सलीका
जीते जाते हैं, मगर जीने का सलीका भी नहीं
हम किधर जाएं, किसे ढूंढें जो राजे-हयात कहे
दम घुटा जाता है बदबू में बीती यादों की
इस सड़न से भरे कमरे में क्यूं बयार चले
आंख खुलती नहीं ख्वाबों के धुओं के मारे
हाथ को हाथ नहीं सूझे क्या आफताब करे
दिन के हंगामों में तो वक्त गुजर जाता है
दिल का सूनापन खटकता है जरा रात गए
यूं तो सुन रक्खे हैं वाइज से पयम्बर के जवाब
हम ही बेअक्ल हैं जो न एक सवालात मिटे
सारी तरकीबें ताली में हिदायतें नाकाम
खुद को कैसे भला यह लफ्जों की बकवास छले
उलझनें बढ़ती चली जाती हैं हर रोज इधर
किसको फुरसत है जो कभी खुद पे खयालात करे
जिंदगी मुश्किल यहां मौत बहुत सस्ती है
बिन खरीदे ही लगा लेती अकस्मात गले
गम के बोझों से कमर झुकती चली जाती है
सांस टूटेगी लगता है इसी पहाड़ तले
जिंदगी है कि ये तूफान घिरा है कोई
सब तरफ मौत का सामान दिनो-रात सजे
"एक ऐसा संयोग, एक ऐसी जगह, जहां जीवन का राज समझ सकते हे। मगर उस राज को समझने की शर्त तो पूरी करनी होगी, शर्त एक ही है छोटी कहो, बड़ी कहो शर्त एक ही है: जीवन को निर्विचार होकर देखो कोई फलसफा बनाकर या कोई और दृष्टि से नही संपूर्ण साक्षी होकर।"
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