सावधिक संन्यास

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मेरी दृष्टि है पीरियाडिकल रिनन्सिएशन की, सावधिक संन्यास की। ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि कोई आदमी जिंदगी भर संन्यासी होने की कसम ले। असल में भविष्य के लिए कोई भी कसम खतरनाक है। क्योंकि भविष्य के हम कभी भी नियंता नहीं हो सकते। वह भ्रम है। भविष्य को आने दें, वह जो लाएगा, हम देखेंगे। जो साक्षी है वह भविष्य के लिए निर्णय नहीं कर सकता। निर्णय सिर्फ कर्ता कर सकता है। जिसको खयाल है कि मैं करने वाला हूं, वह कह सकता है कि मैं जिंदगी भर संन्यासी रहूंगा। लेकिन सच में जो साक्षी है वह कहेगा, कल का तो मुझे कुछ पता नहीं, कल जो होगा होगा। कल जो होगा उसे देखूंगा और जो होगा होगा। कल के लिए कोई निर्णय नहीं ले सकता हूं।
इसलिए संन्यास की एक और कठिनाई अतीत में हुई, वह थी जीवन भर के संन्यास की, आजीवन संन्यास की। एक आदमी किसी भाव-दशा में संन्यासी हो जाए और कल किसी भाव-दशा में जीवन में वापस लौटना चाहे, तो हमने लौटने का द्वार नहीं छोड़ा है खुला। संन्यास में हमने एंट्रेंस तो रखा है, एक्झिट नहीं है। उसमें भीतर जा सकते हैं, बाहर नहीं आ सकते। और ऐसा स्वर्ग भी नरक हो जाता है जिसमें बाहर लौटने का दरवाजा न हो। परतंत्रता बन जाता है, कारागृह हो जाता है। आप कहेंगे, नहीं, कोई संन्यासी लौटना चाहे तो हम क्या करेंगे, लौट सकता है। लेकिन आप उसकी निंदा करते हैं, अपमान करते हैं। कंडेमनेशन है उसके पीछे।
और इसीलिए हमने एक तरकीब बना रखी है कि जब कोई संन्यास लेता है, तो उसका भारी शोरगुल मचाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत बैंडबाजा बजाते हैं। जब कोई संन्यास लेता है तो बहुत फूलमालाएं पहनाते हैं, बड़ी प्रशंसा, बड़ा सम्मान, बड़ा आदर, जैसे कोई बहुत बड़ी घटना घट रही है, ऐसा हम उपद्रव करते हैं। और यह उपद्रव का दूसरा हिस्सा है, वह उस संन्यासी को पता नहीं है कि अगर वह कल लौटा तो जैसे फूलमालाएं फेंकी गईं, वैसे ही पत्थर और जूते भी फेंके जाएंगे। और ये ही लोग होंगे फेंकने वाले, कोई दूसरा आदमी नहीं होगा। असल में इन लोगों ने फूलमालाएं पहना कर उससे कहा कि अब सावधान, अब लौटना मत, जितना आदर दिया है उतना ही अनादर प्रतीक्षा करेगा। यह बड़ी खतरनाक बात है। इसके कारण न मालूम कितने लोग संन्यास का आनंद ले सकते हैं, वे नहीं ले पाते। वे कभी निर्णय ही नहीं कर पाते कि जीवन भर के लिए! जीवन भर का निर्णय बड़ी महंगी बात है, बड़ी मुश्किल बात है। फिर हकदार भी नहीं हैं हम जीवन भर के निर्णय के लिए।

तो मेरी दृष्टि है कि संन्यास सदा ही सावधिक है। आप कभी भी वापस लौट सकते हैं। कौन बाधा डालने वाला है? संन्यास आपने लिया था। संन्यास आप छोड़ते हैं। आपके अतिरिक्त इसमें कोई और निर्णायक नहीं है। आप ही डिसीसिव हैं, आपका ही निर्णय है। इसमें दूसरे की न कोई स्वीकृति है, न दूसरे का कोई संबंध है। संन्यास निजता है, मेरा निर्णय है। मैं आज लेता हूं, कल वापस लौटता हूं। न तो लेते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप सम्मान करें, न छोड़ते वक्त आपसे अपेक्षा है कि आप इसके लिए निंदा करें। आपका कोई संबंध नहीं है।

संन्यास को बड़ा गंभीर मामला बनाया हुआ था, इसलिए वह सिर्फ रुग्ण और गंभीर लोग ही ले पाते थे। संन्यास को बहुत गैर-गंभीर, खेल की घटना बनाना जरूरी है। आपकी मौज है, संन्यास ले लिया है। आपकी मौज है, आप कल लौट जाते हैं। नहीं मौज है, नहीं लौटते हैं, जीवन भर रह जाते हैं, वह आपकी मौज है। इससे किसी का कोई लेना-देना नहीं है।
फिर इसके साथ, यह भी मेरा खयाल है कि अगर संन्यास की ऐसी दृष्टि फैलाई जा सके, तो कोई भी आदमी जो वर्ष में एकाध-दो महीने के लिए संन्यास ले सकता है, वह एकाध-दो महीने के लिए ले ले। जरूरी क्या है कि वह दस-बारह महीने के लिए ले। वह दो महीने के लिए संन्यासी हो जाए, दो महीने संन्यास की जिंदगी को जीए, दो महीने के बाद वापस लौट जाए। यह बड़ी अदभुत बात होगी।

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