स्वच्छंद
‘बुद्धि हेतुः प्रवृत्तिः अविशुद्धेः अवधातवत्।’ शांडिल्य
‘जब तक धान पर छिलका रहता है तभी तक धान को मूसल द्वारा कूटा जाता है।’ जब धान का छिलका उतर जाता है, तो फिर उसे कोई नहीं कूटता। क्या हे छिलका, जिसकी वजह से तुम्हें अशुद्धि हो रही है और शुद्ध नहीं हो पा रहे हो?अहंकार छिलका है। अहंकार ने तुम्हारी आत्मा को घेरा है। जब तक अहंकार है, तब तक बहुत कूटे जाओगे। जिस दिन अहंकार नहीं रहा, उस दिन कूटने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी। इसलिए भक्त कहता है: न तो कोई योग है, न कोई ध्यान है, सिर्फ शरणागति। अहंकार को छोड़ दो तो धान ने अपना छिलका छोड़ दिया, फिर कूटने की कोई जरूरत नहीं रही। ये जिनको तुम तपस्वी कहते हो, ये क्या कर रहे हैं? ये मूसल से अपने को कूट रहे हैं। तुम्हें इन पर दया भी आती है, सम्मान भी आता है कि बिचारे कितना कष्ट उठा रहे हैं! इनका कष्ट देख कर तुम इनके चरण छूने भी जाते हो, आदर देने भी जाते हो। मगर ये व्यर्थ कष्ट उठा रहे हैं। और इनके कष्ट उठाने से छिलका कटता नहीं। मजा यह है, यह कोई साधारण धान नहीं है कि मूसल से कूटा और छिलका निकल जाए। यह आदमी है, आदमी बड़ी उलझी हुई धान है। जितना कूटो, छिलका और चिपकता है। तो तुम अपने त्यागियों में जितना अहंकार पाओगे, उतना भोगियों में नहीं होता। जो आदमी शराबघर जाता है रोज, वह विनम्र होता है। विनम्र इसलिए होता है कि अहंकार करने का है ही क्या? हमेशा सिर झुकाए रहता है, कहता है--हां, पापी हूं, क्षुद्र हूं, तुच्छ हूं, किसी योग्य नहीं हूं, आपके सामने आंख भी उठाऊं इस योग्य भी नहीं हूं। यह विनम्र होता है। लेकिन जो आदमी रोज मंदिर जाता है, उसकी छाती अकड़ जाती है, उसकी रीढ़ एकदम सीधी हो जाती है। वह अकड़ कर चलता है। वह चारों तरफ देख कर चलता है कि देखो, मैं मंदिर गया! देखो, मैं मंदिर से आ रहा हूं! और तुम सब पापी क्या कर रहे हो? जिसने एकाध दिन उपवास कर लिया, वह दूसरे दिन बाजार में इस तरह घूमता है जैसे उसने कोई संपदा इकट्ठी कर ली। जरा सा किसी ने त्याग कर दिया, कुछ दान दे दिया कि उसका अहंकार बढ़ा। तुम अपने योगियों को, अपने महात्माओं को जितने अहंकार से भरा हुआ पाओगे, उतने तुम साधारणजनों को न पाओगे। तुम्हारे साधारणजन ज्यादा धार्मिक हैं। मैं दोनों से परिचित हूं। जिसको तुम साधारणजन कहते हो, वह परमात्मा के ज्यादा करीब मालूम पड़ता है। तुम्हारा महात्मा तो भयंकर अहंकार से ग्रस्त है। यह धान ऐसी है आदमी की कि इसको मूसल से कूटो तो छिलका और चिपक जाता है। अगर बहुत कूटो तो धान तो समाप्त हो जाती है, छिलका ही छिलका रह जाता है। छूंछा अहंकार।शांडिल्य कहते हैं: ‘इसी प्रकार बुद्धि संबंधी प्रवृत्तियां तभी तक रहती हैं, जब तक चित्त शुद्ध नहीं हो पाता।’ लेकिन चित्त शुद्ध कैसे होगा? शुद्ध कौन करेगा? इसको मैं फिर दोहरा दूं, शुद्ध कौन करेगा? तुम शुद्ध करोगे! तुम्हीं तो अशुद्ध हो! यह ऐसे ही है, जैसे कोई आदमी अपने ही पेट को खोल ले और आपरेशन करे। कितना ही बड़ा सर्जन हो, अपना ही पेट नहीं खोलेगा। कितना ही बड़ा, कितना ही कुशल सर्जन हो और हजारों लोगों की अपेंडिक्स निकाली हो, तो भी अपनी अपेंडिक्स नहीं निकालेगा। क्योंकि वह प्रक्रिया तो घातक है। किसी को पुकारना पड़ेगा। और जब पुकारना ही हो, तो परमात्मा से छोटे को क्यों पुकारना? छोटे से क्यों राजी होना? उस महाचिकित्सक को बुलाओ, उस परमवैद्य को उतरने दो। उसकी मौजूदगी तुम्हें स्वस्थ कर जाएगी, तुम्हारे घाव भर जाएगी। जो गलत है, ले जाएगी; जो सही है, दे जाएगी। कभी-कभी किसी क्षण में, जिसे तुमने प्रेम किया है उसमें परमात्मा की झलक निश्चित मिलती है। नहीं तो प्रेम ही नहीं किया होता। प्रेम ही हम परमात्मा को करते हैं, झलक उसकी कहीं भी मिली हो। झलक ही मिलती है; खो-खो जाती है, फिर अंधेरा घना हो जाता है; इससे क्या फर्क पड़ता है? भक्त कहता है: इस तरह प्रेम करना कि जहां तुम्हारा प्रेम हो, वहीं से प्रार्थना का अनुभव शुरू हो जाए। पत्नी इस तरह चाही जा सकती है कि पत्नी परमात्मा की मौजूदगी बन जाए। पति इस तरह चाहा जा सकता है, पति के साथ इस तरह की लीनता हो सकती है कि पति के साथ, उसका संग प्रार्थना की झलक लाने लगे। मां अपने बेटे को इस भांति चाह सकती है कि हर बेटा कृष्ण बन जाए। भक्त कहता है: जीवन को रूपांतरण करना है, त्यागना नहीं है। आंख खोल कर ठीक से देखना है, यहां सब तरफ भगवान छिपा है, उसे पुकारना है। भक्ति अखंड है। उसमें अंग नहीं हैं, खंड नहीं हैं। इसका परम अर्थ होता है कि भक्त सब विधि-निषेधों से मुक्त।जिसको अष्टावक्र ने कहा है स्वच्छंदता, वह भक्त की परम दशा है। भक्त स्वच्छंद होता है। घबड़ा मत जाना शब्द स्वच्छंद से; क्योंकि तुमने उसका जो अर्थ सुना है, वह गलत है। तुमने स्वच्छंद से अर्थ समझ लिया--उच्छृंखल। तुमने स्वच्छंद का अर्थ समझ लिया है जो कुछ भी करता है उलटा-सीधा। नहीं, स्वच्छंद का वह अर्थ नहीं है। स्वच्छंद का अर्थ होता है: जो भीतर के छंद से जीता है, स्वयं के छंद से जीता है।
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