संतोष

एक संतोष होता है मरे हुए आदमी का, पराजित आदमी का, हारे हुए आदमी का। वह संतोष मालूम होता है, लेकिन संतोष है नहीं। भीतर तो लपटें हैं असंतोष की, लेकिन बाहर से टीम-टाम किया, समझा लिया अपने को; जीत तो सके नहीं, हार को भी सहना कठिन मालूम होता है, तो हार को लीप-पोत लिया संतोष की भांति। सप की पुरानी कहानी है कि एक लोमड़ी छलांग लगाती है--बहुत छलांग लगाती है--अंगूर के गुच्छों को पाने के लिए; फिर नहीं पहुंच पाती, पहुंच छोटी पड़ जाती है; हारी-थकी, उदास चित्त वापस लौटती है; पर कम से कम एक आश्वासन है कि किसी ने उसकी हार देखी नहीं; लेकिन तभी एक खरगोश पास की झाड़ी में छिपा, बाहर आता है और कहता है: चाची, क्या हुआ? अंगूरों तक पहुंच न सकीं? लोमड़ी ने कहा कि नहीं, पहुंच क्यों न सकूं, मेरी पहुंच के बाहर क्या है, चांद-तारे तोड़ लाऊं, लेकिन अंगूर खट्टे थे, पहुंचने योग्य ही न थे। एक तो यह संतोष है--जिन अंगूरों तक न पहुंच पाओ, उन्हें खट्टे मान लेना। खट्टे मान लेने से कम से कम अहंकार को थोड़ी रक्षा मिल जाएगी। पहुंचने योग्य ही नहीं थे, तो पहुंच कर करते भी क्या? मैं इसे संतोष नहीं कहता। और तुम्हारे तथाकथित धर्मगुरुओं ने इसी को संतोष कहा है। यह संतोष का धोखा है, यह मिथ्या आत्मवंचना है, इससे सावधान रहना! क्योंकि जो इस तरह के संतोष से घिर गया, उसे संतोष की परम अनुभूति कभी भी न हो सकेगी। जो झूठे फूलों से राजी हो जाता है, उसकी बगिया में असली फूल नहीं खिलते हैं। फिर तुम समझाने की कितनी ही चेष्टाएं करो! समझाने में तुम बड़ी कुशलता भी दिखला सकते हो, बड़ी तर्कयुक्तता, बड़ी चतुराई होगी वह।आकांक्षाओं का संतोष नहीं, समझी गई आकांक्षाओं का संतोष है। जब तुम किसी आकांक्षा को ठीक-ठीक समझ लेते हो, जब तुम देख लेते हो उसकी गहराई में और पाते हो कि उसके पूरे होने में भी कुछ पूरा नहीं होगा, पूरी हो जाए तो भी तुम अधूरे रहोगे, मिल जाए यह संपदा तो भी तुम्हारी विपदा कम न होगी, और मिल जाए यह प्यारा तो भी तुम्हारी प्रीति की अभीप्सा पूरी न होगी, जब तुम्हारी दृष्टि ऐसी निखार पर होती है, तुम्हारा अंतर-बोध इतना स्पष्ट होता है, जब तुम्हारे चैतन्य के दर्पण में चीजें साफ-साफ जैसी हैं वैसी परिलक्षित होती हैं, तब एक और संतोष पैदा होता है। वह संतोष सांत्वना नहीं है, सत्य का साक्षात्कार है। 

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