आलय-विज्ञान

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संकल्प है हमारे मन की अभीप्सा का स्रोत। संकल्प अर्थात विल। इसे थोड़ा समझ लें तो आगे की बात खयाल में आ सके। इच्छा तो हमारे मन में सबको होती है--डिजायर, वासनाएं। लेकिन वासना तब तक संकल्प नहीं बनती, जब तक वासना से अहंकार जुड़ न जाए। वासना+अहंकार संकल्प बन जाता है। वासना तो सभी लोग करते हैं, लेकिन अगर अपने अहंकार से वासना को न जोड़ पाएं तो वासना सिर्फ स्वप्न बनकर रह जाती है। वह कर्म नहीं बन पाती। कर्म बनने के लिए तो अहंकार जुड़ जाना चाहिए। अहंकार जुड़ जाए वासना में तो संकल्प निर्मित होता है। फिर किसी कर्म को करने की अहंता और अस्मिता निर्मित होती है। फिर कर्ता बनने का भाव निर्मित होता है। वासना के साथ जैसे ही अहंकार जुड़ा कि आप कर्ता बने। 


वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्‌।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर

दो क्षणों में यह सूत्र सार्थक हो सकता है--मृत्यु के क्षण में या समाधि के क्षण में। सूत्र कह रहा है, हे मेरे संकल्पात्मक मन! यहां ईश्वर का कोई सवाल ही नहीं है। और ऋषि यह तो कह ही नहीं रहा है कि मेरे किए हुए कर्मों को जो मैंने तेरे लिए किए, मेरे किए हुए त्यागों को जो मैंने तेरे लिए किए, उनका स्मरण रखना! लेकिन हमारी जो व्यवसायात्मक बुद्धि है, वह जो बिजनेस माइंड है, वह शायद यही अर्थ कर पाएगा। कहेगा, मरने का क्षण करीब आ गया, मैंने दान किया था, मंदिर बनवाया था, तालाब का पाट बनवाया था, स्मरण रखना! हे प्रभु, मैंने जो-जो कर्म किए थे तेरे लिए, जो-जो त्याग किए थे, अब घड़ी आ गई, अब मुझे ठीक से उनका फल दे देना, प्रतिफल दे देना। साधारणतः हम सोचते हैं कि शरीर हमारा पहले आता है, फिर उसके भीतर मन जन्म लेता है। और विगत सौ दो सौ वर्षों की पश्चिम की चिंतना और धारणा ने सारी दुनिया में यह भ्रांति फैला दी है कि शरीर पहले निर्मित होता है, फिर शरीर के भीतर से मन जन्मता है। वह बाई प्रोडक्ट है, इपिफिनामिना है। वह शरीर का ही एक गुण है। मनुष्य का शरीर निर्मित होता है पंच भूतों से और उन पंच भूतों के मिलन से मन निर्मित होता है। मन एक बाई प्रोडक्ट है। पश्चिम का विज्ञान भी फिलहाल अभी जैसे अज्ञान की स्थिति में है, उसमें वह भी मानता है कि मन जो है, वह शरीर के पीछे पैदा हो गई एक छाया मात्र है। लेकिन पूरब में, जिन्होंने बहुत गहरी खोज की है, उनका कहना है कि मन पहले है और शरीर उसके पीछे छाया की तरह निर्मित होता है। पहले आपके जीवन में कर्म आता है या पहले वासना आती है? पहले आती है वासना मन में, फिर बनता है कर्म। लेकिन बाहर से कोई अगर देखेगा तो पहले दिखाई पड़ता है कर्म और वासना का अनुमान करना पड़ता है। मेरे भीतर आया क्रोध, मैंने आपको उठकर चांटा मार दिया। क्रोध मेरे भीतर पहले आया--मन पहले--फिर हाथ उठा, शरीर ने कृत्य किया। लेकिन आपको पहले दिखाई पड़ेगा मेरा हाथ और चांटे का पड़ना, पीछे आप सोचेंगे कि जरूर इस आदमी को क्रोध आ गया। पहले शारीरिक घटना दिखाई पड़ेगी, पीछे मन का अनुमान होगा। लेकिन वास्तविक जगत में पहले मन निर्मित होता है, पीछे वास्तविक घटना घटती हुई मालूम होती है। शरीर तो गिर जाता है हर मृत्यु में, लेकिन मन चलता चला जाता है। तो आपके शरीर की उम्र हो सकती है पचास साल हो, लेकिन आपके मन की उम्र पचास लाख साल हो सकती है। आपने जितने जन्म लिए हैं, उन सभी मनों का संग्रह आपके भीतर आज भी मौजूद है, अभी भी मौजूद है। बुद्ध ने उसे बहुत अच्छा नाम दिया है। पहला नाम बुद्ध ने ही उसको दिया। उसे उन्होंने नाम दिया, आलय-विज्ञान। आलय-विज्ञान का अर्थ होता है, स्टोर हाउस आफ कांशसनेस। स्टोर हाउस की तरह आपने जितने भी जन्म लिए हैं, वे सभी स्मृतियां आपके भीतर संगृहीत हैं। आप खयाल रख लें कि समाधि शब्द बड़ा अच्छा है। कब्र के लिए भी कभी आप समाधि बोलते हैं। साधु मर जाता है तो उसकी कब्र को समाधि कहते हैं। सच है यह बात। समाधि एक तरह की मृत्यु है। बड़ी गहरी मृत्यु है। शरीर तो शायद वही रह जाता है, लेकिन भीतर जो मन था वह विनष्ट हो जाता है।उस मन के विनष्ट होने के क्षण में ऋषि कह रहा है कि हे मेरे संकल्पात्मक मन, अपने किए हुए का स्मरण कर, अपने किए हुए का स्मरण कर, उस आलय-विज्ञान में जा और संकल्प कर, मन सदा कहता है कि अगर संकल्प न रहा तो मिट जाओगे। टिक न पाओगे जिंदगी के संघर्ष में। अगर अहंकार न रहा तो खो जाओगे। बच न सकोगे, सरवाइवल न होगा। मन सदा कहता है--पुरुषार्थ करो, संकल्प करो, लड़ो। नहीं लड़ोगे तो बचोगे नहीं। संघर्ष नहीं करोगे तो मिट जाओगे। निश्चित, ऋषि आज मजाक करे तो स्वाभाविक है। वह मन से कहे कि तू तो खुद मिटा जा रहा है, लेकिन मैं तो पूरा का पूरा शेष हूं। तू खो रहा है, मैं नहीं खो रहा हूं। लेकिन अब तक तूने यही धोखा दिया था कि तू नहीं होगा तो मैं नहीं बचूंगा। आज तू तो जा रहा है और मैं बच रहा हूं, यही बिना अहंकार का संकल्प है जहा में न होकर भी में बच रहा है। इसलिए ऋषि कहता है, हे मेरे संकल्पात्मक मन, कितने धोखे, कितनी प्रवंचनाएं तूने दीं। अब तू उन सबका एक बार स्मरण कर। एक बार स्मरण कर ले, जो तूने किया, जो तू सोचता था, कर रहा है। जिसका तू कर्ता बना था। और आज तू समाप्त हुआ जाता है, शून्य हुआ जाता है, मिटा जाता है। समाधि के द्वार पर मन शून्य हो जाता है, विचार बंद हो जाते हैं, चित्त के कल्प-विकल्प विलीन हो जाते हैं। चित्त की तरंगें निस्तरंग हो जाती हैं। मन होता ही नहीं। जहां मन नहीं है, वहीं समाधि है। मैंने कहा कि समाधि का एक अर्थ तो साधु मर जाए तो उसकी कब्र को हम कहते हैं समाधि। समाधि का दूसरा अर्थ है, समाधि का अर्थ है, जहां समाधान है। जहां कोई समस्या नहीं है। यह भी बड़े मजे की बात है कि जहां मन है, वहां समस्या और समस्या और समस्या--समाधान कभी भी नहीं है। मन समस्याओं को पैदा करने की बड़ी कीमिया है। जैसे वृक्षों पर पत्ते लगते हैं, ऐसे मन में समस्याएं लगती हैं। समाधान कभी नहीं लगता। मन के तल पर कोई समाधान कभी भी नहीं है। जहां मन खो जाता है वहां समाधान है। मन का कभी समाधान नहीं होता। मन नहीं होता, तब समाधान होता है। इसलिए कहते हैं उसे समाधि। जहां सब समाधान आ गया, जहां कोई समस्या न रही। जब तक मन है, तब तक समस्या बनाए ही चला जाएगा। एक समस्या हल करेंगे, दूसरी समस्या निर्मित करेगा। और एक समाधान अगर कोई देगा, तो दस समस्याएं उस समाधान में से निर्मित करेगा। बुद्ध को जिस दिन ज्ञान हुआ, उन्होंने एक अदभुत बात कही। जिस दिन पहली बार उनका मन मिटा और वह मन-शून्य दशा में प्रविष्ट हुए, उस दिन उन्होंने भी ठीक ऐसी ही बात कही, जैसा उपनिषद के इस ऋषि ने कही है। उन्होंने कहा कि मेरे मन, अब तुझे विदा देता हूं। अब तक तेरी जरूरत थी, क्योंकि मुझे शरीर रूपी घर बनाने थे। लेकिन अब मुझे शरीर रूपी घर बनाने की कोई जरूरत न रही, अब तू जा सकता है। अब तक मुझे जरूरत थी, शरीर बनाना पड़ता था, तो वह मन के आर्किटेक्ट को, वह मन के इंजीनियर को पुकारना पड़ता था। उसके बिना कोई शरीर का घर नहीं बन सकता था। आज तुझे विदा देता हूं, क्योंकि अब मुझे शरीर के बनाने की कोई जरूरत न रही। अब मुझे अपना परम निवास मिल गया है, अब मुझे कोई घर बनाने की जरूरत न रही। अब मैं वहीं पहुंच गया हूं, जो मेरा घर है। अब मुझे बनाने की कोई जरूरत न रही। अब मैं असृष्ट स्वरूप के घर में पहुंच गया हूं। स्वयं में पहुंच गया हूं, निजता में, अब मुझे कोई घर बनाने की जरूरत न रही। अब मन तू जा सकता है।

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