अस्तित्व

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अर्थशास्त्री कहते हैं: नकली सिक्के की एक खूबी है, वह असली सिक्के को चलन के बाहर कर देता है। अधर्म धर्म के विपरीत नहीं है। अंधविश्वासी धर्म धर्म के विपरीत है। अधर्म धर्म का बाल बांका नहीं कर सकता। क्या करेगा? अधर्म की औकात क्या? लेकिन अंधविश्वासी धर्म धर्म को बर्बाद कर देता है, घुन की तरह लग जाता है। नकली सिक्का असली सिक्के को डुबो देता है। लेकिन जो सिक्का ही नहीं है, वह कहीं असली सिक्के को डुबो सकता है? नकली सिक्के से सावधान रहना, क्योंकि नकली सिक्का असली खतरा है असली सिक्के को। अर्थशास्त्री इन सिक्कों का सिद्धांत इसी अनुभव के आधार पर खोजे हैं। यह सिद्धांत बड़ा सच्चा है। यह जीवन के हर पहलू पर लागू होता है। नकली सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं। तुम्हारी जेब में दो नोट हैं--एक दस का असली नोट, एक दस का नकली नोट। पहले तुम कौन सा चलाओगे? पहले तुम नकली चलाओगे, क्योंकि नकली से जितनी जल्दी छुटकारा हो जाए अच्छा। सिगरेट खरीद लोगे, पान खरीद लोगे, सब्जी खरीद लोगे। ठहराओगे भी नहीं, दाम भी नहीं करोगे, मोल-भाव भी नहीं। जान भी रहे होओगे कि रुपये के सवा रुपये मांग रहा है, मांगने दो, जल्दी से निपटाओ; देर-दार की और कहीं वह नकली दस का नोट पहचान न ले! और अगर समाज में बहुत नकली रुपये चल रहे हों तो असली रुपये तिजोड़ियों में बंद हो जाते हैं और नकली चलते रहते हैं। नकली का चलन होता है, असली चलन के बाहर हो जाते हैं। यही हुआ है धर्म के जगत में। नकली धर्म ने धर्म को मारा है, अधर्म ने नहीं। अधर्म क्या मारेगा! अंधेरा नहीं मार सकता है रोशनी को, खयाल रखना। तुमने कभी देखा, कि ले आए पोटली भर कर अंधेरा और डाल दिया दीये पर और दीया बुझ गया? जरा करके तो देखो! अंधेरे को ला सकते हो पोटली में बांध कर कि टोकरी में भर कर? अंधेरे को ला ही नहीं सकते पोटली में बांध कर। चले जाओ खूब अंधेरी रात में, दूर से दूर घने जंगल में और जहां अंधेरा बिलकुल सघन हो, बांध लो पोटली में। घर आओगे, खाली पोटली पाओगे। अंधेरा पोटली में नहीं बंधता। और दीये पर डालोगे, दीया भी खिलखिला कर हंसेगा कि यह क्या कर रहे हो? कुछ होश है? दीये को कहीं बुझाया जा सकता है नकली, थोथे, अस्तित्वहीन अंधेरे से?  दीये को अगर तुम्हें झंझट में डालना है तो अंधेरे से नहीं मिटा सकते। हां, दीये की एक तस्वीर ले आओ और घर में टांग लो और बच्चों को कहो कि यह है असली दीया! सुंदर तस्वीर! रंगीन तस्वीर! ज्योति भी है, किरणें भी फूट रही हैं। दीये से भी ऐसी किरणें फूटती साफ-साफ नहीं दिखाई पड़तीं जैसी कि तस्वीर में दिखाई पड़ रही हैं। हां, तस्वीर टांग लो और बच्चों को कहो कि यह है दीया! यह कोई साधारण दीया नहीं है। जब बड़े हो जाओगे, तब तुम पहचानोगे। बड़े होकर वे भी अपने बच्चों को यही कहेंगे, क्योंकि बच्चों के सामने कोई बूढ़ा यह स्वीकार नहीं करना चाहता कि मैं जिंदगी भर अज्ञान में रहा। इससे अहंकार को चोट लगती है। काश दुनिया के बूढ़े ईमानदारी से स्वीकार कर लें कि हम अज्ञान में जीए, तो इस दुनिया से अज्ञान का डेरा उठ जाए! मगर बूढ़ों का अहंकार बड़ा होता चला जाता है। वे जो भी करते रहे, उसी का पोषण करते हैं। उससे उन्हें कुछ भी न मिला हो, मगर उसी का पोषण करते हैं। कारण? अहंकार। इतनी जिंदगी, कोई हम बुद्धू हैं? हम कोई पागल हैं? हमने जिंदगी ऐसे ही गंवाई? अब कैसे स्वीकार करें कि हम पत्थर की मूर्ति के सामने सिर पटकते रहे, वहां कुछ भी न था, पत्थर था! सिर जरूर काला पड़ गया, और कुछ भी न हुआ! कि हम घोंटते रहे किताबें, जिनमें शब्द थे, और कुछ भी न था! किताबों में कहीं सत्य होते हैं? सत्य खोजने होते हैं चैतन्य में। और खोज का पहला चरण है: जी भर कर संदेह करो, अथक संदेह करो। और मैं तुमसे कहता हूं इतने बलपूर्वक, की वह श्रद्धा बनने लगे, क्योंकि मैं जानता हूं कि सत्य के सामने संदेह नहीं टिक सकता। सत्य होना चाहिए बस। सत्य ही न हो तो संदेह टिक सकता है। सत्य हो तो आज नहीं कल लड़खड़ाएगा संदेह और गिरेगा। जीवन के अनुभव को जरा गौर से देखो और तुम हैरान होओगे, छोटी सी बदलाहट बड़ी बदलाहटों का सिलसिला हो जाती है।

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