त्रिशंकु
यह संसार सत्य है। अगर कुछ असत्य है तो वह है तुम्हारा मन। मन माया है, संसार नहीं। मन कल्पनाओं के जाल बुनता है। संसार का पर्दा तो सच है, मन उस पर बड़े चित्र उभारता है--काल्पनिक, झूठे; जैसे रस्सी में कोई सांप देख ले! सांप झूठ होगा, लेकिन रस्सी झूठ नहीं है। ये मायावादी सदियों से यह उदाहरण देते रहे हैं कि संसार ऐसा है जैसे रस्सी में कोई सांप देख ले। लेकिन उनसे कोई पूछे कि चलो सांप झूठ हुआ, मगर रस्सी का क्या? रस्सी तो है न! और सांप का क्या कसूर है? सांप तो है ही नहीं। तुम्हें दिखाई पड़ा है, तुम्हारी नजर की भूल है। दृष्टि की भूल को रस्सी पर थोप रहे हो? अपनी भ्रांति को संसार पर फैला रहे हो?इसलिए मेरा जोर पलायन पर नहीं है, जागरण पर है। जो लोग मानते हैं कि संसार माया है, उनके लिए तो संन्यास की बात उठ ही नहीं सकती! त्याग किसका? जो नहीं है उसका? त्याग के लिए तो होना चाहिए। फिर तो भोग भी नहीं है और त्याग भी नहीं है। फिर तो तुम जहां हो, जैसे हो, ठीक हो। कुछ करने को बचता नहीं। इसलिए मैं अपने संन्यासी को न कहता हूं भोगना, न कहता हूं त्यागना। कहता हूं: जाग कर जीना। संसार सत्य है। संसार परमात्मा की अनेक-अनेक रूपों में अभिव्यक्ति है। वृक्षों में वही हरा है। फूलों में वही लाल है। सूरज की किरणों में वही स्वर्ण की तरह बरस रहा है। तुम्हारे भीतर वही चैतन्य की तरह विराजमान है। तुम्हारी देह में भी वही ठोस हुआ है। तुम्हारा बहिरंग भी वही है, तुम्हारा अंतरंग भी वही है। तुम्हारा केंद्र भी वही है, तुम्हारी परिधि भी वही है। लेकिन हां, केंद्र और परिधि के बीच तुम्हें क्षमता है कल्पनाओं को खड़ा कर लेने की। तुम रस्सी में सांप देखने में समर्थ हो। तुम्हारे मन की यह क्षमता है। इस मन को ही मिटा देना है, पोंछ देना है। पशु हैं, उनके पास मन नहीं है, वे मनुष्य से नीचे हैं। मनुष्य के पास मन है। मनुष्य शब्द ही मन से बनता है। मनुष्य की इतनी ही खूबी है कि उसके पास मन है। और जिस दिन मन मिट जाता है, उस दिन तुम परमात्मा हो। और बोल रहा है इंसान के यह परमात्मा ने माया ऐसी बनाई महाठगिनी! माया पर दोष दे रहे हैं! कहां माया है? कभी मिले हो माया से? कोई मिला है कभी माया से? लेकिन तुम्हारे महात्मा भी माया को गाली दे रहे हैं। सबको गाली देने के लिए कोई बहाना चाहिए। सबको गाली टांगने के लिए कोई खूंटी चाहिए। नजर की भूल है, दृष्टि का दोष है। दृष्टि का रूपांतरण चाहिए। और जैसे ही दृष्टि बदलती है, वैसे ही संसार बदल जाता है। संसार तो वैसा ही है, मगर तुम्हारी दृष्टि बदल जाती है, तो तुम्हें वैसा दिखाई पड़ने लगता है जैसा है। अभी वैसा दिखाई पड़ता है, जैसा तुम चाहते हो। अभी तुम्हारी कल्पना आच्छादित हो जाती है। और तुम बड़ी जल्दी भूल में पड़ जाते हो। लोग सिनेमागृह में बैठे तुम देखते हो? जानते हैं भलीभांति कि पर्दा खाली है। आए थे तो देखा था कि सफेद पर्दा है। कुछ भी नहीं है, कोरा है। फिर फिल्म चली, धूप-छाया का खेल हुआ। रंगीन तस्वीरें उतरीं। और देखो लोग कैसे मोहित हो जाते हैं! लोग रो लेते हैं, हंस लेते हैं, घबड़ा लेते हैं, परेशान हो जाते हैं, पीड़ित हो जाते हैं और जानते हैं भलीभांति, मगर भूल गए, विस्मरण हो गया। एक दो-तीन घंटे के लिए सब भूल-भाल गए। फिर जैसे ही प्रकाश होगा, तब उन्हें याद आएगी कि अरे, कुछ भी नहीं है। मगर फिर-फिर जाकर बैठेंगे और फिर-फिर भूलेंगे। लोगों के रूमाल गीले हो जाते हैं। अगर कोई दुखांत कथा है, कथानक है, तो आंखें उनकी आंसू टपकाती हैं। अगर कोई सुखांत दृश्य आता है तो हंसी के फव्वारे छूट जाते हैं। चाहे रोते आए हों, चाहे घर में मातम मना रहे हों, लेकिन भूल गए सब। आदमी अपने को भुलाने में बड़ा कुशल है। मन के नीचे पशुओं का जगत है; मन के ऊपर बुद्धों का; और इन दोनों के बीच में मनुष्य है त्रिशंकु की भांति हे।
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