आत्मतत्व

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आत्मतत्व जिससे हम अपरिचित हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं, जो हम हैं और फिर भी जिसकी हमें कोई पहचान नहीं है। हमारी चेतना की जो अंतिम गहराई है, जो अल्टीमेट डेप्थ है, जो आखिरी गहराई है, जहां से हमारा होना जन्मता है और विकसित होता है.। अगर मनुष्य को भी हम एक वृक्ष मान लें, तो जिन्हें हम विचार कहते हैं, वे हमारे पत्तों से ज्यादा नहीं हैं। और विचारों के जोड़ को ही हम अपने को समझ लेते हैं कि यह मैं हूं, पत्तों के जोड़ को! जड़ें तो गहरे में आत्मतत्व हैं। लेकिन जैसे जमीन के गहरे में और अंधेरे में वृक्ष की जड़ें छिपी हैं, वैसे ही हमारे आत्मतत्व की जड़ें परमात्मा में, गहरे में, बहुत गहरे में छिपी हैं। वहां से ही हम रस पाते हैं। वहां से ही जीवन मिलता है। वहां से ही प्राण की धाराएं बहती हैं और हमारे पत्तों तक आती हैं। हमारे पत्ते न हो सकेंगे, अगर वे जड़ें न हों। तो जिस दिन वे जड़ें अपने को सिकोड़ लेती हैं परमात्मा में, उसी दिन हमारे पत्ते कुम्हला जाते हैं, शाखाएं सूख जाती हैं--कहते हैं, आदमी मर गया। जब तक वे जड़ें रस को पीए चली जाती हैं, जब तक वह आत्मतत्व हमारे पत्तों को फैलाए चला जाता है, तब तक लगता है हम जीवित हैं। हमारे विचार हमारे पत्तों की भांति हैं, हमारी वासनाएं हमारी शाखाओं की भांति हैं। और इन पत्तों और शाखाओं के जोड़ से ही हमारा अहंकार निर्मित होता है। यह बहुत गौण हिस्सा है हमारे अस्तित्व का। हमारे अस्तित्व का मूल, सब्स्टैनशिएल हिस्सा तो नीचे छिपा है। उसको ही उपनिषद आत्मतत्व कहता है। वह, जिसके बिना हम न हो सकेंगे, यद्यपि जिसे हम भूल सकते हैं। वह, जिसके बिना हमारा कुछ भी न हो सकेगा, लेकिन फिर भी वह इतने भूगर्भ में है, अस्तित्व की इतनी गहराई में है कि हम उसे विस्मरण कर सकते हैं। आत्मतत्व विस्मरण कर दिया जाता है। र मजे की बात है, जो बहुत गहरा नहीं है, जिसके बिना भी हम हो सकते हैं, वह ऊपर होता है परिधि पर। वह दिखाई पड़ता है। वह पकड़ में आता है। हम अपने को जब पकड़ने जाते हैं, तो अपने विचारों के जोड़ को ही समझ लेते हैं कि यह मैं हूं। मन को ही समझ लेते हैं कि मैं हूं। मनसतत्व हमारे पत्तों का जोड़ है, आत्मतत्व हमारी जड़ों का। और ध्यान रहे, जो जड़ों तक नहीं पहुंचेगा वह उस भूमि को तो कभी पहचान ही नहीं पाएगा, जिससे जड़ें रस पाती हैं। जड़ है आत्मतत्व। जड़ तक जो पहुंचेगा वह पाएगा, बहुत शीघ्र पाएगा कि जड़ नहीं है, जड़ भी रस पाती है पृथ्वी से। और भी एक बड़ी अंतरधारा है जीवन की। आत्मतत्व को जो पहचानेगा वह परमात्मतत्व को भी पहचान लेगा। लेकिन हम तो जीते हैं पत्तों में और इन पत्तों के जोड़ को ही समझ लेते हैं कि यह मैं हूं। इसलिए एक जरा सा पत्ता कुम्हला जाता है, गिरता है, तो हम सोचते हैं--मरे, गए, नष्ट हुए। सब पत्ते कुम्हला जाते हैं, तो सोचते हैं, जीवन गया, खोया। जीवन का हमें पता ही नहीं है। जीवन की बहुत ऊपरी आवरण, बहुत ऊपरी आच्छादन, वही हम अपने को मानकर जीते हैं। उपनिषद कहता है, इस आवरण में, आच्छादन में जीने वाला ही आत्महंता है। इस आवरण के नीचे, गहरे में, वहां तक जाने वाला, जहां जड़ें मिल जाएं--रूट्‌स आफ एक्झिस्टेंस जहां से अस्तित्व अपने मूल उदगम को पा ले, गंगोत्री मिल जाए जहां प्राणों की, तब हमने जाना आत्मतत्व। उसे जान लेने वाला ही आत्मज्ञानी है। उसे जान लेने वाला ही प्रकाश को उपलब्ध होता है, जीवन को उपलब्ध होता है।

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