गुरुत्वाकर्षण

Osho Hindi speech audio mp3 Download,Osho Audio mp3 free Download, Osho discourses in Hindi Download,Osho world AudioOsho Quotes in Hindi, Osho Quotes


कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन कर्मफल की आसक्ति को छोड़ कर, फलासक्ति को छोड़ कर जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाते हैं। ये सब बातें समझने जैसी हैं।

फलासक्ति से मुक्त होकर। कर्म से मुक्त होने को नहीं कहा जा रहा है कि काम से मुक्त हो जाते हैं, कर्म से मुक्त हो जाते हैं; नहीं, फलासक्ति से मुक्त हो जाते हैं। फलासक्ति से मुक्त हो जाने का जोर ही इसलिए है कि कर्म पीछे बचाया गया है। कर्म तो रहेगा, फलासक्ति नहीं रहेगी। 

फलासक्ति से मुक्त होकर कोई कैसे कर्म को उपलब्ध होगा, यह थोड़ा सोचने जैसा है। हम तो अगर फल से मुक्त हो जाएं तो कर्म से ही मुक्त हो जाएंगे। अगर कोई आपसे कहे कि फल की कामना न करें और कर्म करें, तो आप कहेंगे, मैं पागल हूं! अगर फल की कामना नहीं है तो कर्म क्यों होगा? फल की कामना से ही तो कर्म होता है। एक कदम भी उठाते हैं तो किसी फल की कामना से उठाते हैं। अगर फल की कामना ही नहीं होगी, तो कदम ही क्यों उठेगा? हम उठाएंगे ही क्यों? इस ‘फलासक्ति से मुक्त होकर’, इस शब्द ने, जिन लोगों ने कृष्ण को सोचा है, उन्हें बड़ी कठिनाई में डाला है। और सबसे बड़ी कठिनाई उन्होंने यह पैदा की है कि तब उन्होंने एक बहुत ही रहस्यपूर्ण ढंग से फल की पुनर्प्रतिष्ठा कर दी है। फिर उन्होंने यह कहा कि जो फलासक्ति से मुक्त होते हैं, वे मोक्ष को या मुक्ति को उपलब्ध हो जाते हैं। और मुक्ति और मोक्ष को फल की तरह उपयोग में लाना शुरू किया है, कि तुम ऐसा करोगे तो ऐसा मिलेगा, तुम ऐसा करोगे तो ऐसा नहीं मिलेगा। यही तो फल की आकांक्षा है। मोक्ष को भी फल बना लिया। तभी वे लोगों को समझा पाए कि तुम सब और फलों को छोड़ दो। तो मोक्ष को अगर पाना चाहते हो, तो सब फलों को छोड़ कर ही तुम मोक्ष को पा सकते हो। लेकिन यह तो कृष्ण के साथ बड़ी ज्यादती हो गई। अगर कृष्ण ऐसा भी कहते हैं कि जो सब फलासक्ति से मुक्त हो जाते हैं, वे ज्ञानीजन जन्मरूपी बंधन से मुक्त होते हैं, तो उनकी मुक्त होने की जो बात है वह सिर्फ परिणाम की सूचक है। कांसीक्वेंस की खबर है। वह फल नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिन्हें जन्मरूपी बंधन से मुक्त होना है, वे फल की आकांक्षा छोड़ दें। तब तो यह फिर फल की ही आकांक्षा हो गई। यह सिर्फ खबर है कि ऐसा होता है। फल की आकांक्षा छोड़ने से मुक्ति फलित होती है, ऐसा होता है। लेकिन मुक्ति की आकांक्षा जो करता है उसे तो मुक्ति कभी फलित नहीं हो सकती, क्योंकि वह फल की आकांक्षा करता है।

अगर कृत्य अपने में पूरा है, टोटल, अपने से बाहर उसकी कोई मांग ही नहीं है, तो फलाकांक्षारहित हो जाता है। कोई भी कृत्य जो अपने में पूरा है, सर्किल की तरह है; वृत्त की तरह अपने को घेरता है और पूर्ण हो जाता है और अपने से बाहर की कोई अपेक्षा ही उसमें नहीं है। बल्कि छाता देकर आपने उसे धन्यवाद दिया कि तूने मुझे एक पूर्ण कृत्य करने का मौका दिया, जिसमें कि कोई आकांक्षा न थी, वह अवसर मेरे लिए दे दिया! फलाकांक्षा से भरा हुआ व्यक्ति किसी न किसी तरह की आकांक्षा, अपेक्षा से भरा होगा। लेकिन जब पूर्ण कृत्य होता है तो वह इतना आनंद दे जाता है कि उसके पार कोई मांग नहीं है। फलाकांक्षारहित कृत्य का मेरी दृष्टि में जो अर्थ है वह यह है कि कृत्य पूर्ण हो, उसके बाहर कोई सवाल ही नहीं है। वह खुद ही इतना आनंद दे जाता है, वह खुद ही अपना फल है, कृत्य ही अपना फल है, आज ही अपना फल है, यही क्षण अपना फल है। 

कृष्ण की फलाकांक्षारहित कर्म की जो दृष्टि है, उसका कुल मतलब इतना है कि तुम इतना भी अपना हिस्सा भविष्य के लिए मत तोड़ो कि इस काम में बाधा पड़ जाए, तुम इस काम को पूरा ही कर लो। भविष्य जब आए तब तुम भविष्य में पूरे हो लेना, कृपा करके अभी तुम पूरे हो लो। अभी तुम इसी में पूरे हो लो। भविष्य आएगा। और तुम्हारे पूरे होने से फल निकलेगा। उसकी तुम चिंता ही मत करो, उसे तुम निश्र्चिंत हो परमात्मा पर छोड़ सकते हो। इसका मतलब यह हुआ कि हम जो कर रहे हैं वह हमारा आनंद हो जाए, तभी हम भविष्य से और फल से बच सकते हैं। जो हम कर रहे हैं वह हमारे आनंद से सृजित हो, वह हमारे आनंद से निकले, उसका आविर्भाव हमारे आनंद से हो, वह हमारे भीतर से झरने की तरह फूटे; किसी भविष्य के लिए नहीं; पशु की तरह नहीं, झरने की तरह। झरना किसी भविष्य के लिए नहीं फूट रहा है।

Comments

Popular Posts