मार्ग

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पहला मार्ग है साक्षी का साक्षी का अर्थ ही यह होता है कि जो भी तुम्हारे सामने विषय बन जाए वह तुम नहीं हो। तुम आंख बंद करके ध्यान करने बैठे और कृष्ण खड़े हो गए, बांसुरी बजाने लगे, उठा कर तलवार दो टुकड़े कर देना। यह मैं नहीं, मैं तो देखने वाला हूं। जिस दिन ऐसा करते-करते, नेति-नेति, इनकार करते-करते, यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं, यह भी मैं नहीं, सब विषय खो जाएं, निर्विषय चित्त हो जाए, निर्विचार, निर्विकल्प, कोई विकल्प न रह जाए, परम सन्नाटा हो जाए, बस तुम अकेले रह जाओ जानने वाले और जानने को कुछ भी शेष न रहे--तो आ गए, पहुंच गए। तो साक्षी की यात्रा से चलने वाला परमात्मा को सामने नहीं देखेगा। साक्षी से चलने वाला अनुभव करेगा, मैं परमात्मा हूं। इसलिए उपनिषद कहते हैं: अहं ब्रह्मास्मि! वह साक्षी का मार्ग है। इसलिए मंसूर कहते हैं: अनलहक! मैं सत्य हूं! वह साक्षी का मार्ग है। साक्षी के मार्ग पर एक दिन जब सारा विकार शांत हो जाता है मन का, तो तुम स्वयं ही परमात्मा के उदघोष हो जाते हो। दूसरा मार्ग है--ठीक साक्षी से विपरीत। जिसको साक्षी नहीं जमता, उसे दूसरा जमेगा ही। दो ही तरह के लोग हैं। जैसे शरीर के तल पर स्त्री और पुरुष हैं, ऐसे ही चैतन्य के तल पर भी स्त्री और पुरुष हैं। पुरुष का अर्थ होता है साक्षी। ‘पुरुष’ शब्द का भी अर्थ साक्षी ही होता है। ‘पुरुष’ शब्द भी साक्षी-मार्ग का शब्द है। पुरुष-चित्त--और ध्यान रखना, जब मैं कहता हूं पुरुष-चित्त, तो मेरा मतलब यह नहीं है कि सभी पुरुष पुरुष हैं; बहुत पुरुष हैं कि जिनको कि पुरुष-चित्तता नहीं जमेगी। और जब मैं कहता हूं स्त्रियां, तो सभी स्त्रियां स्त्रियां हैं, ऐसा भी नहीं। बहुत सी स्त्रियां हैं जिनको साक्षीभाव जमेगा। इसलिए शरीर के तल पर जो भेद है, उससे मेरे भेद को मत बांध लेना। यह भीतर का भेद है। स्त्री-चित्त पुरुष में भी हो सकता है। पुरुष-चित्त स्त्री में भी हो सकता है। पर इनका भेद साफ है। स्त्री-चित्त--भक्ति, भाव, विस्मरण! फर्क: साक्षी में जो दिखाई पड़े, उसको काटना है, अलग करना है और केवल द्रष्टा को बचाना है। और भक्ति में जो दिखाई पड़ रहा है उसको बचाना है और द्रष्टा को डुबा देना है। दोनों बिलकुल अलग हैं, ठीक विपरीत हैं। कृष्ण खड़े हैं. मूर्ति कृष्ण की खड़ी हुई है भाव में, तो अपने को विसर्जित कर देना है और कृष्ण को बचा लेना है। अपना सारा प्राण उनमें उंड़ेल देना है। इस भांति प्राण उंड़ेल देना है कि कृष्ण की मूर्ति जीवंत हो उठे, तुम्हारे प्राणों से लहलहा उठे। अपने को इस भांति उंड़ेल देना है कि तुम्हारी ही प्राण-ऊर्जा कृष्ण की बांसुरी बजाने लगे। यही तो भक्त करता रहा। भक्त का मार्ग और साक्षी का मार्ग इतना भिन्न है कि दोनों की भाषाएं भी अलग-अलग हैं। भक्त कहता है: आत्म-विस्मरण, अपने को भूलो! मस्ती में, प्रभु-स्मरण में डुबाओ! अपने को इस भांति भूल जाओ जैसे शराबी भूल जाता है शराब में। परमात्मा का नाम बनाओ शराब। ढालो घर में शराब, इसे पीओ। हो जाओ मतवाले। अगर तुम्हें अड़चन आती हो साक्षीभाव में तो घबड़ाने की कोई जरूरत नहीं। भक्ति तुम्हारे लिए मार्ग होगा। मस्ती, मतवालापन. उस तरफ चलो। नाचो-गुनगुनाओ! हरिनाम में डूबो। यही दया का संदेश है यही सहजो का; यही मीरा का। भक्ति का मार्ग बहुत रंगभरा है। भक्ति का मार्ग वसंत का मार्ग है। खूब फूल खिलते हैं भक्ति के मार्ग पर। वीणा बजती है, मृदंगों पर थाप पड़ती है। भक्ति का मार्ग घूंघर का मार्ग है, नृत्य है, गान है, गीत है, प्रेम है, प्रीति है। और सारा प्रेम और प्रीति प्रभु-चरणों में समर्पित है। सारा प्रेम गागर भर-भर कर उसके चरणों में उंडेल देनी है। अपने को इस भांति उंड़ेल देना है कि पीछे कोई बचे ही नहीं। सब उंड़ल जाए तो पहुंचना हो जाए।जिनको भक्ति कठिन लगे उनके लिए साक्षी है। पहले तो भक्ति को ही तलाश लेना। क्योंकि भक्ति अधिक लोगों को सुगम मालूम पड़ेगी। रसपूर्ण भी है। जहां नाच कर पहुंचा जा सकता हो वहां चल कर क्या पहुंचना! जहां गीत गा कर पहुंचा जा सकता हो वहां उदास शक्लें लेकर क्या पहुंचना! जहां मृदंग को बजा कर उल्लास से पहुंचा जा सकता हो, जहां प्रफुल्लता साथ-संग रहे, वहां महात्मागिरी, विरागी, उस सबमें क्यों पड़ना! वह उनके लिए छोड़ दो जिनको भक्ति न जमती हो। भक्ति जम जाए, प्रेम जम जाए, तो सब जम गया; कुछ और जमाना नहीं।


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