निष्प्रश्न अनुभव



हृदय में प्रश्न नहीं होते, सिर्फ अनुभव होते हैं। और मस्तिष्क में सिर्फ प्रश्न होते हैं, अनुभव नहीं होते। यह मस्तिष्क की तरफ से बाधा है। उन क्षणों में, जहां विचार रुक जाते हैं, वहां भी संदेश खोजोगे? तो तुम विचार की खोज में लग गए। जहां विचार थम जाते हैं, अब प्रश्न मत बनाओ, नहीं तो ध्यान से गिरे और चूके। अब तो निष्प्रश्न डुबकी मारो। ये सब ध्यान के बहाने हैं। उगता सूरज सुबह का, प्राची लाल हो गई, पक्षियों के गान फूट पड़े, बंद कलियां खुलने लगीं--सब सुंदर है! सब अपूर्व है! सब अभिनव है! इस क्षण अगर तुम्हारा हृदय आंदोलित हो उठे, तो अब पूछो मत कि ऐसा क्यों हो रहा है! क्योंकि तुमने ‘क्यों’ पूछा कि मस्तिष्क आया। और मस्तिष्क आया कि हृदय का आंदोलन समाप्त हुआ। तुमने रात देखी तारों-भरी, विराट आकाश देखा, कुछ तुम्हारे भीतर स्तब्ध हो गया, विमुग्ध हो गया, विस्मय-लीन हो गया। डूब जाओ! मारो डुबकी! छोड़ो सब प्रश्न! अब यह मत पूछो कि इसका संदेश क्या है। ये सब बातें व्यर्थ की हैं। यह शून्य ही संदेश है। यह मौन ही संदेश है। यह विस्मय-विमुग्ध भाव ही संदेश है। और क्या संदेश? तुम चाहते हो कोई आयत उतरे, कि कोई ऋचा बने, कि शब्द सुनाई पड़ें, कि परमात्मा तुमसे कुछ बोले, कि सुनो, यह रहा संदेश? वह सब फिर तुम्हारा मन ही बोलेगा। चूक गए। आ गए थे मंदिर के द्वार के करीब और चूक गए। प्रश्न उठा कि द्वार बंद हो गया। निष्प्रश्न रहो तो द्वार खुला है। उसी को तो मैं ध्यान कह रहा हूं, जब सब थम जाता है। एक क्षण को कोई तरंग नहीं रह जाती--विचार की, वासना की, स्मृति की, कल्पना की। एक क्षण को न समय होता है, न स्थान होता है। एक क्षण को तुम किसी और लोक, किसी और आयाम में प्रविष्ट हो जाते हो। तुम कहीं और होते हो। एक क्षण को तुम होते ही नहीं, कोई और होता है! यही तो ध्यान है। और ध्यान साधन नहीं है, साध्य है। ध्यान किसी और चीज के लिए रास्ता नहीं है, ध्यान मंजिल है। अस्तित्व का संदेश अगर कुछ है तो शून्य है, मौन है; शब्द नहीं। 

चांद और चांदनी का मिलन देख आने लगा,
जिंदगी का थका कारवां
सैकड़ों कंठ से प्यार के गीत गाने लगा।

रात का बंद नीलम किवाड़ा डुला,
लो क्षितिज-छोर पर देव-मंदिर खुला,
हर नगर झिलमिला हर डगर को खिला,
हर बटोही जला ज्योति प्लावन चला;
कट गया शाप, बीती विरह की अवधि,
ज्वार की सीढ़ियों पर खड़ा हो जलधि,
अंजलि अश्रु भर-भर किसी यक्ष-सा,
प्यार के देवता पर चढ़ाने लगा।

आरती थाल ले नाचती हर लहर,
हर हवा बीन अपना बजाने लगी,
हर कली अंग अपना सजाने लगी,
हर अली आरसी में लजाने लगी,
हर दिशा तक भुजाएं बढ़ाता हुआ,
हर जलद से संदेशा पठाता हुआ,
विश्व का हर झरोखा दिया बाल कर,
पास अपने पिया को बुलाने लगा।

ज्योति की ओढ़नी के तले लो तिमिर
की युवा आज फिर साधना हो गई,
स्नेह की बूंद में डूब कर प्राण की
वासना आज आराधना हो गई;
आह री! यह सृजन की मधुर वेदना,
जन्म लेती हुई यह नयी चेतना,
भूमि को बांह भर काल की राह पर,
आसमां पांव अपने बढ़ाने लगा।
यह सफर का नहीं अंत विश्राम रे,
दूर है दूर अपना बहुत ग्राम रे,
स्वप्न कितने अभी हैं अधूरे पड़े,
जिंदगी में अभी तो बहुत काम रे;
मुस्कुराते चलो, गुनगुनाते चलो,
आफतों बीच मस्तक उठाते चलो,

जब ऐसी शुभ घड़ियां आएं तो प्रश्न जैसी क्षुद्र बातें मत उठाओ। तब थोड़े निष्प्रश्न अनुभव का रस लो।

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