महोत्सव

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कभी आपने सोचा कि काम वाले लोगों ने, जो हर चीज को काम में बदल देते हैं, जिंदगी को कैसा तनाव से भर दिया है। जिंदगी की सारी एंग्जाइटी, सारी चिंता, यह अति कामवादी लोगों की उपज है। वे कहते हैं, करो, एकदम करते रहो, करो या मरो। उनका नारा यह है--डू ऑर डाय। जिंदा हो तो करो कुछ, अन्यथा मरो। वही एक काम करो। और उनके पास कोई और दृष्टि नहीं है, लेकिन किसलिए करो? आदमी करता किसलिए है? आदमी करता इसलिए है कि थोड़ी देर जी सके। और जीने का क्या मतलब होगा फिर? फिर जीने का मतलब उत्सव होगा। हम काम भी इसलिए कर सकते हैं कि किसी क्षण में हम नाच सकें। लेकिन काम इतने जोर से पकड़ लेता है कि फिर नाचने का तो मौका ही नहीं आता, गीत गाने का मौका ही नहीं आता; बांसुरी बजाने की फुर्सत कहां रह जाती है, दफ्तर से घर हैं, घर से दफ्तर हैं; घर दफ्तर आ जाता है दिमाग में बैठ कर, दिमाग में बैठ कर दफ्तर घर पहुंच जाता है, सब गड्डमड्ड हो जाता है, सब उलझ जाता है; फिर जिंदगी भर दौड़ते रहते हैं इस आशा में कि किसी दिन वह क्षण आएगा, जिस दिन विश्राम करेंगे और आनंद ले लेंगे। वह क्षण कभी नहीं आता। वह आएगा ही नहीं। कामवृत्ति वाले आदमी को वह क्षण कभी नहीं आता है। कृष्ण जीवन को देखते हैं उत्सव की तरह, महोत्सव की तरह, एक खेल की तरह, एक क्रीड़ा की तरह। जैसा कि फूल देखते हैं, जैसा कि पक्षी देखते हैं, जैसा कि आकाश के बादल देखते हैं, जैसा कि मनुष्य को छोड़ कर सारा जगत देखता है। उत्सव की तरह। कोई पूछे इन फूलों से कि खिलते किसलिए हो, काम क्या है? बेकाम खिले हुए हो? तारों से कोई पूछे कि चमकते किसलिए हो? काम क्या है? पूछे कोई हवाओं से, बहती क्यों हो? काम क्या है? मनुष्य को छोड़ कर जगत में काम कहीं भी नहीं है। मनुष्य को छोड़ कर जगत में महोत्सव है। उत्सव चल रहा है प्रतिपल। कृष्ण इस जगत के उत्सव को मनुष्य के जीवन में भी ले आते हैं। वे कहते हैं, मनुष्य का जीवन भी इस उत्सव के साथ एक हो जाए। ऐसा नहीं है कि उत्सव में काम नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हवाएं नहीं दौड़ रही हैं। दौड़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि चांद-तारे नहीं चल रहे हैं। चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि फूलों को खिलने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है, बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन करना गौण हो जाता है, होना महत्वपूर्ण हो जाता है। डूइंग पीछे हो जाती है, बीइंग पहले हो जाता है। उत्सव पहले हो जाता है, काम पीछे हो जाता है। काम सिर्फ उत्सव की तैयारी हो जाता है। दुनिया की सारी आदिम जातियों के पास अगर हम जाएं तो वह दिन भर काम करते हैं, ताकि रात नाच सकें; रात ढोल बजे और गीत हों। लेकिन सभ्य आदमी के पास जाएं तो वह दिन भर काम करता है, रात भर काम करता है। और उससे कोई पूछे कि वह काम किसलिए कर रहा है? तो वह कहता है, कल विश्राम कर सकें। विश्राम को पोस्टपोन करता है, काम को करता चला जाता है, फिर वह कल कभी नहीं आता। तो मैं तो कृष्ण के इस महोत्सववादी रुख से राजी हूं।फिर मेरा देखना यह है कि इतना काम करके भी आदमी ने कर क्या लिया है? अगर काम करना अपने में ही लक्ष्य है, तब तो बात दूसरी है। लेकिन इतना काम करके हमने कर क्या लिया है? इन्होंने भारी नुकसान पहुंचाए हैं। एक नुकसान तो इन्होंने पहुंचाया है कि जिंदगी से उत्सव के क्षण छीन लिए हैं। दुनिया में उत्सव कम होते जा रहे हैं। रोज कम होते जा रहे हैं। उत्सव की जगह मनोरंजन आता जा रहा है, जो कि बहुत भिन्न बात है। उत्सव की जगह मनोरंजन आ रहा है, जो बिलकुल भिन्न बात है। उत्सव में स्वयं सम्मिलित होना पड़ता है, मनोरंजन में दूसरे को सिर्फ देखना पड़ता है। मनोरंजन पैसिव है, उत्सव बहुत एक्टिव है। उत्सव का मतलब है, हम नाच रहे हैं। मनोरंजन का मतलब है, कोई नाच रहा है, हमने चार आने दिए और देख रहे हैं। लेकिन कहां नाचने का आनंद और कहां नाच देखने का आनंद। इतना काम हमने कर लिया है कि सांझ थक जाते हैं, तो किसी को नाचते हुए देखना चाहते हैं।इसलिए कोई आदमी प्रसन्न नहीं है, प्रमुदित नहीं है, खिला हुआ नहीं है। और इसका सब्स्टीट्यूट हमें खोजना पड़ा मनोरंजन। क्योंकि कोई तो क्षण चाहिए जब हम कुछ न करें, विराम में हों। लेकिन हम जो मनोरंजन खोजे हैं, वह उधार उत्सव है। दूसरा कर रहा है उत्सव और हम देख रहे हैं। वह ऐसे ही है जैसे कोई प्रेम कर रहा है और हम देख रहे हैं। फिल्म में आप क्या कर रहे हैं? कोई प्रेम कर रहा है, आप देख रहे हैं। कृपा करें, आप ही प्रेम करें। यह सब्स्टीट्यूट काम न करेगा। यह बिलकुल झूठा है, कागजी है, इससे कोई हल होने वाला नहीं है। इससे आप खयाल में होंगे कि काम हो गया, लेकिन आपकी वह जो प्रेम की आकांक्षा थी, वह नहीं तृप्त होगी। वह और भूखी हो जाएगी, और प्यासी हो जाएगी। कृष्ण उत्सववादी हैं, वे जीवन को एक महालीला, एक महाउत्सव की तरह लेते हैं। यह भी ठीक है कि अगर हम राम के भक्तों को देखें--हनुमान को देखें, तो वह बड़े कर्मठ, निष्ठावान, ब्रह्मचारी, शक्तिशाली, वह सब दिखाई पड़ते हैं। कृष्ण का भक्त वैसा नहीं दिखाई पड़ता। मीरा है--नाचती है, गाती है, लेकिन वह बात नहीं दिखाई पड़ती। वह दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि राम जिंदगी को काम की तरह देखते हैं। कृष्ण जिंदगी को उत्सव की तरह देखते हैं। उत्सव की तरह देखना बात ही और है। तो मैं तो चाहूंगा कि जगत धीरे-धीरे संगीत से भरे, गीत से भरे, नृत्य से भरे, उत्सव से भरे। और यह जो हमने, जिसको हम बाहर का जगत कहते हैं, काम की जो दुनिया है, इस काम की दुनिया का इतना ही उपयोग है कि हम इसमें इतने दूर तक हों जितने दूर तक भीतर जाने के लिए जरूरी हो। इससे ज्यादा होने की जरूरत नहीं है। और रोटी कमानी पड़ेगी, लेकिन रोटी कमाना ही जिंदगी नहीं है। 

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