अकर्म, कर्म और विकर्म

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कृष्ण तीन शब्दों का प्रयोग करते हैं--अकर्म, कर्म और विकर्म। कर्म वे उसे कहते हैं...सिर्फ करने को ही कर्म नहीं कहते। अगर करने को ही कर्म कहें, तब तो अकर्म में कोई जा ही नहीं सकता। फिर तो अकर्म हो ही नहीं सकता। करने को कृष्ण ऐसा कर्म कहते हैं जिसमें कर्ता का भाव है। जिसमें करने वाले को यह खयाल है कि मैं कर रहा हूं। मैं कर्ता हूं। ईगोसेंट्रिक कर्म को वे कर्म कहते हैं। ऐसे कर्म को, जिसमें कर्ता मौजूद है। जिसमें कर्ता यह खयाल करके ही कर रहा है कि करने वाला मैं हूं। जब तक मैं करने वाला हूं, तब तक हम जो भी करेंगे वह कर्म है। अगर मैं संन्यास ले रहा हूं, तो संन्यास एक कर्म हो गया। अगर मैं त्याग कर रहा हूं, तो त्याग एक कर्म हो गया। अकर्म का मतलब ठीक उलटा है। अकर्म का मतलब है ऐसा कर्म, जिसमें कर्ता नहीं है। अकर्म का अर्थ, ऐसा कर्म जिसमें कर्ता नहीं है। जिसमें मैं कर रहा हूं, ऐसा कोई बिंदु नहीं है। ऐसा कोई केंद्र नहीं है जहां से यह भाव उठता है कि मैं कर रहा हूं। अगर मैं कर रहा हूं, यह खो जाए, तो सभी कर्म अकर्म है। कर्ता खो जाए तो सभी कर्म अकर्म है। इसलिए कृष्ण का कोई कर्म कर्म नहीं है, सभी कर्म अकर्म है। कर्म और अकर्म के बीच में विकर्म की जगह है। विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। अकर्म तो कर्म ही नहीं है; कर्म कर्म है; विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। इस शब्द को भी ठीक से समझ लेना चाहिए, यह दोनों के बीच में खड़ा है। विशेष कर्म किसे कहते हैं कृष्ण? जहां न कर्ता है और न कर्म है। फिर भी चीजें तो होंगी। फिर भी चीजें तो होंगी ही। आदमी श्र्वास तो लेगा ही। न कर्म है, न कर्ता है। श्र्वास तो लेगा ही। श्र्वास कर्म तो है ही। खून तो गति करेगा ही शरीर में। भोजन तो पचेगा ही। ये कहां पड़ेंगे? ये विकर्म हैं। ये मध्य में हैं। यहां न कर्ता है, न कर्म है। साधारण मनुष्य कर्म में है, संन्यासी अकर्म में है, परमात्मा विकर्म में है। वहां न कोई कर्ता है, न कोई कर्म है। वहां चीजें ऐसी ही हो रही हैं, जैसे श्र्वास चलती है। वहां चीजें बस हो रही हैं। जस्ट हैपनिंग। विकर्म को समझें। कर्म करते रहें और विकर्म को समझें। कर्म करते रहें और जीवन को समझें। दि वेरी अंडरस्टैंडिंग, जिंदगी की समझ बताएगी कि मैं क्या कर रहा हूं! न मैं जन्मता हूं, न मैं मरता हूं, न मैं श्र्वास लेता हूं। न मुझसे कभी किसी ने पूछा कि आप होना चाहते हैं? विकर्म की समझ का नाम प्रज्ञा है। विकर्म की समझ का नाम व़िजडम है। जो विकर्म को समझ लेता, वह सब समझ लेता है। तब कर्म एकदम अकर्म हो जाता है। विकर्म कीमिया है, वह बीच का द्वार है। कर्म से गुजरते वक्त पड़ेगा विकर्म। और अकर्म में स्मरण आ जाता है, आपको लाना नहीं पड़ता। जिस स्मरण को आप लाएंगे, वह कर्म होगा। जो स्मरण आएगा, वही आपके कर्ता के बाहर से आएगा; कॉज्मिक से आएगा, ब्रह्मांड से आएगा। इसलिए वेद को हम कह सके कि यह अपौरुषेय है। इसका यह मतलब नहीं है कि जिन्होंने लिखा वे आदमी नहीं थे। इसलिए हम अपौरुषेय कह सके कि जो खबरें उन्होंने वेद में दी हैं, वे उनके पुरुष से नहीं आई थीं, वे उनके पुरुष के पार से आई थीं। वे उनकी पर्सनैलिटी के बाहर से आई थीं, वे उनके होने के आगे से आई थीं, वे कॉज्मिक खबरें थीं। इसलिए हम कह सके कि वेद जो है, वह ईश्र्वर का वचन है। उसका यह मतलब नहीं है कि वेद ही ईश्र्वर का वचन है। जब भी किसी के भीतर से व्यक्ति के पार से कोई खबर आती है, वह ईश्र्वर का वचन होता है। इसलिए मोहम्मद के कुरान को कहा जा सका कि वह ईश्र्वर का इलहाम है, उसकी तरफ से दिया गया ज्ञान है। इसलिए जीसस कह सके कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं वह मैं नहीं कहता, वह परमात्मा ही कह रहा है। इसलिए कृष्ण तो सीधा कह सके कि मैं हूं ही नहीं, परमात्मा ही है। 

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