वंदन
तुम चाहो कंचन हो जाए!
तृषित अधर कितने प्यासे हैं,
तृष्णा प्रतिपल बढ़ती जाती,
छाया भी तो छूट रही है,
विरह-दुपहरी चढ़ती जाती;
रोम-रोम से निकल रही हैं
जलती आहों की चिंगारी;
यों तो मेरा मन पावक है,
तुम चाहो चंदन हो जाए!
मेरे जीवन की डाली को
भायी कटु शूलों की माया,
आज अचानक अरमानों पर
सारे जग का पतझर छाया,
असमय वायु चली कुछ ऐसी,
पीत हुई चाहों की कलियां,
यों तो सूखी मन की बगिया,
तुम चाहो नंदन हो जाए!
अब तो सांसों का सरगम भी
खोया-खोया सा लगता है,
अनगिन यत्न किए मैंने पर
राग न कोई भी जगता है;
साध-मींड़ के खिंचने पर भी
स्वर-संधान नहीं हो पाता;
यों तो टूटी-सी मन-वीणा,
तुम चाहो कंपन हो जाए!
मेरा क्या है इस धरती पर
सिर्फ तुम्हारी ही छाया है,
चांद-सितारे, तृण-तरु पल्लव,
सिर्फ तुम्हारी ही माया है,
शब्द तुम्हारे, अर्थ तुम्हारे,
वाणी पर अधिकार तुम्हारा,
यों तो हर अक्षर क्षर मेरा,
तुम चाहो वंदन हो जाए!
झुको, भीतर झुको! अपने ही भीतर झुको, वहीं काबा और वहीं कैलाश वही अयोध्या और वही वृंदावन है ! और भीतर झुक जाओ तो क्रांति घट जाए मिट्टी सोना हो सकती है; सूखी बगिया नंदन हो सकती है; टूटी वीणा फिर अपूर्व रागों से भर सकती है।
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