निर्वाण

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वह घड़ी धन्य है जब व्यक्ति को फूलों में भी कांटे दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं; जब वसंत में भी पतझड़ का आभास मिलता है; और जब जीवन में भी मृत्यु की छाया की स्पष्ट प्रतीति होने लगती है। जिसने फूल ही देखे, वह भटका। जिसने फूलों में छिपे कांटे भी देख लिए, वह पहुंचा। जो वसंत में रम गया और पतझड़ को भुला बैठा, वह आज नहीं कल रोएगा, बहुत रोएगा; पछताएगा, बहुत पछताएगा। लेकिन जिसने वसंत में भी पतझड़ को याद रखा, वह दुख के पार हो जाता है, दुख से अतिक्रमण कर जाता है। जीवन में द्वंद्व है--सुख का, दुख का; जन्म का, मृत्यु का; कांटों का, फूलों का; वसंतों का, पतझड़ों का। इस द्वंद्व में हम एक को पकड़ते हैं और दूसरे से बचना चाहते हैं। यही हमारी व्यथा है, यही हमारी पीड़ा है। जिसे हम पकड़ना चाहते हैं, पकड़ में नहीं आता, छूट-छूट जाता है; और जिससे हम बचना चाहते हैं, बच नहीं पाते, उसकी पकड़ में आ-आ जाते हैं। लेकिन जिम्मेवारी किसी और की नहीं है, हम स्वयं ही जिम्मेवार हैं। क्योंकि जो हमें विपरीत दिखाई पड़ता है वह केवल विपरीत दिखाई ही पड़ता है; है नहीं। कांटे और फूल साथ-साथ हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जीवन और मृत्यु भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम एक पहलू को बचाना चाहो और दूसरे को छोड़ना चाहो, यह कैसे होगा? असंभव नहीं होता है, नहीं हो सकता है। असंभव करने चलोगे तो पीड़ा पाओगे। और यही पीड़ा जन्मों-जन्मों से हम पा रहे हैं। इसलिए कहता हूं: वह घड़ी धन्य है जब तुम्हें जीवन का द्वंद्व दिखाई पड़ जाए और यह भी दिखाई पड़ जाए कि यह द्वंद्व एक बड़ा षड्‌यंत्र है। जैसे ही यह बात दिखाई पड़ जाएगी, तुम द्वंद्व से ऊपर उठने लगे, अतीत होने लगे। तुम द्रष्टा हो जाओगे फिर; न जीवन, न मृत्यु--दोनों के साक्षी; न दिन, न रात--दोनों के साक्षी; न वसंत, न पतझड़--दोनों के साक्षी; न प्रेम, न घृणा--दोनों के साक्षी। और जो व्यक्ति हर द्वंद्व का साक्षी है वह समाधिस्थ है; वह निर्वाण को उपलब्ध है।

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