विषादयोग

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योग के बहुत अर्थ हैं। और योग के ऐसे भी अर्थ हैं, जो साधारणतः योग से हमारी धारणा है, उसके ठीक विपरीत हैं। यह ठीक ही सवाल है कि विषाद कैसे योग हो सकता है? आनंद योग हो सकता है; विषाद कैसे योग हो सकता है?लेकिन विषाद इसलिए योग हो सकता है कि वह आनंद का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है, वह आनंद ही सिर के बल खड़ा है। आप अपने पैर के बल खड़े हों, तो भी आदमी हैं, और सिर के बल खड़े हो जाएं, तो भी आदमी हैं। जिसको हम स्वभाव से विपरीत जाना कहते हैं, वह भी स्वभाव का उलटा खड़ा हो जाना है, इनवर्शन है। जिसको हम विक्षिप्तता कहते हैं, वह भी स्वभाव का विकृत हो जाना है, परवर्शन है। लेकिन है स्वभाव ही। सोने में मिट्टी मिल जाए, तो अशुद्ध सोना ही कहना पड़ता है। अशुद्ध है, इसलिए पूछा जा सकता है कि जो अशुद्ध है, उसे सोना क्यों कह रहे हैं? लेकिन सोना ही कहना पड़ेगा। अशुद्ध होकर भी सोना है। और इसलिए भी सोना कहना पड़ेगा कि अशुद्धि जल सकती है और सोना वापस सोना हो सकता है। विषादयोग इसलिए कह रहे हैं कि विषाद है, विषाद जल सकता है, योग बच सकता है। आनंद की यात्रा हो सकती है। कोई भी इतने विषाद को उपलब्ध नहीं हो गया कि स्वरूप को वापस लौट न सके। विषाद की गहरी से गहरी अवस्था में भी स्वरूप तक लौटने की पगडंडी शेष है। उस पगडंडी के स्मरण के लिए ही योग कह रहे हैं। और वह जो विषाद है, वह भी इसीलिए हो रहा है। विषाद क्यों हो रहा है? एक पत्थर को विषाद नहीं होता। नहीं होता, इसलिए कि उसे आनंद भी नहीं हो सकता है। विषाद हो इसलिए रहा है, वह भी एक गहरे अर्थ में आनंद का स्मरण है। इसलिए विषाद हो रहा है। वह भी इस बात का स्मरण है, गहरे में चेतना कहीं जान रही है कि जो मैं हो सकता हूं, वह नहीं हो पा रहा हूं; जो मैं पा सकता हूं, वह मैं नहीं पा रहा हूं। जो संभव है, वह संभव नहीं हो पा रहा है, इसलिए विषाद हो रहा है।

इसलिए जितना ही प्रतिभाशाली व्यक्तित्व होगा, उतने ही गहरे विषाद में उतरेगा। सिर्फ जड़-बुद्धि विषाद को उपलब्ध नहीं होते हैं। क्योंकि जड़-बुद्धि को तुलना का उपाय भी नहीं होता; उसे यह भी खयाल नहीं होता कि मैं क्या हो सकता हूं। जिसे यह खयाल है कि मैं क्या हो सकता हूं, जिसे यह खयाल है कि आनंद संभव है, उसके विषाद की कालिमा बढ़ जाएगी; उसे विषाद ज्यादा गहरा दिखाई पड़ेगा। 

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