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विट्‌गिंस्टीन ने अपने सारे जीवन के बाद एक छोटा सा वाक्य लिखा है। और वह वाक्य बहुत अदभुत है। उसने लिखा है, दैट व्हिच कैन नॉट बी सेड, मस्ट नॉट बी सेड। जो नहीं कहा जा सकता, उसे कहना ही नहीं चाहिए। लेकिन, इतना तो कहना ही पड़ता है। अब विट्‌गिंस्टीन मर गया, नहीं तो उससे मैं कहता, इतना तो कहना ही पड़ता है कि जो नहीं कहा जा सकता उसे नहीं कहना चाहिए। और इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितना कहते हैं! कुछ तो कहना ही पड़ता है। लेकिन ट्रैक्टेटस में उसने कहा है कि लैंग्वेज में ही सब कुछ कहा जाएगा जो कुछ कहा जाएगा। यह थोड़ी दूर तक ठीक है। क्योंकि अगर गेस्चर को भी हम कहना समझें, तो वह भी एक भाषा है। एक गूंगा हाथ उठा कर कह देता है--पानी पीना है। वह भी भाषा है, गूंगे की भाषा है। इसलिए हम तो कहते ही रहे हैं कि परमात्मा जो है वह गूंगे का गुड़ है। लेकिन उसका मतलब यही है कि गूंगे की भाषा में कहना पड़ेगा।लेकिन कहेंगे जो भी हम किसी भी ढंग से--नाच कर कहें, मौन रह कर कहें, तो भी हम कह रहे हैं--और इसलिए जो है, वह हमारे सब कहने के पार छूट जाएगा। इसलिए लाओत्से ने विट्‌गिंस्टीन से बहुत गहरी बात कही है। लाओत्से ने कहा, सत्य कहा कि असत्य हो जाता है, बस इतना ही कहा जा सकता है। इसलिए जो जानते हैं वे चुप रह जाते हैं। 

एक झेन फकीर के पास कोई गया और उससे पूछता है, ईश्र्वर के संबंध में कुछ कहो। तो वह हंसता है, डोलता है। फिर वह पूछता है, कुछ कहो भी, हंसने-डोलने से क्या होगा? तो वह और जोर से नाचता है। वह कहता है, क्या पागल तो नहीं हो? हम कहते हैं कि कुछ कहो! तो वह फकीर कहता है, मैं कहता हूं, लेकिन तुम सुनते नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि गजब की बातें कर रहे हैं! खुद पागल हो, मुझको भी पागल बनाते हो! एक शब्द तुम बोले नहीं। तो उस फकीर ने कहा, अगर मैं बोलूंगा तो गलती हो जाएगी। अगर नहीं बोलने से नहीं समझ सकते हो तो जाओ, वहां समझो जहां बोल कर समझाया जा रहा है।
लेकिन बोल कर समझाने से परम तत्व में गलती हो ही जाएगी। इसलिए हम बोल सकते हैं आखिरी क्षण तक, लेकिन बिलकुल आखिरी क्षण पर बोलना रुक जाएगा। उसके बाद चुप रह जाना पड़ेगा। वह मौन परमात्मा है। 

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