इच्छा
इच्छा का अर्थ यह है कि जो है उसमें मुझे रस नहीं है, जो होना चाहिए उसमें मुझे रस है। इच्छा का अर्थ क्या है? तृष्णा किसे कहते हैं हम? जो है उसमें मुझे कोई रस नहीं है, जो होना चाहिए उसमें मुझे रस है। और जब वह होगा तब उसमें भी मुझे रस नहीं होगा, क्योंकि तब फिर वह मौजूद हो जाएगा; मुझे उसमें रस है जो मौजूद नहीं है। मुझे सदा आगे...आगे...मुझे आगे रस है। तो इच्छा हमेशा तनी रहती है भविष्य के लिए और वर्तमान को चूकती चली जाती है। और जो भी है वह अभी है और यहीं है। इसलिए इच्छा से ग्रसित व्यक्ति ग्रंथि से बंधा हो जाता है...जितनी ज्यादा इच्छाएं उतनी ग्रंथियां; जितनी बड़ी इच्छाएं उतनी ग्रंथियां। और हम तो सिर्फ इच्छाओं के पुंज हैं--सब अधूरी इच्छाओं के, क्योंकि कोई इच्छा पूरी होती नहीं। इच्छाएं...इच्छाएं...और उनका हम पुंज हैं। हम सिर्फ मांग हैं...हजारों तरह के भिखारी हमारे भीतर खड़े हैं; एक-एक इच्छा एक-एक भीख के लिए मांग कर रही है। कुछ मिलता नहीं, भिक्षा के पात्रों का ढेर है भीतर; सब खाली हैं और हम भागे चले जाते हैं। और भिक्षा के पात्र रोज-रोज इकट्ठे करते चले जाते हैं। कोई पुरानी इच्छा तो पूरी नहीं होती, लेकिन नई इच्छाएं संगृहीत होती चली जाती हैं; क्योंकि इच्छा को जन्म देना एकदम आसान, इच्छा को पूरा करना एकदम असंभव। चारों तरफ जो भी दिखाई पड़ता है, सभी की इच्छा बन जाती है--यह भी होना, यह भी होना, यह भी होना--और मजा यह है कि अब तक जितनी इच्छाएं बनाईं, उसमें एक भी पूरी नहीं हुई है, और ये सब अधूरी इच्छाएं इकट्ठी होती चली जाती हैं। तब हम सिर्फ एक भिक्षा के पात्र रह जाते हैं--एक भिखारी! बुद्ध अपने संन्यासियों को भिक्षु कहते थे। खूब मजाक किया उन्होंने। दिस इ़ज वेरी आइरॉनिकल। और मजाक में ही कहा, लेकिन मजाक गहरा है और गंभीर है।
बुद्ध एक गांव में गए हैं, भिक्षा का पात्र लेकर भीख मांगने निकले हैं, और गांव का जो बड़ा धनपति है, नगरसेठ है, उसने कहा कि क्यों? तुम जैसे सुंदर...सर्वांग सुंदर व्यक्तित्व था बुद्ध का; शायद उस समय वैसा सुंदर व्यक्ति खोजना मुश्किल था...तुम जैसा सुंदर व्यक्ति, और तुम भीख मांगते हो सड़क पर भिक्षा का पात्र लेकर? तुम सम्राट होने योग्य हो। मैं नहीं पूछता, तुम कौन हो, क्या हो--तुम्हारी जाति, तुम्हारा धर्म, तुम्हारा कुल; मैं तुम्हें अपनी लड़की से विवाहे देता हूं; और मेरी सारी संपत्ति के तुम मालिक हो जाओ, क्योंकि मेरी लड़की ही अकेली संपदा की अधिकारिणी है।
बुद्ध ने कहा: काश, ऐसा सच होता कि मैं भिक्षु होता और तुम मालिक होते! बाकी तुम सबको भिखारी देख कर और अपने को मालिक समझता देख कर हमने भिक्षा का पात्र हाथ में लिया है; क्योंकि अपने को मालिक कहना ठीक नहीं मालूम पड़ता, तुम सभी अपने को मालिक कहते हो। हम भिखारी हैं; क्योंकि जिस दुनिया में भिखारी अपने को मालिक समझते हों, उस दुनिया में मालिकों को अपने को भिखारी समझ लेना ही उचित है। अनूठी घटना घटी थी इस जमीन पर। इतने बड़े सम्राट दुनिया में बहुत कम पैदा हुए हैं जो भिक्षा मांगने की हिम्मत कर सके हों। और अकेला भारत जमीन पर एक देश है जहां बुद्ध और महावीर जैसा व्यक्ति सड़क पर भिक्षा मांगने निकला है--अकेला! बिलकुल अकेला! लेकिन यह किसी भीतरी मालकियत की खबर है। और यह बड़ा व्यंग्य है हम सब पर। भारी व्यंग्य है। जिनके भीतर भिक्षा के पात्र ही पात्र भरे हैं, वे मालिक होने के वहम में जीते हैं; और जिनके भीतर से सारी तृष्णा चली गई, वे भिक्षा का पात्र लेकर सड़क पर निकलते हैं। साइकोड्रामा है। यह बहुत मजे का व्यंग्य है। और बुद्ध जैसे व्यक्ति के व्यंग्यों को भी हम नहीं समझ पाते, यह बड़ी अड़चन हो जाती है। वासना, इच्छा, तृष्णा--मांग...मांग...और मांग। जो मांगता ही चला जाता है वह बाहर की यात्रा पर ही भटकता रहेगा। भीतर तो वही आता है जो मांगना बंद कर देता है।
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