प्रतिष्ठित
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के बहलाने को गालिब ये खयाल अच्छा है
गालिब कहते है तुम्हें अच्छी तरह पता है। तुम्हारा स्वर्ग, तुम्हारा मोक्ष, तुम्हारा परमात्मा, इसकी हकीकत तुम्हें अच्छी तरह मालूम है। यह तुम्हारा परमात्मा कुछ भी नहीं है। सुनी हुई बातचीत है। उड़ी हुई अफवाह है। दूसरों से सुन लिया, गुन लिया, शास्त्रों से पढ़ लिया है। शब्द घुस गया है मन में, संस्कार बन गया है। हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन और तुम भी जानते हो कि तुम्हारे स्वर्ग का क्या अर्थ है। तुम्हारे ही सपने का विस्तार है। तुम्हें पता है कि तुम्हारा परमात्मा क्या है। वह तुम्हारी ही आकांक्षाओं का पहरेदार है। तुम्हें पता है कि तुमने ये शब्द, ये सिद्धांत क्यों पकड़ रखे हैं। क्योंकि तुम भयभीत हो, अकेले हो, डरते हो, सहारा चाहिए। झूठा ही सही। लेकिन इस अकेले में दिल को बहला लेते हैं, किसी से भर लेते हैं। तुम्हारा परमात्मा सच नहीं है। क्योंकि तुम अभी बहुत सच हो। तुम अभी जरूरत से ज्यादा यथार्थ हो। तुम उसे जगह न दोगे। तुम ही तो बाधा बने हो। तुम्हारे अतिरिक्त तुम्हारे और परमात्मा के बीच और कोई भी नहीं खड़ा है। इसलिए बुद्ध कहते हैं, मन को समझो। मन यानी तुम। मन यानी मनुष्य। और जहां मन चला गया, वहां ध्यान। और जहां ध्यान, वहां परमात्मा। तुम्हारे होने के दो ढंग हैं। एक मन और एक ध्यान। तुमने कभी खयाल किया, जब तुम बीमार होते हो, तब भी तुम ही होते हो। और जब तुम स्वस्थ होते हो, तब भी तुम ही होते हो। तो बीमारी और स्वास्थ्य तुम्हारे दो होने के ढंग हैं। बीमारी बेचैनी है। बीमारी एक पीड़ा है। बीमारी एक दुख है, दर्द है। स्वास्थ्य एक शांति है। जैसे भटका-भूला घर लौट आया। जैसे थके-मांदे को वृक्ष की छाया मिली। स्वास्थ्य सुख है। वह भी तुम्हारे होने का ढंग है। तो एक तो तुम्हारे होने का ढंग मनुष्य है। वह यानी बीमारी, मन। और एक तुम्हारे होने का ढंग ध्यान है, स्वास्थ्य है, परमात्मा है। तुम ही जब स्वस्थ होते हो, परमात्मा हो जाते हो। तुम्हीं जब बीमार होते हो, आदमी हो जाते हो। इसलिए बुद्ध कहते हैं, इस धार्मिक चर्चा को मत चलाओ। इससे कुछ लाभ तो होता नहीं, हानि बहुत हो जाती है। इससे किसी की कुछ समझ में तो आता नहीं, नासमझी बहुत बढ़ जाती है। यह बात ही मत चलाओ। बस इतना ही कहो संक्षिप्त में, कि कैसे यह मन शांत हो जाए। कैसे ये लहरें सो जाएं। कैसे झील स्वस्थ हो जाए। कैसे प्रतिबिंब बन सके परमात्मा का उसमें। प्रतिबिंब, यह भी सब बातचीत है। लेकिन कठिनाई यह है कि किसी भी तरह से उस तरफ इशारा करो, शब्द को लाना पड़े। मगर असलियत यह है कि जब झील पूरी शांत होती है तो चांद ही हो जाती है। अब इसे कैसे कहो? जब तुम पूरे शांत होते हो तो परमात्मा से मिलना नहीं होता, तुम परमात्मा हो जाते हो। अशांति में तुम मनुष्य समझते हो अपने को, परमात्मा नहीं समझ पाते। कैसे समझोगे? इतनी पीड़ा में, और तुम परमात्मा! इतनी दीनता में, और तुम परमात्मा! मनुष्य दीन है। अपने को ईश्वर कैसे मानेगा। ईश्वर तो तभी मान सकता है जब जीवन में परम ऐश्वर्य प्रगट हो। जब भीतर वैभव उठे। और जब भीतर ऐसी घड़ी आए कि लगे कि सब कुछ तुम्हारा है। सब तुम हो। चांद-तारे तुम्हारे भीतर घूमते हैं। और तुम्हारे ही हाथ के इशारे से जगत चलता है। तुम इस जगत की प्राण-प्रतिष्ठा हो। तुम इसके केंद्र पर हो। तुम ऐसे ही अजनबी नहीं हो। तुम कोई बिन बुलाए मेहमान नहीं हो। तुम घर के मालिक हो। तुम मेहमान नहीं हो, मेजबान हो। अस्तित्व में तुम मेहमान नहीं हो तुम पूरा अस्तित्व हो।
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