शुभाशुभ के पार

शुभ

शुभ का कोई संबंध नीति से नहीं है। नीतियां अनेक हैं, शुभ एक है। हिंदू की नीति एक, मुसलमान की नीति दूसरी, जैन की नीति तीसरी। इसलिए नीतियां तो मान्यताएं हैं; बदलती रहती हैं। उनका कोई शाश्वत मूल्य नहीं है। जो कल अनैतिक था, आज नैतिक हो सकता है। जो आज नैतिक है, कल अनैतिक हो जाएगा। शुभ शाश्वत है। शुभ न हिंदू का, न मुसलमान का, न जैन का, न ईसाई का। शुभ तो परमात्मा से संबंधित होने का नाम है। शुभ सांसारिक धारणा नहीं है, न सामाजिक धारणा है। शुभ तो अंतस-छंद की प्रतीति है। शांडिल्य से पूछो, या अष्टावक्र से, या मुझसे, उत्तर यही होगा कि जिस बात से तुम्हारे भीतर के छंद में सहयोग मिले, वह शुभ। और जिस बात से तुम्हारे भीतर के छंद में बाधा पड़े, वह अशुभ। जिससे तुम्हारा अंतर्संगीत बढ़े, वह शुभ। जिससे तुम्हारा अंतर्संगीत छिन्न-भिन्न हो, खंडित हो, वह अशुभ। जिससे तुम समाधि के करीब आओ, वह शुभ; और जिससे तुम समाधि से दूर जाओ, वह अशुभ। कसौटी भीतर है, कसौटी बाहर नहीं है। 

अशुभ

अशुभ, शुभ से जो विपरीत है, जिससे तुम्हारा छंद भंग होता है, जिससे तुम्हारे भीतर का रस छिन्न-भिन्न होता है, जिससे तुम्हारे भीतर की वीणा के तार टूट जाते हैं, वही अशुभ है।
तुम देखो, किसी से झूठ बोले, झूठ बोलते ही तुम्हारे भीतर के तार संगीत पैदा नहीं करते। झूठ बोलो और तुम देखो, झूठ बोलते ही तुम सिकुड़ जाते हो; भयभीत हो जाते हो; डर जाते हो--पकड़े तो नहीं जाओगे? आज नहीं कल झूठ किसी की पकड़ में तो न आ जाएगा? फिर एक झूठ बोलो तो उस झूठ को बचाने के लिए हजार झूठ बोलने पड़ते हैं। फिर पकड़े जाने की संभावना भी बढ़ती जाती है। जितनी पकड़े जाने की संभावना बढ़ती है, उतना भय बढ़ता है। जितना भय बढ़ता है, उतना झूठ बढ़ता है। जितना झूठ बढ़ता है, और पकड़े जाने की संभावना बढ़ती है। तुम फंस गए एक जाल में। अपने ही हाथ से जाल बुना, मकड़ी खुद ही फंस गई अपने जाल में। फिर निकलने का रास्ता नहीं सूझता। क्योंकि इतने झूठ बोल चुके हो, अब अगर सच बोले तो सारा जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। एक और सही, एक और सही। एक झूठ बोलो, फिर झूठ की बड़ी संतानें हैं--झूठ संतति-नियमन में नहीं मानता। सत्य की संतान नहीं होती। सत्य ब्रह्मचारी है। एक सत्य बोलो, पूरा हो गया--अपने में पूरा होता है, अब किसी और सहारे की जरूरत नहीं होती। और सत्य बोल कर निश्चिंत सो सकते हो वह शुभ है कोई चिंता नहीं पकड़ती। सत्य की सुरक्षा नहीं करनी पड़ती। सत्य के लिए आयोजन नहीं करना पड़ता बचाने का। सत्य अपना प्रमाण है। सत्य के साथ हृदय निर्भार होता है। सत्य के साथ मन मौज में होता है। सत्य के साथ अभय होता है। और जहां अभय है, और जहां मन मुक्त है, वहां संगीत है, वहां छंद है। उसी छंद में शुभ है। अशुभ का अर्थ हुआ, ऐसा कुछ मत करो जिससे तुम सिकुड़ते हो। ऐसा कुछ मत करो जिससे तुम्हें अपने को छिपाना पड़ता है। ऐसा कुछ मत करो जिसके कारण तुम नग्न नहीं हो सकते। ऐसा कुछ मत करो जिसके कारण तुम्हें अवरोध खड़े करने पड़ें। बस इतना ही ध्यान रहे। मैं तुम्हें मूल कुंजी की बात कर रहा हूं, विस्तार की बात नहीं कर रहा हूं। मैं तुम्हें कोई गिना नहीं रहा हूं कि ये-ये बातें शुभ हैं और ये-ये बातें अशुभ हैं। क्योंकि गिनती हो नहीं सकती, जीवन विराट है, बहुत बड़ा है जीवन। तुम इस तरह से अपने जीवन की परीक्षा में लग जाओ--जो भी करते हो, इतनी ही बात सोच कर करो कि इससे मेरा संगीत गहन होगा? बस। अगर संगीत गहन होता है, फिकर छोड़ो दुनिया के शास्त्रों की और फिकर छोड़ो दुनिया के सिद्धांतों की, उनका कोई मूल्य नहीं है। वे तुम्हारे लिए बनाए भी नहीं गए। जिनके लिए बनाए गए थे वे लोग अब हैं भी नहीं। अब कोई वेद में जाकर अपना सिद्धांत खोजता है। वेद पांच हजार साल पहले लिखे गए, जिंदगी बहुत बदल गई है। जिंदगी ने नये रूप ले लिए हैं, नये मोड़ ले लिए हैं। जिन मोड़ों का कोई पता नहीं था वेद लिखने वालों को--हो भी नहीं सकता था--इन नये मोड़ों पर नई घटनाएं घट गई हैं। इसलिए तुम अपने छंद से परखो। आंख खोल कर देखो, अपने जीवन की जांच करते रहो। जहां तुम्हें लगे कि यह बात मेरे आनंद से जुड़ती है और इससे मेरा आनंद विकासमान होगा, वही शुभ। और जिससे तुम्हारा आनंद खंडित होता हो, वही अशुभ।

शुभाशुभ के पार 

छंद बंधे तो शुभ, छंद टूटे तो अशुभ, और जब छंद ऐसा हो जाए कि टूटने की संभावना ही न रहे, तुम ही छंद हो जाओ, छंद तुम्हारी नियति हो जाए, तुम्हारा स्वभाव हो जाए, तब शुभाशुभ के पार। फिर चिंता की भी जरूरत नहीं कि क्या करूं, क्या न करूं? फिर उस छंद से जो होता है, वह सब ठीक ही होता है।




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