धार्मिकता

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मनुस्मृति में यह श्लोक है: 

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतो वधीत।।

ऐसे तो मनुस्मृति बहुत कुछ कचरे से भरी है, लेकिन खोजो तो राख में भी कभी-कभी कोई अंगारा मिल जाता है। कचरे में भी कभी-कभी कोई हीरा हाथ लग जाता है। मनुस्मृति निन्यानबे प्रतिशत तो कभी की व्यर्थ हो चुकी है। भारत की छाती से उसका बोझ उतर जाए, तो अच्छा। उसमें ही जड़ें हैं भारत के बहुत से रोगों की। भारत की वर्ण-व्यवस्था; अछूतों के साथ अनाचार; स्त्रियों का अपमान, जिसकी अंतिम परिणति स्वभावतः बलात्कार में होती है; ब्राह्मणों की उच्चता का गुणगान--जिसका परिणाम पांडित्य के बढ़ने में तो होता है, लेकिन बुद्धत्व के विकसित होने में नहीं। लेकिन फिर भी कभी-कभी कोई सूत्र हाथ लग जा सकता है, जो अपूर्व हो। यह उन थोड़े से सूत्रों में से एक है। इस सूत्र को ठीक से समझो, तो मैंने जो अभी कहा कि निन्यानबे प्रतिशत मनुस्मृति कचरा है, वह भी समझ में आ जाएगी बात--इस सूत्र को समझने से। यह सूत्र निश्चित ही मनु का नहीं हो सकता; मनु से प्राचीन होगा। क्योंकि मनु ने जो भी कहा है, वह इसके बिलकुल विपरीत है। मनु के सारे वक्तव्य धर्म की हत्या करने वाले वक्तव्य हैं। मनु जैसे व्यक्तियों ने ही तो धर्म की हत्या की है। यह सूत्र किसी बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति से आया होगा। लेकिन पुराने समय में एक ही ग्रंथ में सब-कुछ समाहित कर लिया जाता था। जैसे अभी भी विश्वकोश निर्मित करते हैं--एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका--तो सभी कुछ, जो भी खोजा गया है, जो भी आज की समझ है, उसका संकलन कर लेते हैं। ऐसे ही पुराने शास्त्र संकलित थे। इसलिए उन्हें संहिताएं कहा जाता है। यह भी हो सकता है कि मनु ने ही यह सूत्र कहा हो। लेकिन मनु ने किसी ऐसी अवस्था में कहा होगा, जो साधारण मनु से बिलकुल भिन्न है। कोई झरोखा खुल गया होगा; किसी मस्ती में होंगे। कोई क्षण ध्यान का उतर आया होगा। मगर मनु की प्रकृति के अनुकूल नहीं है यह। मनु की गिनती बुद्धों में नहीं है। वे भारतीय नीति-नियम के सर्जक हैं। उन्होंने भारत को नैतिक व्यवस्था दी। और नैतिक व्यवस्था अक्सर ही राजनीति का अंग होती है। राजनीति में भी जो ‘नीति’ शब्द है, वह ध्यान रखने योग्य है। व्यक्ति की नीति होती है, तो उसको हम नैतिकता कहते हैं। और राज्य की नीति होती है, तो उसको राजनीति कहते हैं। दोनों में तालमेल है। लेकिन दोनों ऊपर-ऊपर होती हैं, सतही होती हैं। धर्म होता है आंतरिक भीतर का दीया जले तो। फिर उसके अनुसार जो जीवन में क्रांति होती है, वह क्रांति किन्हीं नियमों के आधार पर नहीं होती, किसी शास्त्र के अनुसार नहीं होती। इसलिए उस क्रांति की कोई भविष्यवाणी नहीं हो सकती। कोई नहीं कह सकता कि उस क्रांति का अंतिम निखार क्या होगा। नीति हमेशा पुनरुक्ति करती है। नीति तो यूं है, जैसे कार्बनकापी करते हैं हम। किसी के पीछे चलो। किसी की मान कर चलो। अपने ऊपर जैसे वस्त्र ओढ़ते हो, ऐसे ही शास्त्रों को ओढ़ लो, तो तुम नैतिक हो जाओगे, लेकिन धार्मिक नहीं। एक बात सुनिश्चित जरूर कही जा सकती है कि वह क्रांति कभी भी पुनरुक्ति नहीं करती। बुद्ध जैसा व्यक्ति फिर दुबारा उस क्रांति से पैदा नहीं होता। न महावीर जैसा, न कृष्ण जैसा, न कबीर जैसा, न मोहम्मद जैसा। उस क्रांति से हमेशा मौलिक प्रतिभा का जन्म होता है। पुनरुक्ति नहीं होती। इतनी बात भर कही जा सकती है। नीति ऐसे है, जैसे अंधा आदमी प्रकाश के संबंध में बातें करने लगे। बातें करने में क्या अड़चन है! प्रकाश के संबंध में अंधा आदमी सारी जानकारी इकट्ठी कर सकता है। लेकिन फिर भी उसने प्रकाश देखा नहीं है। और जिसने देखा नहीं, उसकी कितनी ही बड़ी जानकारी हो, हिमालय के पहाड़ जैसा ढेर हो जानकारी का, तो भी दो कौड़ी उसका मूल्य है। और जिसने प्रकाश देखा है, शायद प्रकाश के संबंध में और कुछ भी न जानता हो, तो भी क्या बात है। प्रकाश देख लिया, तो सब जान लिया। न समझे प्रकाश का भौतिकशास्त्र, न समझे प्रकाश का रसायनशास्त्र, न समझे प्रकाश का गणित, पर करना क्या है! फूल देख लिए, रंग देख लिए, इंद्रधनुष देख लिए, तितलियों के पंख देख लिए, हरियाली देख ली, लोगों के चेहरे देख लिए, चांद-तारे देख लिए, सूर्योदय-सूर्यास्त देख लिए, रोशनी के अनंत-अनंत खेल और लीलाएं देख लीं--अब क्या करना है, कि न समझे प्रकाश का विज्ञान! लेकिन कुछ मूढ़ प्रेम को समझते रहते हैं, प्रेम नहीं करते! प्रकाश को समझते रहते हैं, आंख नहीं खोलते! उधार, बासी बातों को गुनते रहते हैं, कभी अपने जीवन की किरण को जगाते नहीं। कभी अपने सोए हुए प्राणों को पुकारते नहीं। यह सूत्र जिससे भी आया हो, आंख वाले से आया होगा। और मनु सबूत नहीं देते आंख वाले का। आंख वाला आदमी, आदमी को ब्राह्मण और शूद्र में नहीं बांट सकता। आंख वाले आदमी के लिए सारे विभाजन गिर जाते हैं। न कोई काला रह जाता, न कोई गोरा। न कोई ब्राह्मण, न कोई शूद्र। न कोई स्त्री, न कोई पुरुष। मनुस्मृति में स्त्रियों की जब चर्चा करते हैं मनु जैसे लोग, तो उसके भीतर की हड्डी, मांस-मज्जा, मवाद, खून, इत्यादि-इत्यादि की बातें करते हैं, जैसे खुद के शरीर में सोना-चांदी भरा हो! यह बड़े आश्चर्य की बात है कि ये महात्मागण स्त्रियों के शरीर का वर्णन करने में जैसे बेहूदे, भद्दे, अभद्र शब्दों का उपयोग करते हैं, उस समय बिलकुल भूल ही जाते हैं कि खुद भी स्त्री से पैदा हुए हैं! उनकी देह भी उसी मांस-मज्जा से बनी है, स्त्री की ही मांस-मज्जा से बनी है। तुम्हारे पिता का दान तो ना-कुछ के बराबर है। वह तो काम एक इंजेक्शन कर सकता है, जो तुम्हारे पिता ने किया! वह कोई खास काम नहीं है। और भविष्य में इंजेक्शन ही करेगा। जानवरों की दुनिया में तो इंजेक्शन करने ही लगा है। लेकिन तुम्हारी देह की पूरी की पूरी जीवन-ऊर्जा तो स्त्री से आती है, मां से आती है। तुम्हारी देह में वही सब है, जो स्त्री की देह में है। लेकिन स्त्री की देह को गाली देते वक्त, गंदगी का ढेर बताते वक्त पता नहीं महात्मा भूल ही जाते हैं कि उनकी भी देह उसी से बनी है; वैसी ही गंदगी से। फिर गंदगी क्या गंदगी का वर्णन कर रही है! फिर पुरुष की देह में ऐसी क्या खूबी है, ऐसा कौन सा स्वर्ग है--जो स्त्री की देह नरक का द्वार है! स्त्री की जैसी अवमानना मनु ने की है, और फिर बाबा तुलसीदास तक मनु के पीछे चलने वालों की जो कतार है, वह सब उन्हीं गालियों को दोहराती रही है। शूद्रों को तो पशुओं से भी गया-बीता माना है। गाय की हत्या करो, तो महापाप है। लेकिन शूद्र की हत्या में कोई पाप नहीं बताया! जैसे गाय से भी ज्यादा गर्हित, गिरा हुआ शूद्र है। यह मनु जैसे ही लोगों की बात मान कर तो राम ने शूद्र के कानों में सीसा पिघलवा कर भरवा दिया। यह मनु के ही इशारों पर सारा काम चला। इस देश में जो आज भी अत्याचार हो रहा है शूद्रों पर, उसमें मनु महाराज का हाथ है। अभी भी मनुस्मृति हिंदू-मानस का आधार-स्तंभ है। अभी भी हम उससे छूट नहीं पाए। मगर यह सूत्र बड़ा प्यारा है। यह सूत्र अकेला ही होता, तो मनुस्मृति अदभुत होती। यह सूत्र कहता है: ‘धर्म एव हतो हन्ति! मारा हुआ धर्म मार डालता है।’ निश्चित ही। इसके प्रमाण ही चारों तरफ दिखाई पड़ेंगे। हिंदू धर्म ने हिंदुओं को मार डाला है। मुसलमान धर्म ने मुसलमानों को मार डाला है। जैन धर्म ने जैनों को मार डाला है। बौद्ध धर्म ने बौद्धों को मार डाला है। ईसाई धर्म ने ईसाइयों को मार डाला है। यह पृथ्वी मरे हुए लोगों से भरी है। इसमें मुर्दों के अलग-अलग मरघट हैं। कोई हिंदुओं का, कोई मुसलमानों का, कोई जैनों का--वह बात और--मगर सब मरघट हैं! मारता कौन है धर्म को? तुम सोचते हो कि अधार्मिक लोग धर्म को मारते हैं, तो गलत। अधार्मिक की क्या हैसियत है कि धर्म को मारे। तुमने कभी देखा: अंधेरे ने आकर और दीये को बुझा दिया हो? अंधेरे की क्या हैसियत कि दीये को बुझाए! अंधेरा दीये को नहीं बुझा सकता। इस दुनिया में धर्म को खतरा अधर्म से नहीं होता; झूठे धर्म से होता है। असली सिक्कों को खतरा कंकड़-पत्थरों से नहीं होता; नकली सिक्कों से होता है। नकली सिक्के चूंकि असली सिक्कों जैसे मालूम पड़ते हैं, इसलिए असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं। यही नियम धर्म के जगत में भी लागू होता है। बुद्धों को चलन के बाहर कर देते हैं पंडित-पुरोहित। ये नकली सिक्के हैं। ईसा को चलन के बाहर कर दिया ईसाई पादरियों ने, पोपों ने। महावीर को चलन के बाहर कर दिया जैन मुनियों ने। कृष्ण को चलन के बाहर कर दिया तथाकथित कृष्ण के उपासक, पुजारी, पंडित--इन्होंने चलन के बाहर कर दिया। धर्म को मारता कौन है? पहले समझें कि धर्म को जिलाता कौन है? क्योंकि अगर हम जिलाने वाले को पहचान लें, तो मारने वाले को भी पहचान जाएंगे। धर्म को जिलाते हैं, इस जगत में जीवंत करते हैं वे लोग जो धर्म के अनुभव से गुजरते हैं। बुद्ध, जीसस, कृष्ण, मोहम्मद, जलालुद्दीन, नानक, कबीर, ये धर्म के मृत प्राणों में पुनरुज्जीवन फूंक देने वाले लोग हैं। फिर बांसुरी बज उठती है, जो सदियों से न बजी हो। ठूंठ फिर हरे पत्तों से भर जाते हैं और फूलों से लद जाते हैं--जिन पर सदियों से पत्ते न आए हों। जिस व्यक्ति ने स्वयं सत्य को जाना है, वह धर्म को जीवित करता है। सिर्फ वही--केवल वही। उसके छूने से ही धर्म जीवित हो उठता है। और धर्म को मारने वाले वे लोग हैं, जिन्होंने स्वयं तो अनुभव नहीं किया है, लेकिन जो दूसरों के उधार वचनों को दोहराने में कुशल होते हैं। पंडित और पुरोहित का व्यवसाय क्या है! उनका व्यवसाय है कि बुद्धों के वचनों को दोहराते रहें; बुद्धों की साख का मजा लूटते रहें। बुद्धों को लगे सूली, बुद्धों को मिले जहर, बुद्धों पर पड़ें पत्थर--और पंडितों पर, पुजारियों पर, पोपों पर फूलों की वर्षा! धर्म को कौन मारता है? नास्तिक तो नहीं मार सकते। नास्तिक की क्या बिसात! लेकिन झूठे आस्तिक मार डालते हैं। और झूठे आस्तिकों से पृथ्वी भरी है। झूठे धार्मिक मार डालते हैं। और झूठे धार्मिकों का बड़ा बोलबाला है। मंदिर उनके, मस्जिद उनके, गिरजे उनके, गुरुद्वारे उनके। झूठे धार्मिक की बड़ी सत्ता है! राजनीति पर बल उसका; पद उसका, प्रतिष्ठा उसकी; सम्मान-सत्कार उसका! किसी जैन मुनि के कानों में तुमने खीले ठोके जाते देखे? महावीर के कानों में खीले ठोके गए! और जैन मुनि आते हैं, तो उनके पावों में तुम आंखें बिछा देते हो! कि आओ महाराज! पधारो। धन्यभाग कि पधारे! और महावीर को तुमने ठीक उलटा व्यवहार किया था। तुमने पागल कुत्ते महावीर के पीछे छोड़े, कि लोंच डालो, चीथ डालो इस आदमी को! तुमने बुद्ध को मारने की हर तरह कोशिश की। पहाड़ से पत्थर की शिलाएं सरकाईं कि दब कर मर जाए। पागल हाथी छोड़ा। जहर पिलाया। तुमने मीरा को जहर पिलाया! और अब भजन गाते फिरते हो! कि ऐ रे मैं तो प्रेम-दीवानी, मेरो दरद न जाने कोय! और दरद तुमने दिया मीरा को; तुम क्या खाक दरद जानोगे! दरद जाने मीरा। और मीरा जाने कि प्रेम का दीवानापन क्या है। क्या तुमने व्यवहार किया मीरा के साथ! तुमने सब तरह से दुर्व्यवहार किया। आज तो तुम मीरा के गुणगान गाते हो, लेकिन वृंदावन में कृष्ण के बड़े मंदिर में मीरा को घुसने नहीं दिया गया। रुकावट डाली गई। क्योंकि उस कृष्ण-मंदिर का जो बड़ा पुजारी था.रहा होगा उन्हीं विक्षिप्तों की जमात में से एक जो स्त्रियों को नहीं देखते, जो स्त्रियों को देखने में डरते हैं। जिनके प्राण स्त्रियों को देखने ही से निकल जाते हैं! जिनका धर्म ही मर जाता है--स्त्री देखी कि धर्म गया उनका! कि एकदम अधर्म हो जाता है उनके जीवन में; पाप ही पाप हो जाता है! इस दुनिया में सबसे बड़ी दुश्मनी बुद्धों और पंडितों के बीच है। मगर मजा यह है कि जब तक बुद्ध जिंदा होते हैं, पंडित उनका विरोध करते हैं। और जैसे ही बुद्ध विदा होते हैं, पंडित बुद्धों की जो छाप छूट जाती है, उसका शोषण करने लगते हैं। ऐसे धर्म निर्मित होते हैं--तथाकथित धर्म। ईसा के पीछे ईसाइयत; इसका ईसा से कुछ लेना-देना नहीं है। और बुद्ध के पीछे बौद्ध धर्म; इसका बुद्ध से कुछ लेना-देना नहीं है। और महावीर के पीछे जैन धर्म; इसका महावीर से कुछ लेना-देना नहीं है। धर्म को पंडित मारते हैं, पुजारी मारते हैं, मौलवी मारते है । फिर मारा हुआ धर्म, तुम जो उस मुर्दा धर्म के पीछे चलते हो, तुम्हें मार डालता है। मुर्दे को ढोओगे, तो मरोगे नहीं तो क्या होगा और! रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है। लेकिन रक्षा धर्म की कौन करेगा? धर्म की रक्षा तो वही करे, जिसे धर्म का अनुभव हुआ हो। जिसने धर्म को जीआ हो, पीआ हो, पचाया हो; जिसके लिए धर्म उसका रोआं-रोआं हो गया हो; जिसकी धड़कन-धड़कन में धर्म समाया हो, वह व्यक्ति धर्म की रक्षा करेगा। और धर्म की रक्षा अगर की जाए, तो धर्म तुम्हारी रक्षा करता है। स्वभावतः।‘तस्माद धर्मो न हन्तव्यो! इसलिए धर्म को मत मारो।’ इसलिए पंडित-पुजारियों से बचो; धर्म को मत मारो। मंदिर-मस्जिद कब्रें हैं धर्म की, इनसे बचो। मगर जीवित सदगुरु के खिलाफ सदा भीड़ होगी। क्योंकि भीड़ तो पंडित-पुरोहितों से ही चलती है। और भीड़ के पास तो झूठा और सस्ता धर्म है। और भीड़ अपने सस्ते धर्म को और झूठे धर्म को झूठ मानने को राजी नहीं होना चाहती। क्योंकि उसे झूठ मान ले, तो छोड़ना पड़ेगा। और उसे छोड़ना अर्थात फिर सच्चे को खोजना भी पड़ेगा। और फिर सच्चे को खोजना कठिन हो सकता है, दुरूह हो सकता है। साधना करनी होगी; ध्यान करना होगा।यह झूठा धर्म तो सत्यनारायण की कथा करवाने से मिल जाता है! खुद करनी भी नहीं पड़ती! कोई और कर जाता है! एक दस-पांच रुपये का खर्चा हो जाता है। एक उधार नौकर को ले आते हैं, वह कर देता है! कुछ भी बक-बका कर भागता है, क्योंकि उसको और दस-पच्चीस जगह जाना है। कोई एक ही भगवान है! कई मंदिरों में पूजा करनी है! जगह-जगह जाकर किसी तरह क्रियाकर्म करके भागता है। उधार! तुम प्रार्थना उधार करवा रहे हो! तो तुम प्रेम भी उधार करवा सकते हो। आखिर प्रार्थना प्रेम ही तो है। परमात्मा से भी तुम सीधी बात नहीं करते; बीच में दलाल रखते हो। परमात्मा के भी आमने-सामने कभी नहीं बैठते! अरे, फूल चढ़ाने हों, खुद चढ़ाओ। अगर दीप जलाने हैं, खुद जलाओ। अगर नाचना-गाना हो, तो खुद नाचो-गाओ। ये किराए के टट्टू, इनको लाकर तुम पूजा करवा रहे हो! यह पूजा झूठी है। इनको पूजा से प्रयोजन नहीं है; इनको पैसे से प्रयोजन है। कुछ तो खयाल रखो। आखिर उस सबका कुछ तो बदला दो! बहुत सुनते आए थे कि पुण्य का फल मिलता है, कहां है फल! अब मिल जाए। लेकिन न तुमने पूजा की; न तुम्हारे पुजारी ने पूजा की। पुजारी को पैसे से मतलब था; तुम कुछ आगे के लोभ का इंतजाम कर रहे हो। तुम आगे के लिए बीमा कर रहे हो! तुम कुशल व्यवसायी हो। धर्म को मार डाला है इस तरह के लोगों ने। पंडित भी तुम्हें क्या-क्या चीजें दे जाते हैं, क्या-क्या चीजें पकड़ा जाते हैं; क्या-क्या मूर्खतापूर्ण विवरण तुम्हारे हाथ में थमा देते हैं, कसौटियां थमा देते हैं--और फिर उनके हिसाब से तुम चलने लगते हो।  ‘मारा हुआ धर्म मार डालता है।’ और पंडित धर्म को मारते हैं। फिर मारा हुआ धर्म तुम्हें मारता है। ‘रक्षा किया हुआ धर्म रक्षा करता है।’ बुद्धपुरुष धर्म की रक्षा करते हैं। बुद्धों के साथ होना, स्वयं की रक्षा पा लेना है। बुद्ध में ही शरण है। ‘इसलिए धर्म को न मारना चाहिए।’ पंडितों से साथ अलग कर लो अपना। उनके साथ रहना, उनके साथ अपना संबंध जोड़ना धर्म को मारने में भागीदार होना है।.‘जिससे मारा हुआ धर्म हमको न मार सके।’ पृथ्वी को बड़ी जरूरत है आज धर्म के पुनरुज्जीवित होने की, नहीं तो आदमी मर ही चुका; उसकी ऊर्जा खो गई, आनंद खो गया, उत्सव खो गया, नृत्य खो गया। बांसुरी यूं पड़ी है! दर्पण पर धूल जमी है। न कोई गीत उठता है; न सत्य की कोई छवि बनती है। अब कब तक राह देखोगे! झाड़ो यह धूल। साफ करो इस बांसुरी को, कि फिर गीत उतर सकें। फिर सत्य की छवि बन सके, फिर कोयल तुम्हारे भीतर कूके और पपीहा तुम्हारे भीतर पुकारे। 

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