अंतर्दृष्टि

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धर्म के नाम पर जितने जघन्य कृत्य हुए हैं, किसी और नाम पर नहीं हुए, नहीं हो सकते हैं। बुरे काम के लिए अच्छे नाम की आड़ चाहिए, सुंदर परदा चाहिए, ताकि असुंदर को छिपाया जा सके। अधर्म के नाम पर कोई बुरा कृत्य नहीं हुआ है; कोई करना भी चाहेगा तो कैसे करेगा? अधर्म का नाम ही बनती बात बिगाड़ देगा। नकली घी बेचना हो तो ‘असली घी की दुकान है’ ऐसा लिखना जरूरी होता है। नकली घी की दुकान लिखोगे तो नकली बेचना तो मुश्किल, असली भी बेचना मुश्किल हो जाएगा। असली भी कौन खरीदेगा? धर्म सुंदर आड़ है। उस आड़ के पीछे क्या नहीं हुआ! जीसस को सूली लगी--धर्म की आड़ थी। सुकरात को जहर पिलाया गया--धर्म की आड़ थी। जिन्होंने जहर पिलाया, उन न्यायाधीशों ने जो अपराध लगाया था सुकरात पर, वह था कि तुम लोगों को बिगाड़ते हो, उनको अधार्मिक बनाते हो। यह भी मजे की बात रही। इस पृथ्वी पर थोड़े से ही लोग हुए हैं, जिन्होंने लोगों के जीवन में किरणें बांटीं, आनंद के फूल खिलाए। उन थोड़े से नामों में सुकरात का नाम एक है। पर उस पर जुर्म था कि तुम लोगों का धर्म बिगाड़ते हो, तुम लोगों को भ्रष्ट करते हो। और एक लिहाज से न्यायाधीश जो कह रहे थे ठीक ही कह रहे थे, क्योंकि जिसे वे धर्म समझते थे, सुकरात निश्चित ही लोगों को उस धर्म से हटा रहा था, क्योंकि वह धर्म नहीं था। एक तो अंधों की धारणा है धर्म के संबंध में और एक आंख वालों की अंतर्दृष्टि है। अंधों की और आंख वालों की बात मेल नहीं खा सकती। सुकरात ने कहा कि मैं तो जो कर रहा हूं, करना जारी रखूंगा, क्योंकि मैं जो कर रहा हूं, वही धर्म है; मैं जो कर रहा हूं, वही सत्य है। तो उन्होंने निर्णय लिया कि ऐसे आदमी को जीवित न रहने देंगे। वही कसूर जीसस का था, वही कसूर मंसूर का था। मंसूर ने इतना ही तो कहा था कि मैं परमात्मा हूं! अनलहक! मैं सत्य हूं! यह उदघोषणा प्रत्येक को करनी है। मंसूर वही कह रहा है, जो तुम्हें भी कहना है; इसमें नाराज होने की क्या बात थी? लेकिन लोग बेचैन हो उठे, लोग परेशान हो उठे। मंसूर के हाथ-पैर काट डाले। मगर मंसूर हंसता रहा। लोग चकित थे--हाथ-पैर कटते हों और कोई हंसता हो! फिर भी उन अंधों को यह न दिखाई पड़ा कि हाथ-पैर कटता हुआ आदमी हंसता है तो इसके पास कुछ राज है, कुछ कुंजी है, अभी भी इसे बचा लें! किसी ने भीड़ में से पूछा जरूर कि मंसूर, तुम्हारे हंसने का कारण? तो मंसूर ने कहा: ‘मैं इसलिए हंस रहा हूं कि तुम जिसे मार रहे हो, वह मैं नहीं हूं। और जो मैं हूं, उसे तुम मार न सकोगे। उसे कोई भी न मार सकेगा।’ यही तो कृष्ण ने कहा है: नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि--मुझे शस्त्र नहीं छेद सकते। नैनं दहति पावकः--मुझे आग नहीं जला सकती। मंसूर ने कहा: काटो, जी भर कर काटो! मैं हंस रहा हूं, क्योंकि कसूर कोई करे, सजा किसी को मिले! कसूर मैंने किया है--अगर उसे तुम कसूर समझते हो--और शरीर को काट रहे हो, पागल हो! र फिर आखिरी क्षण में मंसूर आकाश की तरफ देख कर हंसा, तो और किसी ने पूछा कि अब तक भी बात ठीक थी कि तुम हमारी तरफ देख कर हंस रहे थे, आकाश की तरफ देख कर क्या हंस रहे हो, वहां कौन बैठा है? अगर होता कोई बचाने वाला तो बचा लेता। मंसूर ने कहा: मैं ईश्वर की तरफ देख कर हंस रहा हूं कि तू किसी भी शक्ल में आ, मैं तुझे पहचान ही लूंगा। तू आज हत्यारों की शक्ल में बन कर आया है, मंसूर को धोखा न दे सकेगा। और उसके हाथों से बचना क्यों चाहूं? उसके हाथों से मर जाना भी सौभाग्य है! उसके हाथों से जहर भी अमृत है! फिर भी अंधे न चेते। अंधे चेतते ही नहीं। चेत जाएं तो अंधे नहीं। मूर्च्छित हैं। धर्म के नाम पर ही ऐसे कृत्य किये जा सकते हैं, क्योंकि धर्म बड़ा प्यारा नाम है। इससे सुमधुर और क्या शब्द होगा, इससे ज्यादा मीठा, माधुर्यपूर्ण और क्या शब्द होगा! ‘धर्म’ शब्द कहते ही जैसे प्राणों में बांसुरी बज जाए! जैसे घूंघर बज उठें, जैसे कोई गीत गुनगुनाने लगे, जैसे कोई हृदय की तंत्री को छेड़ दे! इस आड़ में बहुत कुछ हो सकता है। सदियां-सदियां इसी आड़ में सब-कुछ होता रहा है। पंडित पले, पुरोहित पले। हिंदू, मुसलमान, ईसाई एक-दूसरे की हत्या करते रहे, जलाते रहे मंदिरों को, मस्जिदों को--और सब धर्म के नाम पर! और ये पुरोहित समझाते रहे लोगों को कि जिहाद में जो मरेगा, वह सीधा स्वर्ग जाएगा। धर्मयुद्ध में जो मरेगा, इससे बड़ा कोई कृत्य नहीं है। तो मरो और मारो! धर्म--जो कि जीवन की कला है--उसे उन्होंने मरने-मारने का धंधा बना दिया। धर्म तो विज्ञान है जीने का--कैसे जीओ? और धर्म न हिंदू होता है, न मुसलमान होता है, न ईसाई होता है। प्रेम हिंदू होता है? प्रेम ईसाई होता है? अगर प्रेम हिंदू नहीं होता तो प्रार्थना कैसे हिंदू हो सकती है? क्योंकि प्रेम की ही आत्यंतिक अवस्था तो प्रार्थना है। और प्रार्थना का ही कमल जब खिल जाता है तो उस अनुभव का नाम ही तो परमात्मा है। परमात्मा हिंदू है या मुसलमान या ईसाई? लेकिन जब तक यह पृथ्वी इन खंडों में बंटी रहेगी, तब तक धर्म के नाम पर राजनीति चलती रहेगी। कोई भी व्यक्ति वस्तुतः धर्मांध नहीं होता। धर्म तो वही जो आंख खोले और जिनकी आंख खुली, उन्हें स्वभावतः दिखाई पड़ा कि धर्म तो एक ही हो सकता है। बुद्ध बौद्ध नहीं थे, स्मरण रहे। और महावीर जैन नहीं थे, भूल मत जाना। और जीसस ईसाई नहीं थे, कभी किसी को यह भ्रांति पालने के लिए जरा भी गुंजाइश नहीं है। मोहम्मद मुसलमान नहीं थे। लेकिन मोहम्मद को जो नहीं समझेंगे वे मुसलमान हो जाएंगे। यह चमत्कार रोज घटता है इस दुनिया में। धर्म तो एक है। जैसे विज्ञान एक है। जैसे प्रकाश एक है। जैसे चांद एक है। धर्म तो आंख है।

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