होना

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‘जीवन से जो दुख मैंने पाया न होता, रण में तुम्हारी मैं आया न होता।’

‘दीया बन गईं मेरी नाकामियां ही, जिन्हें पाकर कुछ भी तो पाया न होता।’

इसलिए अब दुख को भी धन्यवाद देना सीखो। और जब दुख आए, तो मित्र की तरह ही स्वागत करना। क्योंकि दुख के पीछे ही सुख छिपा है। काश, तुम स्वागत कर सको दुख का, तो तुम दुख को रूपांतरित करने की कीमिया सीख गए, कला सीख गए। तुम कीमियागीर हो गए, तुम जादूगर हो गए। और उससे कम नहीं। यही असली जादू है। जहां दुख में भी हम सुख का गीत खोज लें; और पीड़ा में भी फूलों को खिलने का राज पा लें। यही असली जादू है कि मृत्यु भी हमारे लिए मृत्यु न रहे। हम नृत्य से, गीत से, संगीत से, समारोह से आलिंगन को तैयार रहें। मृत्यु के आलिंगन को। और तब मृत्यु भी बदल जाती है। तब मृत्यु में भी परमात्मा का ही मुख दिखाई पड़ता है। और जो मृत्यु को भी बदल ले, उसके लिए जीवन तो महा जीवन हो ही जाएगा! जो कांटों को बदल ले, उसके लिए फूलों में पहली बार शाश्वत की गंध आएगी। क्षणभंगुर में भी उसे अनंत के ही इशारे दिखाई पड़ेंगे। क्षणभंगुर में भी उसे समयातीत की झलक, की महक, की भनक सुनाई पड़ेगी। 

सीखो! इसको अतीत के संबंध में ही मत समझना। नाकामियां आती ही रहेंगी, दुख आते ही रहेंगे। आगे भी स्मरण रखना, भूल मत जाना। पीछे लौट कर तो कोई भी बुद्धिमान हो जाता है, यह खयाल रखना। अतीत के संबंध में बुद्धिमान होना बहुत कठिन नहीं होता। इसलिए बूढ़े अक्सर बुद्धिमानी की बातें करने लगते हैं। वह कुछ कठिन बात नहीं है, बिलकुल सरल बात है। बूढ़े होकर होशियारी की बातें करना कोई बुद्धिमत्ता का लक्षण नहीं है। सभी बूढ़े इस अर्थ में होशियार हो जाते हैं। क्योंकि देख ली जिंदगी, लौट कर अब शांति से देख सकते हैं अतीत के सब उलझाव। मगर अगर कोई इनसे कहे कि फिर से हम तुम्हें जवान बना देते हैं, तो क्या तुम सोचते हो ये वही भूलें नहीं करेंगे जो इन्होंने पहले की थीं? वही की वही भूलें करेंगे। 

और फिर मन के इन प्रश्नों के उत्तर देना मुश्किल होने लगेगा। और सच्चाई यही है कि संत में और असंत में कोई फर्क नहीं है। फर्क ऊपर-ऊपर है, फर्क मन का है, भीतर एक ही विराजमान है। राम और रावण में कोई फर्क नहीं है। कभी तुमने रामलीला के मंच के पीछे जाकर देखा? वहां तुम्हें असलियत पता चलेगी। पर्दा उठता है, राम और रावण धनुषबाण एक-दूसरे पर साधे खड़े हैं, युद्ध के लिए तत्पर, एक-दूसरे की हत्या के लिए बिलकुल आतुर। फिर पर्दा गिरता है। फिर जरा पीछे जाकर देखा करें! जब पर्दा गिर जाता है तो पीछे क्या हो रहा है? राम और रावण बैठे चाय पी रहे हैं--साथ-साथ! गपशप कर रहे हैं। सीता मइया दोनों के बीच बैठी गपशप कर रही हैं। न राम से कुछ लेना-देना है, न रावण से कुछ झगड़ा है। हनुमान ने भी पूंछ-वूंछ निकाल कर टांग दी है, मुखौटा उतार दिया है; अपनी असलियत में आ गए हैं। यह जगत एक बड़ी नाट्य-मंच है। यहां सब बाहर-बाहर पर्दे उठते हैं, बड़े भेद हैं; पर्दे गिर जाते हैं, कोई भेद नहीं है। अभिनय है। जीवन अभिनय से ज्यादा नहीं है। मन अभिनेता है। और मन के प्रति जाग जाना, साक्षी हो जाना अभिनय के पीछे झांक लेना है, मंच के पीछे जाकर देख लेना है। वहीं असलियत खुलती है। तुम वही हो जो तुम्हें होना है; और तुम सदा से वही हो।

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