धार्मिक आकांक्षा
एक शब्द है हमारे पास नीति। उसे ठीक से समझ लेना जरूरी है। नीति है ऐसा आचरण, जो हमारे भीतर से नहीं उपजता, जिसे हम दूसरे को दिखाने के लिए करते हैं; जो अहंकार को जन्म देता है, जिसकी जड़ें हमारे भीतर अंतरात्मा में नहीं होतीं, जिसे हम ऊपर से ओढ़ते हैं; जिससे हम भिन्न होते हैं। न केवल भिन्न, बल्कि विपरीत होते हैं। तो धार्मिक अर्थ में नीति धर्म नहीं है; नीति धर्म का धोखा है। धोखा है और बड़ा कुशल धोखा है। जिससे हमारा कोई तालमेल नहीं होता, लेकिन सम्मान के लिए, समादर के लिए, आस-पास की भीड़ को राजी करने के लिए, समूह के लिए उसे हम अपने ऊपर ओढ़ते हैं। नीति ओढ़ी गई घटना है। इसलिए व्यक्ति की सारी आकांक्षा नीति के मार्ग से सम्मान पाने की है, सूक्ष्म अहंकार की है, जैसे लोग अपने बच्चों को भी समझाते हो, तुम्हारे माता-पिता ने भी तुम्हें समझाया था कि अगर सम्मान चाहते हो, ईमानदार बनना। लेकिन सम्मान चाहने के लिए बनी गई ईमानदारी कितनी ईमानदारी हो सकती है! बात बीज से ही झूठ हो गई। अगर अपमान मिलता हो तब? तब ईमानदार होना या नहीं होना? तब जरा खतरा है। सम्मान चाहते हो तो ईमानदार होना। लेकिन चाह सम्मान की है। सम्मान यानी अहंकार की पूजा और प्रतिष्ठा चाहते हो। अहंकार से ईमानदारी का क्या संबंध हो सकता है? समाज ने सिखाया है कि अगर कुछ पाना चाहते हो तो सच्चे होना। अगर कुछ पाना चाहते हो तो आचरणवान होना। लेकिन चाह ही तो सबसे बड़ा दुराचरण है। तो तुम दुराचरण की सेवा में आचरण को संलग्न कर रहे हो। तुमने प्रारंभ से ही झुठला दिया व्यक्ति की धार्मिक आकांक्षा को। तुमने अहंकार के आधार पर ही सारी व्यवस्था खड़ी की है। और जब भी व्यक्ति पाता है, अपमान मिल रहा है, तब अहंकार को चोट लगती है। तब वह फिर सम्मान को पाने की चेष्टा शुरू कर देता है। जितना ज्यादा सम्मान मिलता जाता है, उतना ही अहंकार पूजित होता चला जाता है। और अहंकार जितना भरता है, उतने स्वयं से संबंध टूट जाते हैं। अहंकार तुम्हारा तुमसे ही दूरी का नाम है। तुम कितने अपने घर से दूर निकल चुके हो, उस फासले का नाम ही अहंकार है। एक दूसरे तरह का व्यक्ति है, जो समादर नहीं चाहता, समाधान चाहता है। जो चाहता है कि मेरे भीतर एक अपूर्व शांति हो। मेरे भीतर एक आनंद की वर्षा हो। जो चाहता है कि मैं जीवन की कृत्यता को उपलब्ध हो जाऊं। कि मैं जान लूं जीवन क्या है। कि मेरा जीवन ऐसे ही न खो जाए। व्यर्थ के चांदी-सोने के ठीकरे इकट्ठे करने में मैं व्यतीत न हो जाऊं। मैं ऐसे ही समाप्त न हो जाऊं बिना कुछ जाने, बिना कुछ भीतर के रस को उपलब्ध हुए। भीतर की वीणा न बजे और कहीं जीवन का अवसर न चूक जाए। ऐसा व्यक्ति धार्मिक है।क्योंकि जो व्यक्ति भीतरी समाधान चाहता है, वह भी सच्चा होता है; लेकिन उसकी सचाई का कारण सम्मान पाने की आकांक्षा नहीं होती, वह सम्मान पाने के लिए सच्चा नहीं होता। वह सच्चा होता है इसलिए सम्मान मिलता है, यह बात दूसरी। वह सच्चा ही रहेगा, चाहे अपमान मिले। वह सच्चा ही रहेगा, चाहे नरक में फेंक दिया जाए। क्योंकि उसने सच्चाई के स्वर्ग को अनुभव कर लिया। अब कोई और चीज उसकी सच्चाई को हटा नहीं सकती।
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