जागृत अवस्था, जागरूकता

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मन आदि चतुर्दश करणैः
पुष्कलैरादित्याद्यनगृहीतैः
शब्दादीन्‌ विषयान्‌ स्थूलान्‌
यदोपलभते तदाऽऽत्मनो जागरणम्‌।

सूर्यादि देवताओं की शक्यिों द्वारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार और दस इंद्रियां--इन चौदह करणों द्वारा जिस अवस्था में आत्मा शब्द, स्पर्श आदि स्थूल विषय को ग्रहण करती है, उसे आत्मा की जाग्रत अवस्था कहते हैं। ऋषि ने कहा है: ‘इंद्रियों और मन के द्वारा चारों ओर फैले हुए सूर्य आदि देवताओं के प्रति जो संवेदनशील बोध की अवस्था है, वह जाग्रत है।’ यदि बाहर जो जगत है उसे जानना है तो दो द्वार हैं, एक द्वार है कि मैं शरीर का उपयोग करूं और उसे जानूं; और एक उपाय है कि मैं समस्त माध्यम छोड़ दूं और उसे जानूं। इस विराट से संबंधित होने के दो उपाय हैं। यह जो बाहर फैला हुआ है और यह जो भीतर निवास कर रहा है, इन दोनों के मिलन की दो यात्राएं हैं। एक यात्रा है परोक्ष, इनडायरेक्ट; वह यात्रा होती है इंद्रियों के द्वार से। एक यात्रा है प्रत्यक्ष, डायरेक्ट, इमिजिएट, माध्यमहीन; वह यात्रा होती है अतींद्रिय अवस्था से।  साधारणतः बाहर प्रकाश है तो हम आंख के बिना नहीं जान सकते हैं; और बाहर ध्वनि है तो कान के बिना नहीं जान सकते हैं; और बाहर रंग हैं तो इंद्रियों का उपयोग करना पड़े--इंद्रियों से हम जानते हैं कि बाहर क्या है; इंद्रियां हमारे ज्ञान के माध्यम हैं। स्वभावतः इंद्रियों से मिला हुआ यह ज्ञान वैसा ही है, जैसे कहीं कोई घटना घटे और कोई मुझे आकर खबर दे--मैं सीधा वहां मौजूद नहीं हूं, कोई बीच में खबर लाने वाला संदेशवाहक है। निश्चित ही खबर मुझे वैसी ही नहीं मिलेगी जैसी घटी है, क्योंकि संदेशवाहक की व्याख्या भी सम्मिलित हो जाएगी। जब मेरी आंख मुझे खबर देती है कि वृक्ष पर फूल खिला है--बहुत सुंदर, बहुत प्यारा; यह खबर मुझे मिलती है, यह वृक्ष के फूल के संबंध में तो है ही, यह आंख के रुझानों के संबंध में भी है, आंख ने अपनी व्याख्या भी जोड़ दी है। और वृक्ष पर जो फूल खिला है, उसमें जो रंग दिखाई पड़ रहे हैं, वे वृक्ष के फूल में तो हैं ही, उन रंगों के संबंध में आंख ने भी बहुत कुछ जोड़ दिया है जो वृक्ष के फूल पर नहीं है। हमारा जानना इंद्रियों के माध्यम से है। फिर इंद्रियां हमें जो खबर देती हैं वही मानने के लिए हम मजबूर हैं, क्योंकि हमारे पास और खबर पाने का कोई उपाय नहीं। पर इंद्रियों की खबर में इंद्रियों की व्याख्या संयुक्त हो जाती है। एक चेहरा आप देखते हैं, सुंदर मालूम पड़ता है। फिर एक खुर्दबीन से उसी चेहरे को देखें, तो बहुत घबड़ाहट होगी; वह चेहरा बहुत ऊबड़-खाबड़ गड्ढों वाला...पहाड़ी और झीलें भी उसमें दिखाई पड़ने लगेंगी; उसके छिद्र बड़े-बड़े गड्ढे हो जाएंगे। क्या खुर्दबीन गलत कह रही है? नहीं, खुर्दबीन अपनी व्याख्या दे रही है; वह आपकी आंखों से ज्यादा गहरा देख पाती है। फिर एक्सरे की मशीन से देखें उसी चेहरे को, तो चमड़ी खो जाएगी, हड्डियों का ढांचा भीतर रह जाएगा। क्या एक्सरे की मशीन गलत खबर दे रही है? नहीं, एक्सरे की मशीन अपनी व्याख्या दे रही है। फिर जो चेहरा आपने अपनी खाली आंख से देखा था वह सही था, कि जो खुर्दबीन से देखा वह सही है, कि जो एक्सरे से देखा वह सही है? वे सभी एक ही चेहरे की खबर दे रहे हैं। सभी सही हैं, लेकिन प्रत्येक व्याख्या आंशिक है, और जिस माध्यम से पाई गई है उस माध्यम पर निर्भर है। लेकिन क्या ऐसा भी हो सकता है कि हम बिना माध्यम के जगत को देख सकें? क्योंकि जब हम बिना माध्यम से जगत को देखेंगे तभी सत्य दिखाई पड़ेगा। इसलिए ऋषियों की जो गहनतम खोज है वह यह है कि जब तक इंद्रियों से हम जगत को जानते हैं, तब तक जिसे हम जानते हैं वह जगत के ऊपर इंद्रियों के द्वारा आरोपित प्रक्षेपण है; उसी का नाम माया है। जो आपने देखा है वह दृश्य ही नहीं है, देखने वाला भी उसमें संयुक्त हो गया है। वह जागृत अवस्था नही होगी। जब कोई आदमी आपको किसी के संबंध में खबर देता है कि वह आदमी बहुत अच्छा है, तो वह सिर्फ उस आदमी के संबंध में खबर नहीं देता, अपने संबंध में भी खबर देता है। और जब कोई आदमी कहता है कि फलां आदमी बहुत बुरा है, तो वह उस आदमी के संबंध में ही खबर नहीं देता, अपने संबंध में भी खबर देता है। शायद दूसरे के संबंध में उसकी खबर गलत भी निकल जाए, लेकिन खुद के संबंध में गलत नहीं निकल सकती।

हमारी इंद्रियां व्याख्या को संयुक्त करती हैं। वे निष्क्रिय हैं--द्वार नहीं हैं, सक्रिय प्रक्षेपक भी हैं। इंद्रियों के द्वार से, जो सत्य का विस्तार है उसे जानने का। इस सत्य को जानने से जो ज्ञान हमारी पकड़ में आता है, जिन्होंने इंद्रियों के पार भी जगत को देखा है वे कहते हैं, वह ज्ञान हमारा इलूजरी है, माया है। जब शंकर जैसा व्यक्ति कहता है यह जगत माया है, तो आप यह मत समझना कि वह यह कहता है कि यह जगत नहीं है। ऐसे पागलपन की बात शंकर नहीं कह सकते कि यह जगत नहीं है। यह जगत बिलकुल है, लेकिन जैसा आपको दिखाई पड़ रहा है, वैसा नहीं है। वैसा दिखाई पड़ना आपकी दृष्टि है, वही दृष्टि इस जगत को माया बनाए दे रही है। जैसा जगत आपको दिखाई पड़ रहा है, वह आपकी व्याख्या है। और इसलिए ठीक होगा यह कहना कि इस जगत में एक माया नहीं है, जितने इस जगत को जानने वाले हैं उतनी मायाएं हैं। हर आदमी अपना जगत निर्मित किए हुए जी रहा है; हर आदमी के इर्द-गिर्द एक जगत है। ऋषि कहता है: ‘इस जगत को इंद्रियों के द्वारा जानने की जो स्थिति है, वह जाग्रत है। इंद्रियों के माध्यम से इस जगत को जानने की जो अवस्था है, उसे जाग्रत कहेंगे।’ ऋषि ने कहा है: ‘‘सूर्य आदि देवताओं को।’’ सूर्य केंद्र है। हम अपने चारों तरफ जो भी देखते हैं, अगर उस सबके केंद्र को हम खोजें, तो सूर्य केंद्र है। सूर्य बुझ जाए तो हमारा पूरा जगत अभी राख हो जाए। जीवन सूर्य है। चाहे वृक्ष पर हरे पत्ते आनंद में मग्न हों, नाचते हों; और चाहे आकाश में बादल सरकते हों; और चाहे जमीन पर कोई गीत गाता हो, बांसुरी बजाता हो; और चाहे बीज में अंकुर टूटता हो; और चाहे झरने पहाड़ से उतर कर सागर की तरफ बहते हों, इस सबके आधार में सूर्य है। सूर्य बुझ जाए तो सब जीवन बुझ जाएगा। इसलिए सूर्य आदि देवता कहा है; बाकी सब गौण हैं, सूर्य प्रमुख है। सूर्य यानी जीवन।
आपके भीतर श्वास चल रही है और खून में गर्मी है और हृदय में धड़कन है...सूरज का हाथ है। अगर सूरज बुझ जाए तो हमें यह भी पता न चलेगा कि वह कब बुझ गया, क्योंकि उसके बुझने के साथ हम बुझ गए होंगे। कोई इतिहास लिखने को बचेगा नहीं जो लिखे कि फलां तारीख को सूरज बुझ गया; क्योंकि सूरज के बुझने के साथ हम सब तत्काल बुझ जाएंगे। इसलिए सूर्य को सदा ही केंद्र पर स्वीकृति मिली है--पर इसे ‘देवता’ क्यों कहते हैं? विज्ञान इसे देवता नहीं कहता। और वैज्ञानिक को चिंता होती है कि यह...यह पैंथिइज्म है; यह हर चीज में भगवान को देखने की क्या जरूरत है? सूरज सूरज है, इसमें देवता को देखने की क्या जरूरत है? लेकिन भारतीय मनीषा कुछ और ढंग से सोचती है।
भारतीय मनीषियों के सोचने का ढंग यह है कि जिससे हमें कुछ भी मिले, उसके प्रति अनुगृहीत होना अनिवार्य है; क्योंकि अनुग्रह के बिना हमारे भीतर जो श्रेष्ठतम है उसका आविर्भाव नहीं होता। मनुष्य के भीतर जो भी श्रेष्ठतम है वह अनुग्रह के भाव से ही विकसित होता है। जितना अनुग्रह का भाव भीतर होगा, उतनी ही मनुष्य की आत्मा विकासमान होती है।
तो सूरज सिर्फ सूरज है...जब हम ऐसा कहते हैं, ठीक है--तो अनुग्रह का कोई संबंध निर्मित नहीं होता। ऐसा नहीं लगता कि सूरज से हमें कुछ मिला है; ऐसा भी नहीं लगता कि हम सूरज की फैली हुई किरणें हैं; ऐसा भी नहीं लगता कि सूरज से हमारे हृदय की धड़कनों का कोई संबंध है; ऐसा नहीं लगता कि हम सूरज के ही फैले हुए हाथ हैं--दस करोड़ मील दूर, लेकिन हैं हम सूरज की ही किरणें। वही धड़कता है हमारे भीतर; वही जीता है; उसकी ही ऊष्मा है, उसकी ही गर्मी है।
तो कोई संबंध निर्मित नहीं होता। लेकिन यह बड़ी नासमझी की बात है; क्योंकि जिससे हमें जीवन मिलता हो, उसके प्रति अनुग्रह का भाव न हो तो हमारे भीतर जो श्रेष्ठतम है उसका विकास न हो सकेगा। अनुग्रह का भाव धार्मिक चित्त का आधारभूत लक्षण है। उसी अनुग्रह के भाव पर उसे प्रभु का प्रसाद उपलब्ध होता है। इसलिए सूर्य को, सिर्फ प्रभावित होकर कि वह अग्नि का महापिंड है, किन्हीं ने हाथ जोड़ कर नमस्कार कर लिए होंगे, ऐसा नहीं है। जिन्होंने नमस्कार किया था, वे इस सत्य को भलीभांति जानने और पहचानने लगे थे...कि उस नमस्कार से सूरज को कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन नमस्कार करने वाले को बहुत कुछ मिलता है। वह अनुग्रह की संवेदना पैदा होनी शुरू होती है, वह ग्रेटिट्यूड! और उसमें ही सरलता जन्म जाती है, उसमें ही निर्दोष चित्त हो जाता है। इसलिए जिन्होंने सूरज को नमस्कार किया था, उन्होंने नदियों को भी नमस्कार किया था, उन्होंने वृक्षों को भी नमस्कार किया था।
कभी-कभी बहुत मजे की घटनाएं घटती हैं। बौद्ध पच्चीस सौ वर्ष से बोधिवृक्ष की पूजा करते आ रहे हैं। कोई भी कहेगा, नासमझी की बात है। संयोग की बात थी कि बुद्ध उस वृक्ष के नीचे बैठे थे, इसमें पूजा जैसा क्या है? कहीं और भी बैठे हो सकते थे! लेकिन अभी कुछ वर्षों में विज्ञान ने कुछ खोजें की हैं तो बड़ी हैरानी का तथ्य प्रकट हुआ है। वह तथ्य यह है कि मनुष्य के मस्तिष्क में, जिसे हम योग में थर्ड आई, तीसरा नेत्र, या शिवनेत्र कहते रहे हैं...विज्ञान और भौतिकवादी चिंतक इस पर हंसते रहे थे कि तीसरी आंखजैसी कोई चीज आदमी के भीतर नहीं है; ये सब कल्पनाएं हैं। लेकिन इधर कुछ वर्षों में, दोनों आंखों के बीच में एक ग्रंथि को विज्ञान खोज पाया है, जो कि शरीर में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। मनुष्य के भीतर जो भी चैतन्य का आविर्भाव हुआ है, वह उसी ग्रंथि में पैदा होने वाले रसों से होता है। और वह ग्रंथि वही है जिसे सदा से पूरब के मनीषी तीसरा नेत्र कहते रहे हैं। उस ग्रंथि से जिस रस का आविर्भाव होता है, और जिस रस के बिना मनुष्य के भीतर चेतना पैदा नहीं होती, बुद्धि का आविर्भाव नहीं होता, बड़ी हैरानी की बात है कि वह रस वटवृक्ष में सर्वाधिक मात्रा में उपलब्ध है...सारे जगत की वनस्पतियों में सर्वाधिक! कॉलिन विलसन ने अपनी एक नई किताब ‘दि ऑकल्ट’ में लिखा है...कि कुछ हैरानी न होगी कि बुद्ध का उस वृक्ष के नीचे बैठना और बोधि को उपलब्ध होना, इसमें उस वृक्ष का भी हाथ हो! इस वृक्ष का भी हाथ हो; यह वृक्ष सिर्फ सांयोगिक नहीं है; इस वृक्ष का हाथ हो सकता है। वटवृक्ष की ही जाति के पीपल वृक्ष को भारत सदा से पूजता रहा है। पीपल अकेला वृक्ष है पूरी पृथ्वी की वनस्पतियों में...सारे वृक्ष इस अर्थ में पीपल से बिलकुल भिन्न हैं। रात को वृक्षों के नीचे सोना या बैठना--पीपल को छोड़ कर--खतरनाक है। दिन भर वृक्ष ऑक्सीजन छोड़ते हैं, तो उनके पास होना जीवन के लिए हितकर है। और रात वृक्ष कॉर्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं, उनके पास रहना खतरनाक है; वे जीवन को हानि पहुंचाते हैं। सिर्फ पीपल अकेला वृक्ष है जो चौबीस घंटे ऑक्सीजन छोड़ता है। उसके पास किसी भी समय रहें, वह जीवनदायी है। तो जिन्होंने इतने वृक्षों के बीच पीपल को अचानक पूजा के लिए चुन लिया होगा...किसी अनुग्रह के भाव के कारण। और बुद्ध का इस वृक्ष के नीचे बैठ कर बोधि को उपलब्ध होना, सिर्फ संयोग नहीं है, यह भी चुनाव है। इस वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यान करना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का हिस्सा है।
इस जगत में जिन्होंने अनुग्रह की किरणें खोजनी चाही हैं, उन्हें कण-कण से वे किरणें मिलती हुई मालूम पड़ी हैं। जहां से भी अनुग्रह का संबंध जुड़ जाता है, हमने उसी जगह को ‘देवता’ कहा है। देवता का अर्थ है: जिसने हमें दिया ही है और हमसे लिया नहीं। देवता का अर्थ है: जिससे हमें मिला ही है, सदा मिलता रहा है; नहीं मांगा है तो भी मिलता रहा है; हमने धन्यवाद नहीं दिया तो भी मिलता रहा है। उसका मिलना, उससे मिलना बेशर्त है, तो हमने देवता कहा है। और हम उसे और कुछ भी नहीं दे सकते लौटा कर, लेकिन धन्यवाद तो दे ही सकते हैं। यह जो चारों तरफ फैला हुआ प्रभु का विस्तार है, और इससे हमारे तार-तार जुड़े हैं, इस जोड़ का बोध जब इंद्रियों के द्वारा चेतना को होता रहता है, तो उसे जाग्रत कहा है। 

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