क्षमता
जरा सोचो तो, मन का एक विचार तुम कितनी देर तक थिर रख सकते हो? भोर की तरैया भी थोड़ी ज्यादा देर टिकती है। ओस का कण भी कभी-कभी देर तक टिक जाता है। लेकिन तुम अपने मन में एक विचार को कितनी देर टिका सकते हो? क्षण भर है, और गया। पकड़ो तो भी पकड़ में नहीं आता, मुट्ठी खाली रह जाती है। दौड़ो तो भी कहीं खबर नहीं मिलती--कहां गया। हवा के झोंके की तरह आता है और खो जाता है। ऐसे मन के आधार पर तुम जो संसार में जीते हो, वह जीवन क्षणभंगुर है। संसार क्षणभंगुर है, ऐसा मत समझ लेना। वह तो सिर्फ कहने का एक ढंग है। संसार क्षणभंगुर नहीं है। संसार तो तुम नहीं थे, तब भी था; तुम नहीं रहोगे, तब भी रहेगा। संसार तो शाश्वत है। लेकिन तुम जो संसार बना लेते हो अपने ही मन के आधार पर, वह क्षणभंगुर है। वस्तुतः संसार तो है ही नहीं, परमात्मा है। परमात्मा के पर्दे पर तुम जो अपनी कामना के चित्र बना लेते हो, वे संसार हैं। और उस संसार में दुख ही दुख है। रोज तुम्हें दुख मिलता है, फिर भी तुम कल के सुख की आशा में जीए चले जाते हो। कितनी बार तुम गिरते हो, फिर उठ-उठ कर खड़े हो जाते हो। कितनी बार जीवन तुम्हें कहता है कि तुम जो खोज रहे हो वह मिलेगा नहीं, लेकिन तुम कोई न कोई बहाना खोज लेते हो--कोई और भूल हो गई, कोई और गलती हो गई--अब की बार सब ठीक कर लेंगे, अब ऐसी भूल न हो पाएगी। मैंने सुना है, कारागृह से एक कैदी मुक्त हुआ। तेरहवीं बार कारागृह में बंद हुआ था। मुक्त करते क्षण में जेलर को भी दया आ गई। उसकी आधी जिंदगी ऐसे ही जेल में बीत गई। उसने कहा, अब तो समझो! अब तो कुछ ऐसा करो कि जेल आना न हो! उसने कहा, कोशिश तो हर बार करते हैं, फिर-फिर आना हो जाता है। मगर अब की बार-आप ठीक कह रहे हैं--अब की बार फिर न आऊंगा। जेलर बहुत प्रसन्न हुआ, उसने कहा कि हम प्रसन्न हैं। लेकिन वह कैदी बोला कि आपकी प्रसन्नता से लगता है आप समझे नहीं। मैं यह कह रहा हूं कि अब तक जो भूलें करके मैं पकड़ जाता था, अब न करूंगा। चोरी न करूंगा, यह मैं नहीं कह रहा हूं। लेकिन जिन कारणों से मैं पकड़ जाता था, वे कारण अब न दोहराऊंगा। और तेरह बार अनुभव होते-होते अब ऐसा कोई कारण नहीं बचा है, जिसे मैंने समझ न लिया हो। चोरी तो करूंगा, लेकिन अब भूल-चूक बिलकुल न होगी। चोरी भूल-चूक नहीं है, भूल-चूक तो उन भूलों में है जिनके कारण चोरी पकड़ जाती है। जेल तुम जिनको भेजते हो, वे वहां से और निष्णात अपराधी होकर वापस आ जाते हैं। क्योंकि वहां और दादा-गुरु मिल जाते हैं, और भी पुराने घाघ। उनसे काफी सोच-समझ कर, विचार-विमर्श करके, अनुभव से सीख कर, शिक्षा लेकर, गुरुमंत्र पाकर वापस लौट आते हैं। फिर वही करते हैं। चोरी भूल नहीं है, ऐसा लगता है; भूल पकड़े जाने में है। तुम भी सोचो--अगर तुम कुछ ऐसी तरकीब पा जाओ कि तुम पकड़े न जा सको, फिर तुम चोरी करोगे या नहीं? तुम्हारा मन साफ कहेगा: फिर करने में कोई बुराई ही नहीं है। चोरी में थोड़े ही बुराई है, पकड़े जाने में बुराई है। और जब तक तुम ऐसा समझ रहे हो, तब तक तुम दुख में जीओगे। पकड़े जाने में दुख नहीं है, चोर होने में दुख है। चोरी करने में दुख है, पकड़े जाने में दुख नहीं है। मगर जब तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि मेरे होने के ढंग में भूल है, तब तुम पाओगे कि दुख मेरे होने के गलत ढंग से पैदा होता है। यही अर्थ है सारे कर्म के सिद्धांत का, और कुछ अर्थ नहीं है। इतना ही अर्थ है कि तुम दुख पाते हो तो तुम्हारे अपने ही कर्मों के कारण; तुम सुख पाते हो तो भी अपने ही कर्मों के कारण।और अगर तुम आनंद पाना चाहते हो, तो अकर्म की दशा चाहिए--जहां न सुख रह जाए, न दुख; जहां परम शांति हो जाए; जहां तुम दोनों के पार हो जाओ; जहां तुम्हारे भीतर का संतुलन परिपूर्ण हो जाए, जैसे कि तराजू के दोनों पलड़े बराबर एक रेखा में आ जाएं ऐसा तुम्हारे भीतर जब सुख और दुख दोनों के पार होने की क्षमता आ जाए, तब तुम महा आनंद को उपलब्ध होते हो।
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