पृथकजन का अर्थ होता है जनता, भीड़ और प्रबुद्धजन का अर्थ होता है अपने होने में पूर्ण व्यक्ति, स्थितप्रज्ञ व्यक्ति। मैं जो कह रहा हूं उसे तो थोड़े से ही लोग समझ सकते हैं। इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। मगर उनकी भी तकलीफ समझो। उन पर दया करना। उन पर कठोर मत हो जाना। उनकी तकलीफ यह है कि उनकी समझने की आदतें बन गई हैं। और उन्होंने जिस ढंग से समझा है, उसी ढंग से तो समझेंगे न। यहां तो जिसकी लाठी उसकी भैंस। न्याय वगैरह का क्या सवाल है! एक दफा भैंस तुम्हारी है तो बस यही न्याय है। लाठी भर तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए। तुम देखते नहीं अभी, जनता की सरकार थी, वही अदालतें और मुकदमे पर मुकदमे! और अब सरकार बदल गई है, वही अदालतें हैं और सब मुकदमे गड़बड़ हुए जा रहे हैं, सब मुकदमे गिरे जा रहे हैं। वही अदालतें कह रही हैं कि ये मुकदमे ठीक ही नहीं, इनमें कोई जान ही नहीं। यह मजा तुम देखते हो! जरा आंख खोल कर देखते हो, हो क्या रहा है! जिसकी लाठी उसकी भैंस। लाठी बड़ी होनी चाहिए, तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए। ये न्यायाधीश इत्यादि वगैरह सब भैंसें हैं, इनका कोई मूल्य नहीं। कानून वगैरह का कोई अर्थ नहीं। लाठी तुम्हारे हाथ में होनी चाहिए, सब तुम्हारे साथ हैं। मैं जो कह रहा हूं, वह कोई राजनीति तो नहीं है। लोग राजनीति की भाषा समझते हैं, धर्म की भाषा नहीं समझ सकते। और लोगों को सदियों से धर्म के नाम पर राजनीति ही घोंट-घोंट कर पिलाई गई है और वे उसी को धर्म समझने लगे हैं। और धर्म बड़ी और बात है।मैं कह रहा हूं कि धर्म विद्रोह है, आज्ञाकारिता नहीं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आज्ञा मानो ही मत, कि कोई ठीक भी कहे तो मत मानना। ठीक हो तो मानना, लेकिन निर्णायक सदा तुम हो, तुम्हारा विवेक निर्णायक है। ठीक हो तो मानना, गलत हो तो मत मानना। मुझसे अनेक लोग आकर पूछते हैं: आप सब पर बोले, कृष्ण पर, महावीर पर, बुद्ध पर, जीसस पर, लाओत्सु पर, कबीर पर, नानक पर; आप राम पर क्यों नहीं बोलते? राम पर मैं नहीं बोल सकता हूं, क्योंकि राम में मुझे कुछ धर्म नहीं दिखाई पड़ता। बगावत की चिनगारी ही नहीं है। क्रांति का कण नहीं है। जैसे कि सदियों से तुम्हें कहा गया है कि राम मर्यादा-पुरुषोत्तम हैं, क्योंकि उन्होंने एक टुच्चे धोबी को सुनकर अपनी धर्म पत्नी की अग्नि परीक्षा ली उस धोबी की आज्ञा मानी अपनी धर्म पत्नी की धार्मिकता का भरोसा न किया क्युकी उस धोबी ने कह दिया कि मुझे शक है अपनी पत्नी पर, कि मैं कोई राजा रामचंद्र थोड़े ही हूं कि तू रात भर कहीं भी रही और सुबह लौट आई और मैं घर में रख लूं। बस, यह धोबी का कहना काफी है; सीता को निकाल बाहर कर दो! पत्नी का कोई मूल्य नहीं है, कोई कीमत नहीं है! गर्भवती स्त्री का कोई मूल्य नहीं है, कोई कीमत नहीं है! यह मर्यादा है किसी भी ढंग से ? फिर हम लक्ष्मण की भी खूब प्रशंसा करते हैं कि पत्नी को छोड़ कर, अभी-अभी विवाहित पत्नी और उसको छोड़ कर भाई के पीछे चल पड़ा--सेवा करने के लिए। बड़ा भाई! तो बड़े भाई के लिए पत्नी की कुर्बानी दे दो। तो लक्ष्मण भी बड़े कीमती! वे भी कुर्बानी देने को तैयार हैं! पत्नी को उन्होंने चढ़ा दिया कुर्बानी पर। उर्मिला की कोई चर्चा ही नहीं होती। उर्मिला बेचारी का कोई हिसाब-किताब ही रखता नहीं, कि उस गरीब पर क्या गुजरी! यह कोई शिष्ट आचरण हुआ! जिस पत्नी को अभी विवाहित करके लाए थे, उस स्त्री के साथ यह सीधा अनाचार है। मगर स्त्री का कोई मूल्य ही नहीं था, उसकी दो कौड़ी कीमत नहीं है। वह तो पैर की जूती है, जब दिल हुआ पहन लिया, जब दिल हुआ उतार दिया! ये सब धार्मिक बातें हो रही हैं! और इनको तुम्हें इतनी सदियों से पिलाया गया है।
एक सट्टेबाज अखबार में तिजारती भाव का कालम पढ़ने में मग्न था। तभी धड़ाम से सीढ़ियों पर से लुढ़क कर उसकी पत्नी गिर पड़ी। सटोरिए के मुनीम ने चिल्ला कर कहा: जनाब, आपकी बीवी नीचे गिर गई। सटोरिए ने एकदम घबड़ा कर जवाब दिया: देर मत करो, तुरंत बेच दो! सटोरिए को तो कोई चीज नीचे गिरे बेचो! सटोरिए की अपनी दुनिया है, अपने सोचने के ढंग हैं।
एक मारवाड़ी की नौकरानी भागी हुई आई और उसने कहा: मालिक-मालिक! आपकी पत्नी का बाथरूम में हार्टफेल हो गया। मारवाड़ी एकदम भागा! बाथरूम की तरफ नहीं, चौके की तरफ। नौकरानी ने कहा: मालिक, आप होश में हैं? मालकिन बाथरूम में गिर पड़ी हैं धड़ाम से! वहां उनका हार्टफेल हो गया है। आप कहां जा रहे हैं? अरे! उसने कहा: तू चुप रह! वह भाग कर एकदम पहुंचा और रसोइए से कहा: सुन, आज एक के लिए ही नाश्ता बनाना, तेरी मालकिन नहीं रही! मारवाड़ी अपने ढंग से सोचेगा।
सबके अपने अपने ढंग हे सोचने के और ये बाते अगर तुम्हें बगावत लगे और अगर तुमको घबड़ाहट हो, बेचैनी हो, आश्चर्य नहीं है। तुम्हारे सोचने के ढंग निर्णायक हो गए हैं अब, बंध गए हैं बिलकुल लकीरों की तरह। उनमें मेरी बात नहीं बैठ सकती है। या तो तुम्हें अपनी लकीरें छोड़नी पड़ें, लीक छोड़नी पड़े, तो तुम मुझे समझ सकते हो; नहीं तो कोई उपाय नहीं है। ये बाते पृथकजनों के लिए नहीं है, हो नहीं सकती। यह बाते प्रबुद्धजनो के लिए है।इसलिए बुद्ध निरंतर कहते थे कि जो आर्य हैं--आर्य का मतलब, जो श्रेष्ठ हैं, जो बुद्धिमान हैं, जो सोच-विचार में कुशल हैं, जिनके जीवन में प्रतिभा है, मेधा हे वे ही केवल समझ सकते हैं धर्म को।
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