रसरूप
सूत्र है: ‘रसो वै सः।’ सीधा-साधा अर्थ है: वह रसरूप है। लेकिन अनुवाद में तुम देखते हो, फर्क हो गया: ‘भगवान रसरूप है।’ ‘वह’ तत्काल ‘भगवान’ हो गया! ‘वह’ का मजा और। ‘भगवान’ में बात बिगड़ गई; वह न रही। भगवान वह हे जिसने रस स्वरूप भगवत्ता को जिया हे। ‘रसो वै सः’ तो सीधा-सादा शब्द है। मैं तो संस्कृत जानता नहीं, मगर यह तो सीधी-सीधी बात है। इसके लिए कुछ संस्कृत जानने की जरूरत नहीं है। इसमें ‘भगवान’ कहीं आता नहीं शब्द। ‘वह रस-रूप है।’ यह सूत्र गजब का है। लेकिन जैसे ही तुमने कहा, ‘भगवान रस-रूप है’, बात बिगाड़ दी। भगवान कैसे रस-रूप हो सकता है! भगवत्ता रस-रूप हो सकती है। ‘भगवान’ कहा कि मुश्किल हो गई शुरू। भगवान कहते ही तत्क्षण तुम्हारी धारणाएं जो भगवान की हैं--किसी के चतुर्भुजी भगवान हैं; किसी के त्रिमुखी भगवान हैं; किसी के भगवान के हजार हाथ हैं! किसी के भगवान का कोई रूप है; किसी के भगवान का कोई रूप है! किसी के भगवान गणेश जी हैं; हाथी की सूंड लगी हुई है! किसी के भगवान जी हनुमान जी हैं! बंदर भी हंसते होंगे, कि हम ही भले, कि किसी आदमी की पूजा तो नहीं करते! यह आदमियों को क्या हो गया है कि बंदरों की पूजा कर रहे हैं! हाथी भी चुपचाप मुस्कुराते होंगे कि वाह! हम ही भले! कि आदमी मिल जाए अकेले में, तो वो पटकना दें उसको कि रास्ते पर लगा दें! हम किसी आदमी की पूजा नहीं करते हैं! मगर यह हाथी रूपधारी गणेश जी की पूजा हो रही है! ‘जय गणेश, जय गणेश’ का गुंजार चल रहा है! गणेशोत्सव मनाए जा रहे हैं! आदमी अदभुत है! वह कोई न कोई रूप देना चाहता है। कोई न कोई रंग भरना चाहता है। तुम्हारा मन निराकार में जाने से डरता है। जिसने भी यह अनुवाद किया होगा, वह निराकार से घबड़ाया हुआ है। और शायद उसे पता भी न हो कि उसने फर्क कर दिया।पहले तो ‘रस।’ दुनिया की किसी भाषा में इसका ठीक-ठीक रूपांतरण नहीं किया जा सकता। रूपांतरण करते ही बात विकृत हो जाती है। क्योंकि जिन्होंने इस शब्द को जन्म दिया होगा, उन्होंने अनुभव का निचोड़ इसमें भरा है। यह सामान्य शब्द नहीं है; अनुभूतिजन्य है। इस छोटे से शब्द में अनुभव का सागर समाया हुआ है। इस बूंद में सिंधु है। इस बूंद को कोई समझ ले, तो सारे सागरों का रहस्य समझ में आ जाए। इस शब्द के बहुत पहलू हैं। पहला पहलू तो है कि रस का अर्थ होता है: जो सदा प्रवाहमान है, जो बह रहा है। वह गति, गत्यात्मकता ‘रस’ शब्द से सूचित होती है। जो चीज ठहरी, वह मरी। जो बहती रही, वह जीवित रही। जल तो वही है, जो हौज में भरा होता है और कुएं में भी। शायद उसी कुएं का जल हो। लेकिन हौज का जल मृत है, उसमें प्रवाह नहीं है। वह रस नहीं है। कुएं का जल प्रवाहमान है। उसमें झरने हैं। उसमें स्रोत हैं। उसमें गति है। वह अनंत-अनंत सागर से जुड़ा है। परोक्ष में दूर-दूर झर-झर कर पानी उस तक पहुंच रहा है। वह तो सिर्फ झरोखा है, जिसमें से सागर झांका है। और सागर भी ऐसा होकर झांका है कि अब पीआ जा सकता है। सागर से पानी न पी सकोगे। पीओगे तो मृत्यु हो जाएगी। सागर को पृथ्वी की बहुत सी तलों में से गुजरना पड़ता है, तब कहीं पीने योग्य हो पाता है। तब कहीं हम उसे अपना जीवन बना सकते हैं। और पानी के बिना कोई जीवन नहीं है। आदमी के शरीर में अस्सी प्रतिशत तो पानी ही है। कुएं का पानी तुम पी सकोगे; वह तुम्हारे पचाने के योग्य हो गया। पृथ्वी ने उसे शुद्ध किया, निर्मल किया। झर-झर कर निर्मल हुआ। बह-बह कर निर्मल हुआ। हौज में तो सड़ जाएगा; कुएं में नहीं सड़ता है। देखने में दोनों में एक जैसा लगता है। धर्म रस है। लेकिन कोई झरोखा चाहिए, जिससे तुम झांक सको। कोई झरना चाहिए, जिससे तुम पी सको। शब्द काम नहीं देंगे। शास्त्र काम नहीं देंगे। जानकारी और ज्ञान काम नहीं देगा। ध्यान ही काम दे सकता है। क्योंकि ध्यान से स्वाद मिलता है। रस का दूसरा पहलू: रस का अर्थ है, जिसका स्वाद लिया जा सके। तुम शब्द तो सुनते हो, मगर उनका स्वाद कहां? जैसे ‘ईश्वर’ शब्द तुमने सुना। कोई स्वाद आता है तुम्हें! तुम्हें बिलकुल स्वाद नहीं आता। ‘ईश्वर’ शब्द कान में भनभनाता है; एक कान में गूंजता है, दूसरे से निकल जाता है। तुम्हारे भीतर कोई हलन-चलन नहीं होती। कोई गति नहीं होती। कोई रस नहीं बहता। तुम मस्त नहीं हो जाते। तुम डोलने नहीं लगते। धर्म रस है अर्थात उसका स्वाद लेना होता है। खोपड़ी में भर लेने से स्वाद नहीं आता। स्वाद तो अनुभव से आता है। तुम लाख चर्चा सुनो मिठाई की, लेकिन कभी तुमने मीठा न चखा हो, तो चर्चा से क्या होगा! ‘मीठा’ शब्द याद हो जाएगा, लेकिन शब्द में कुछ अर्थ नहीं होगा। तुम्हारे लिए नहीं होगा अर्थ। अर्थ उनके लिए ही होगा, जिन्होंने चखा है।
मैं गंगा के किनारे बैठा था अपने एक मित्र के साथ। एक व्यक्ति स्नान कर रहा था। सुंदर देह। लंबे बाल। पीछे से यूं लगता था, जैसे कोई सुंदर स्त्री हो! वे मित्र बोले कि मुझसे न रहा जाएगा। मैं देख कर आता हूं। जब देह में ऐसा सौष्ठव है, कौन जाने चेहरा भी सुंदर हो। मैंने कहा: जाओ, जरूर देख आओ। वे गए। वहां से बिलकुल सिर पीटते लौटे। कहा: हद्द हो गई। एक साधु महाराज नहा रहे हैं। उनके बड़े घुंघराले बाल थे। बाल पीछे उनके लटक रहे थे। और देह भी उनकी सुंदर थी। जब ये उनको देख कर लौटे चेहरा, तब पता चला। अगर बैठे ही रहते, मुझसे उन्होंने ईमानदारी से न कहा होता, तो उस रात करवटें बदलते। विचार करते रहते। सपने में उतरते, और वह स्त्री कौन थी! और वहां कोई स्त्री थी ही नहीं। आंख बंद कर लोगे, तो रूप नष्ट नहीं होता और प्रगाढ़ हो जाता है। क्योंकि कल्पना को अवसर मिल जाता है। इसलिए स्त्रियां अपने को छिपाने की कला में निष्णात हो जाती हैं। पश्चिम की स्त्रियां इतनी सुंदर नहीं मालूम होतीं, यद्यपि ज्यादा सुंदर हैं। इतनी सुंदर नहीं मालूम होतीं, जितनी पूरब की स्त्रियां मालूम होती हैं। उसका कुल राज इतना है कि पश्चिम की स्त्री ने एक पुराना हिसाब बंद कर दिया। उसने पुरानी चालबाजी बंद कर दी, जो संस्कृति और धर्म के नाम पर बड़ी होशियारी से थोपी गई थी। उसने अपने शरीर को उघाड़ दिया है। वह सहज-स्वाभाविक हो गई है। लाखों स्त्रियां नग्न स्नान कर रही हैं समुद्र तटों पर। कोई देखने के लिए भीड़ इकट्ठी नहीं होती। भीड़ इकट्ठी होती ही तब है, जब देखना मुश्किल हो। भारत में जितने धक्के लगते हैं स्त्रियों को, दुनिया में कहीं नहीं लगते। धार्मिक देश है! पुण्यभूमि है! यहां देवता पैदा होने को तरसते हैं! वे भी इसीलिए तरसते होंगे! कि थक गए उर्वशी और मेनका से। हेमा मालिनी को धक्का देना चाहते हैं। खबरें तो पहुंचती होंगी! कोई देवता भी ऐसा थोड़े ही कि अखबार न पढ़ते होंगे! थोड़ी देर से पहुंचते होंगे अखबार, पहुंचते तो होंगे ही। पढ़-पढ़ कर उनके भी जी पर सांप लोट जाता होगा। आंख बंद करने से नहीं कुछ होने वाला है। तुम्हारे धर्मों ने तुम्हारी इंद्रियों को मारने की कला सिखाई है। जिह्वा को मार डालो! अलग-अलग धर्मों ने अलग-अलग इंद्रियों को तोड़ने के उपाय खोजे हुए हैं। इस्लाम संगीत के खिलाफ है। क्योंकि संगीत कहीं न कहीं कामवासना से जुड़ा हुआ है। यह आकस्मिक नहीं है कि संगीत कामवासना से जुड़ा हुआ है, क्योंकि सारे पशु-पक्षियों की पुकारें और गीत कामवासना के ही अंग हैं। मनुष्य ने भी उनसे ही संगीत सीखा है। भारत का अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह कवि भी था। उसका कवि नाम था, जफर। बहादुर शाह जफर। मिर्जा गालिब से वह अपनी कविताओं में संशोधन करवाता था। गालिब उसके गुरु थे। और भी उसके गुरु थे। उर्दू शायरी में यह परंपरा है कि तुम क्या लिखोगे अपने आप! इतना लिखा जा चुका है! ऐसे-ऐसे बारीक और नाजुक खयाल बांधे जा चुके हैं कि किसी गुरु के पास बैठ कर पहले समझो। और जरा से शब्दों के तालमेल से बहुत फर्क पड़ जाता है। तो वह सीख लिया करता था। उसने एक दिन मिर्जा गालिब को पूछा कि आप कितने गीत रोज लिख लेते हैं? मिर्जा गालिब ने कहा: कितने गीत रोज! यह कोई मात्रा की बात है! अरे कभी तो महीनों बीत जाते हैं और एक गीत नहीं उतरता। और कभी वर्षा भी हो जाती है। यह अपने हाथ में नहीं। यह तो किन्हीं क्षणों में झरोखा खुलता है। किसी अलौकिक जगत से कोई किरण उतर आती है, तो उतर आती है। बंध जाती है, तो बंध जाती है। छूट जाती है--छूट जाती है। चूक जाती है--चूक जाती है! कभी तो आधा ही गीत बन पाता है, फिर आधा कभी पूरा नहीं होता। अपने हाथ में नहीं। प्रतीक्षा करनी होती है। जफर ने कहा: अरे, मैं तो दिन में जितने चाहूं, उतने गीत लिख लूं। पाखाने में बैठे-बैठे मुझे गीत उतर आते हैं! गालिब तो हिम्मत के आदमी थे। गालिब ने कहा कि महाराज, इसीलिए आपके गीतों में पाखाने की बदबू आती है! हिम्मतवर लोग थे। कोई अब बहादुर शाह जफर सम्राट थे, इसलिए कोई गालिब छोड़ देंगे उनको, ऐसा नहीं था। कहा कि अब मैं समझा। अब मैं समझा राज! कभी-कभी मुझे भी बदबू आती थी आपके गीतों में.कि मामला क्या लिखते हो आप! कूड़ा-करकट! अब जब पाखाने में बैठ कर लिखोगे, तो फिर ठीक ही है! कृपा करके ऐसा न करो। जफर को चोट भी लगी, और समझ में भी बात आई। और इसके बाद ही जफर ने जो गीत लिखे--थोड़े से लिखे, मगर गजब के लिखे। वे फिर जफर ने नहीं लिखे, जैसे रस ही बहा। रस का यह पहलू समझो। तुम्हारी इंद्रियां ज्यादा संवेदनशील होनी चाहिए। उनकी संवेदनशीलता पराकाष्ठा पर पहुंचनी चाहिए। आंख उतना देखे, जितना देख सकती है। रूप की तहों में उतर जाए; रूप की गहराइयों को छू ले। ‘रस’ शब्द को खयाल में रखो। उसका अर्थ अनुभव, स्वाद! सत्य तुम्हारे कंठ से उतरना चाहिए; तुम्हारी जीभ पर चखा जाना चाहिए। सत्य की प्रतीति ऐंद्रिक होनी चाहिए। यह रस का अर्थ है। लेकिन तुम्हारे तथाकथित महात्मा तो इंद्रियों के विपरीत हैं। उनकी तो चेष्टा यह है कि सारी इंद्रियों को मार डालो। परमात्मा तो सब रूपों में छाया हुआ है। आंख अगर गहराई से देखेगी, तो हर रंग में उसका रंग है। कान अगर गहराई से सुनेंगे, तो हर ध्वनि में उसकी ध्वनि है, उसका नाद है, ओंकार है ‘इक ओंकार सतनाम!’ वह जगह-जगह सुनाई पड़ेगा। मगर बहुत गहरे सुनने की कला आनी चाहिए। अगर तुम स्पर्श की क्षमता में पूरे के पूरे प्रवीण हो जाओ, तो तुम जो छुओगे, उसी में परमात्मा का स्पर्श मिलेगा। सारी इंद्रियां संवेदनशील होनी चाहिए। संवेदना पराकाष्ठा पर होनी चाहिए, तब तुम जानोगे कि वह रसरूप है। भगवत्ता रसरुप हे। परमात्मा रसरूप हे। इतने ज्यादा शब्दों की भी जरूरत नहीं है। सूत्र का तो सिर्फ इतना ही अर्थ होता है: उस रस को उपलब्ध करना ही आनंद है। ‘रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।’ संस्कृत को जानने की जरूरत ही नहीं है। सीधी सी बात है। ‘रसं ह्येवायं लब्ध्वा।’ उस रस को जिसने पा लिया, उपलब्ध कर लिया, लब्ध कर लिया; जो उस रस-रूप हो गया--उसे आनंद उपलब्ध हुआ। आनंद की भी कुंजी दे दी।
Comments
Post a Comment