ बार दोहराओ, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। ठीक पुकारने का सवाल है। और तब एक हृदय की आह भी काफी है; तब एक पुकार से भी क्रांति हो जाती है। परमात्मा बहरा थोड़े ही है, और परमात्मा कोई तुम्हारी खुशामद का आतुर थोड़े ही है कि तुम बहुत बार कहो तब सुनेगा। बिना कहे भी सुन लेता है, तुम्हारे हृदय में होना चाहिए। और तुम्हारी खोपड़ी से तुम कितना ही दोहराओ, कभी नहीं सुना जाता; क्योंकि तुम्हारी चिंतना से परमात्मा का कोई संबंध नहीं है, तुम्हारी प्रार्थना से संबंध है। जिसने जरा भी इस प्रार्थना का स्वाद सीख लिया, मृत्यु के पार हो गया।

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