मालकियत

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ध्यान जीवन को जीने की कला है। वही जीवन को जानते हैं जो ध्यानस्थ हैं। जो अपने केंद्र पर थिर हो गए हैं वही पहचानते हैं अहोभाग्य को, जो हमें अस्तित्व ने दिया है। उनके जीवन में एक धन्यता है। उनके प्राणों में एक कृतज्ञता है। वे झुकेंगे समर्पण में। उनके भीतर से प्रार्थना उठेगी। प्रार्थना की गंध, प्रार्थना का रंग उनसे फूटेगा, झरने फूटेंगे, स्वभावतः, क्योंकि जीवन में उनको दिखाई पड़ना शुरू होगा कि कितना मिला है! कितना, जिसकी हमारी कोई पात्रता नहीं थी! कितना, जिसके लिए हमने कोई कमाई नहीं की थी! जो सिर्फ प्रकृति की देन है! हमारी झोली भरी है, मगर हम उस झोली की तरफ देखते नहीं। और हम टुच्ची बातों में उलझे हुए हैं, छोटी बातों में उलझे हुए हैं। संन्यास को जीवन की कला समझो। कठिन बात है यह। मैं तुम्हें एक कठिन चुनौती दे रहा हूं, क्योंकि मैं तुमसे कह रहा हूं कि भागना मत। भागना बिलकुल आसान है। मैं तुमसे कह रहा हूः यहीं! मैं तो किसी को भी कुछ छोड़ने को नहीं कहता। अगर मुझ से चोर भी आकर कहता है कि मैं संन्यासी होना चाहता हूं, मैं कहता हूं हो जाओ। वह कहता हैः मेरी चोरी का क्या होगा? मैं कहता हूं: वह पीछे देखेंगे। संन्यास देखेगा उसको। तुम चोर हो, ठीक है; इतना ही क्या कम है कि चोर होकर भी तुम्हारे मन में संन्यासी होने का भाव उठा! तुम साहूकारों से बेहतर हो, जिनके भीतर संन्यासी होने का भाव नहीं उठा। वे क्या खाक साहूकार हैं! वे चोर हैं, तुम साहूकार हो। अगर जीवन की कला सीखनी है तो तुम्हें नकल छोड़नी पड़ेगी। वह पहला कदम है। तुम्हें पहली दफा अपनी निजता पर ध्यान देना होगा--क्या मेरी जरूरत है, क्या मेरी आवश्यकता है? करीब-करीब नब्बे प्रतिशत काम तुम ऐसे कर रहे हो जो तुम न करो तो चल जाएगा, मगर उसमें तुम्हारी शक्ति व्यय हो रही है। वही शक्ति लगे तो जीवन का शिखर उपलब्ध हो। मगर वह शक्ति तो यूं क्षीण हो जाती है। सभी एक-दूसरे को देख कर जी रहे हैं। यह बहुत हैरानी की दुनिया है। यहां अपने निजी बोध से बहुत ही कम लोग जी रहे हैं। जो जी रहे हैं, वही सच्चे जी रहे हैं, बाकी तो सब मुर्दा हैं, लाशें हैं। उनकी जिंदगी में इतनी भी प्रतिभा नहीं है कि अपने लिए तय करें कि कैसे जीना है। सब दूसरे तय कर रहे हैं उनके लिए। विज्ञापनदाता तय कर देते हैं कि तुम कौन सा दंत-मंजन उपयोग करो, कौन सी साबुन उपयोग करो, कौन सी फिल्म देखो। सब दूसरे तय कर रहे हैं। तुम अपने मालिक ही नहीं हो। और संन्यास अपनी मालकियत है। ओर तब संसार के भी तुम मालिक बन जाओगे, यह विपरीत परिस्थिति में ही धर्म का अवतरण होगा वही तुम्हारी परम अवस्था, परम आत्मिक अवस्था होगी। 

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