केंद्र

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परिधि को बदलने से केंद्र नहीं बदलता। केंद्र की बदलाहट से परिधि अपने आप बदल जाती है; क्योंकि परिधि तुम्हारी छाया है। छाया को बदल कर कोई स्वयं को नहीं बदल सकता; लेकिन स्वयं बदल जाए तो छाया अपने आप बदल जाती है। यह जान लेना बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि अधिक लोग परिधि को बदलने में ही जीवन नष्ट कर देते हैं; आचरण को बदलने में सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। जब कि आचरण बदल भी जाए तो भी कुछ बदलता नहीं। तुम आचरण को कितना ही बदल लो, तुम तुम ही रहोगे। चोरी करते थे, साधु हो जाओगे; धन इकट्ठा करते थे, बांटने लगोगे; लेकिन तुम तुम ही रहोगे। और धन का मूल्य तुम्हारी आंखों में वही रहेगा; जो चोरी करते समय था, वही मूल्य दान करते समय रहेगा। चोरी करते समय तुम समझते थे कि धन बहुत कीमत का है, दान देते वक्त भी तुम समझोगे कि धन बहुत कीमत का है। धन मिट्टी नहीं हुआ। नहीं तो मिट्टी को कोई दान देता है! अगर धन सच में ही मिट्टी हो गया, तो तुम अपने कूड़े-कर्कट को दूसरे को देने जाओगे? और अगर कोई ले लेगा तुम्हारा धन, तो क्या तुम समझोगे कि तुमने उसे अनुगृहीत किया? क्या तुम चाहोगे कि वह तुम्हें लौट कर धन्यवाद दे? अगर धन सच में ही व्यर्थ हो गया, तो जो तुम्हारा धन स्वीकार कर ले, तुम ही उसके अनुगृहीत होओगे। तुम सोचोगे कि धन्यभाग मेरे कि इस आदमी ने कचरा लिया, इनकार न किया। लेकिन दानी ऐसा नहीं सोचता। एक पैसा भी दे देता है, तो उसका प्रतिकार चाहता है। एक मारवाड़ी की मृत्यु हुई। उसने सीधा जाकर स्वर्ग के द्वार पर दस्तक दी। और उसे पक्का भरोसा था कि द्वार खुलेगा; क्योंकि उसने दान किया था। द्वार खुला भी, द्वारपाल ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा; क्योंकि स्वर्गों में कृत्यों की पहचान नहीं है, व्यक्ति सीधे देखे जाते हैं। और द्वारपाल ने पूछा कि शायद भूल से आपने यहां दस्तक दे दी। वह जो सामने का दरवाजा है नरक का, वहां दस्तक दें। मारवाड़ी नाराज हुआ। उसने कहा, क्या खबर नहीं पहुंची? कल ही मैंने एक बूढ़ी औरत को दो पैसे दान दिए। और उसके भी एक दिन पहले एक अंधे अखबार बेचने वाले लड़के को मैंने एक पैसा दिया है। जब दान का दावा किया गया, तो द्वारपाल को खाता-बही खोलना पड़ा। अपने सहयोगी को उसने कहा कि देखो। तो वहां तीन पैसे मारवाड़ी के नाम लिखे थे। द्वारपाल चिंता में पड़ा। पूछा, कुछ और कभी किया है? मारवाड़ी ने कहा, और तो अभी इस समय कुछ याद नहीं आता। किया होता और याद न आता! जिसको तीन पैसे याद रहे, उसने किया होता और याद न आता! खाता-बही खोजा गया, बस वे तीन पैसे ही नाम लिखे थे। उन्हीं तीन पैसे के बल वह स्वर्ग के द्वार पर दस्तक दिया था अकड़ के साथ। द्वारपाल ने अपने साथी से पूछा, क्या करें इसके साथ? उसके साथी ने खीसे से तीन पैसे निकाले और कहा, इसको दे दो और कहो सामने के दरवाजे पर दस्तक दो। पैसों से कहीं स्वर्ग का द्वार खुला है! तुम चाहे पकड़ो पैसा और चाहे छोड़ो, दोनों ही हालत में मूल्य रूपांतरित नहीं होता। तुम चाहे संसार में रहो, चाहे भाग जाओ, संसार का मूल्य वही का वही बना रहता है। तुम पीठ करो कि मुंह, यात्रा में बहुत भेद नहीं पड़ता--जब तक कि तुम केंद्र से न बदल जाओ। आचरण नहीं, अंतस की क्रांति चाहिए। और जैसे ही अंतस बदलता है, सभी कुछ बदल जाता है। 

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