शिवतुल्य

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गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई।

असावधान होकर जीओगे, गाफिल होकर जीओगे, बेहोश जीओगे, नशे-नशे में जीओगे तो वह जो भीतर बसता है, वह जो भीतर का मालिक है, उसका तुम्हें कभी भी पता न चलेगा। वह जो भीतर बसा है तुम्हारे घर में। संस्कृत में, सांख्य और वैशेषिक शास्त्रों में आत्मा को ‘पुरुष’ कहा है। पुरुष शब्द बड़ा प्यारा है। पुरुष शब्द उसी धातु से बनता है जिससे पुर बनता है। पुर यानी नगर। और पुरुष यानी जो उस नगर के भीतर रहता है--निवासी। कबीर उसको कहते हैं ‘बसत’--वह जो बसा है। हम कहते हैं न गांव को: बस्ती--वह जो भीतर बसा है। अगर बेहोश चले, तो वह जो भीतर बसा है, उसकी जो प्रतिभा है, उसकी जो चमक है, जो आभा है वह खो जाएगी। उसकी मति धूमिल हो जाएगी। उसके ऊपर धूल जम जाएगी। दर्पण पर धूल जम जाती है, तो दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। ऐसे तुम्हारे भीतर जो बसा है, अगर नींद की पर्त ही पर्त तुम जमाते गए, तो उसकी मति, उसकी प्रतिभा, उसकी चमक खो जाएगी। और जब भीतर का पुरुष, भीतर का दीया अंधेरे से ढंक जाए, गहन रात में खो जाए, भीतर की प्रतिभा सो जाए, जागी न हो, तो फिर चोर घर में घुसना शुरू हो जाता है। बुद्ध ने कहा है, घर में कोई न भी हो और सिर्फ दीया जलता हो तो भी चोर डरते हैं। घर में कोई न भी हो लेकिन दीया जलता हो, तो भी चोर दूर-दूर चलते हैं। क्योंकि दीये के जलने की खबर, शायद घर में कोई हो! जिस दिन भीतर का दीया जलता है, उस दिन चोर प्रवेश नहीं करते। चोर कौन है? जो भी तुम्हें प्रतिक्रिया में ले जाते हैं, वे सभी चोर हैं।  बुद्ध को एक दिन किसीने गालियां दी तो बुद्ध ने कहा तुम क्या करोगे? तुम गालियों के थाल सजा कर लाए। मेरा पेट भरा है। दस साल से भर गया। तुम जरा देर करके आए। अब तुम क्या करोगे? इन गालियों को वापस ले जाओगे, बांटोगे, या खुद खाओगे? मैं नहीं लेता। तुम गलत आदमी के पास आ गए। और जब तक मैं न लूं, तुम कैसे गाली दे सकते हो? देना तुम्हारे हाथ में है, लेने की मालकियत तो सदा मेरे हाथ में है। अब जैसे किसी ने आपको गाली दी और आप प्रभावित हो गए। चोर भीतर घुस गया। अब यह चोर तुम्हें नुकसान पहुंचाएगा। यह बड़े मजे की बात है; गाली देने वाला तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाता था, न पहुंचा सकता था। उसकी कोई सामर्थ्य न थी। चोर बाहर था। क्या करेगा? लेकिन तुमने चोर को भीतर बुला लिया। तुम क्रोधित हो गए। अब नुकसान होगा। कबीर कह रहे है वह क्रोधित होना, अहंकारी होना, ईर्षा से भ्रमित होना, ये सब बाहर के दूसरे सब चोर है उनके चोरी करने के तरीके है जो इन तरीकों से भीतर घुसते है बेहोशी में। 

षट्‌चक्र की कनक कोठरी, बस्त भाव है सोई।

कबीर कहते हैं: यह भीतर का--कबीर का--मनुष्य के अंतस्तल का विश्लेषण। योग छह चक्रों को मानता है; जिनके भीतर छिपी है तुम्हारी चेतना। ये छह, षटचक्र तुम्हारे इस शरीर के हिस्से नहीं हैं। इस शरीर के भीतर जो छिपा है सूक्ष्म शरीर, उस सूक्ष्म शरीर के हिस्से हैं। यह छह चक्र ऊर्जा के चक्र हैं। इन छह चक्रों के कारण ही तुम ऊर्जावान हो। तुम्हें जो जीवन में शक्ति मालूम पड़ती है--उठते हो, बैठते हो, चलते हो, काम करते हो, थक जाते हो, फिर शक्ति वापस लौट आती है, ये इन छह चक्रों के, इन छह डायनेमोज के द्वारा तुम्हारे भीतर ऊर्जा पैदा हो रही है। जैसे डायनेमो पैदा करता है विद्युत को। जैसे तुम पानी से विद्युत को पैदा होते देखे? पानी में विद्युत छिपी पड़ी है। लेकिन उसे निकालने के लिए यंत्र चाहिए। पानी में विद्युत का प्रगाढ़ रूप छिपा है। लेकिन यंत्र चाहिए, जिनसे विद्युत बाहर आ जाए और उपयोग में आ जाए। तुम्हारी आत्मा प्रगाढ़ ऊर्जा है, अनंत ऊर्जा है। जिन्होंने जाना, उन्होंने कहा स्वयं परमात्मा से जुड़ी है। अनंत, अक्षय उसकी शक्ति है। लेकिन उस शक्ति को सक्रिय बनाने के लिए भीतर छह चक्र हैं। उन चक्रों के घूमने से, निरंतर घूमने से आत्मा की शक्ति शरीर तक प्रवाहित होती है। योग उन छह चक्रों को जगाने की बड़ी चेष्टा करता है। जब वे छह ही चक्र ठीक-ठीक सक्रिय हो जाते हैं, तब जीवन में बड़ी ऊर्जा का आविर्भाव होता है। तब तुम अनथके जीते हो। तब तुम्हारे भीतर एक बाढ़ होती है ऊर्जा की। तुम कितना ही बांटो, बंटता नहीं। तुम कितना ही लुटाओ, लुटता नहीं। तुम देते चले जाओ, और बहता चला आता है। तब तुम्हारी अपार क्षमता हो जाती है। तब तुम्हारा दान कोई सीमा नहीं जानता। तुम प्रेम बांटो, प्रेम बढ़ता है। तुम ज्ञान बांटो, ज्ञान बढ़ता है। तुम जो चाहो। एक बार ये छह चक्र ठीक से चलने लगें, तुम्हारे यंत्र सुनियोजित व्यवस्था से चलने लगे, तो तुम्हारे भीतर कभी भी बाढ़ की कमी नहीं आती। तब तुम कभी कृपण नहीं होते। इसलिए आज तक कोई भी व्यक्ति, जिसने भीतर की थोड़ी सी गंध पाई हो, कृपण नहीं पाया गया है। और जिस आदमी के जीवन में थोड़ी सी भी जागृति आती है, वह बांटना शुरू करता है। वह अपने को बांटता है। जितना बांटता है, उतना बढ़ता है। जितना बांटता है, उतने नये स्रोत उपलब्ध होते हैं। जितना बांटता है, उतना ही पाता है, अनंत शक्ति उपलब्ध है। अनंत ऊर्जा उपलब्ध है। तुम स्वर्ण के अंबार हो। तुम्हारी संपदा की कोई सीमा नहीं--इसलिए ‘कनक कोठरी।’ तुम स्वर्ण के खजाने हो। वह खजाना भी कोई मरा हुआ स्वर्ण नहीं है। जीवंत ऊर्जा है परमात्मा की। लेकिन वह छह चक्रों के द्वारा जुड़ा है। ...बस्त भाव है सोई। और उस कोठरी के भीतर ही, उस अनंत संपदा के भीतर ही बसा हुआ है पुरुष, तुम्हारी आत्मा। ये छह चक्र सक्रिय होने चाहिए। ये जितने सक्रिय होंगे, उतना ही भीतर प्रवेश होगा। और ठीक अंतर्तम में, ठीक मध्य-बिंदु पर, तुम्हारे होने के ठीक केंद्र में परमात्मा छिपा है। वही है असली बसने वाला। शरीर घर है। मन घर है। और मन से भी गहरा घर षटचक्र है।

ताला कुंजी कुलफ के लागै, उघड़त बार न होई।

बस, ठीक कुंजी तुम्हें मिल जाए, ताले में लग जाए, तो कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है। ऊर्जा जग जाती है। उन छहों चक्रों में एक ही ऊर्जा का प्रवाह हो जाता है। छह चक्रों को जोड़ने वाली ऊर्जा का नाम कुंडलिनी है। चक्र अलग-अलग चलते हैं, तो तुम संसार के काम के योग्य शक्ति पैदा कर पाते हो। जब छहों चक्र इकट्ठे एक सूत्र में आबद्ध हो जाते हैं, और उनसे शक्ति पैदा होती है। जब छहों चक्र जुड़ जाते हैं एक धारा में, एक लयबद्धता में, छहों एक साथ सक्रिय होते हैं और उन छहों के बीच एक संगीत निर्मित हो जाता है, एक माला अनुस्यूत हो जाती है, तो उसी का नाम कुंडलिनी है। और जिस दिन कुंडलिनी जग जाती है --‘उघड़त बार न होई।’ फिर तुम्हारे परमात्मा-स्वरूप के उघड़ने में क्षण भर की भी देर नहीं होती।

पंच पहिरवा सोई गए हैं, बसतैं जागण लागी।

और जैसे ही तुम जागते हो, पांचों इंद्रियां सो जाती हैं। जब तक पांचों इंद्रियां जागती हैं, तब तक तुम सोए रहते हो। जैसे-जैसे इंद्रियां सोती जाती हैं, शांत होती जाती हैं, वही ऊर्जा, जो इंद्रियों से प्रवाहित होकर बाहर जा रही थी, वही ऊर्जा अंतर्यात्रा पर निकल जाती है। और वह असल में उन्ही इंद्रियों का सही जागरण है जो अब तक सोई पड़ी थी उसी से तुम जागने लगते हो। 

जरा मरण व्यापै कछु नाही, गगन मंडल लै लागी।

और अब न कोई मृत्यु है, न कोई जन्म। क्योंकि तुम्हारे भीतर जो छिपा है वह कभी जन्मा नहीं, कभी मरा नहीं। मरना और जन्मना उसके बाहर ही घटा है। तुम्हारा शरीर मरा है, जन्मा है, तुम्हारा मन, तुम्हारे रूप, नाम, अनंत-अनंत बार बदले हैं। लेकिन वह जो भीतर छिपा है अविनाशी, वह सदा वही का वही रहा है। वह कभी बदला नहीं। न पैदा हुआ, न मरेगा। न वह बनाया गया है और न मिटेगा। जरा मरण व्यापै कछु नाही,... और जिसने उसकी साक्षात अनुभूति कर ली, उसके लिए मृत्यु का भय मिट जाता है। और जीवन की अभीप्सा मिट जाती है। वह जीवन की जो जिजीविषा है--लस्ट फॉर लाइफ, वह भी मिट जाती है। ...गगन मंडल लै लागी। अब उसकी तो सारी ज्योति, लौ, लगन, शून्य की तरफ लग जाती है। गगन यानी शून्य, आकाश, निराकार। ब्रह्म कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो। अब तो उसकी सारी ज्योति शून्य की तरफ प्रवाहित होने लगती है। तुम्हारी जीवन-ज्योति सदा वस्तुओं की तरफ प्रवाहित होती है। आकृति की तरफ, रूप की तरफ, धन की तरफ, शरीर की तरफ, मकान की तरफ, लेकिन सदा वस्तुओं की तरफ। इंद्रियां वस्तुओं की तरफ प्रवाहमान हैं। चेतना सदा निर्विकार, निराकार, शून्य की तरफ प्रवाहमान है।

करत विचार मन ही मन उपजी, ना कहीं गया न आया।

‘करत विचार’--यह सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। कबीर के एक-एक सूत्र में एक-एक उपनिषद समा जाए। करत विचार मन ही मन उपजी,... कबीर जिसे विचार कहते हैं, वह तुम्हारा विचार नहीं है। तुमने तो कभी विचार किया ही नहीं। तुम्हारे भीतर विचार तो बहुत हैं, लेकिन तुमने विचार कभी नहीं किया। इस भेद को ठीक से समझ लेना। थॉट्‌स--विचारों की तो तुम्हारे भीतर भीड़ है, लेकिन थिंकिंग--विचार की तुम्हारे भीतर बिलकुल संभावना नहीं है। जिसको तुम अपना भी कहते हो, वह भी गौर करोगे तो पाओगे किसी और से, कहीं से पा लिया है। ज्यादा से ज्यादा तुम इतना ही कर पाए होओगे कि किसी एक के विचार की टांग और किसी दूसरे के विचार का सिर और किसी तीसरे के विचार के हाथ जोड़ कर तुमने एक प्रतिमा बना ली हो। जो नई लगती हो। लेकिन वह नई है नहीं। वह भी दूसरों के विचारों का जोड़ है। संयोग नया होगा, लेकिन विचार पुराना है। उसमें कुछ भी नया नहीं है। मौलिक विचार तो तुम्हें तभी हो पाएगा, जब ध्यान लग जाए। ध्यान का अर्थ है जब विचारों की भीड़ चली जाए। इसलिए असली विचार की क्षमता तो तब आती है, जब विचारों की भीड़ विदा हो जाती है। जब भीतर मन का खुला आकाश रह जाता है, जिसमें एक भी बादल विचार का नहीं। तब विचार की क्षमता उपजती है। तब तुम विचार करते नहीं। तब तुम सोचते नहीं, तुम्हें दिखाई पड़ता है। तब विचार दर्शन हो जाता है। और दृष्टि ही बदल जाती है जिसे तुम थर्ड आई, तीसरा नेत्र भी कह सकते हो और जिसने ये समझा वह शिवतुलय हो गया। कबीर उसी विचार की बात कर रहे हैं। कि ऐसे बैठे ध्यान में--शांत! कोई विचार की भीड़ नहीं, शून्य में लगन लगी, शून्य की तरफ भागती लौ जीवन की, ऐसे विचार के क्षण में--‘मन ही मन उपजी।’ भीतर यह भाव उठा। भीतर आविर्भूत हुआ यह भाव। यह धारणा जन्मी। ...ना कहीं गया न आया। न तो कहीं गया अब तक, और न कहीं आया अब तक। न कोई जन्म हुआ, न कोई मृत्यु हुई। सब सपना था। जन्म और मरना और सारा व्यापार दोनों के बीच--सब सपना था। जो वस्तुतः जागते हैं, उन्हें दिखाई पड़ता है कि जिसे हम जीवन कहते हैं, वह भी सपना था। न कहीं गया, न आया। सदा से वहीं हूं, जहां था। शाश्वत, सनातन, नित्य! जरा भी अंतर नहीं पड़ा। उसी क्षण मिल गई वह संपदा, जो परमात्मा की है, ब्रह्म की है। 


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