तरलता

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शक्तियां तटस्थ हैं। सारी शक्तियां दिव्य हैं। उनका कैसा उपयोग, इस पर सब निर्भर करता है। ऋषि कहता है, इन शक्तियों का क्षेत्र और पात्र के हिसाब से अनुसरण करना ही बुद्धिमानी है। समय, स्थान, स्थिति, इन सबको ध्यान में रखकर! नहीं तो कई बार, कई बार शक्ति अपव्यय होती है, कई बार अपने ही विरोध में पड़ जाती है, कई बार घातक हो जाती है। और यह जो कहा है, क्षेत्र और काल, समय और स्थिति, स्थान और परिस्थिति, इनको देखकर। क्योंकि कोई भी नियम इस जगत में एब्सल्यूट नहीं है, निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है। तो कहीं तो जहर भी अमृत हो जाता है--किसी काल और किसी क्षेत्र में। किसी रोग में जहर औषधि बन जाता है और किसी रोग में भोजन जहर हो जाता है।

तो अगर हमने अंधे की तरह अनुसरण किया सिद्धांतों का, तो वह बुद्धिमानी नहीं है। लेकिन हम करते हैं। हम सब अंधों की तरह अनुसरण करते हैं। बिलकुल अंधों की तरह। एक सिद्धांत को पकड़ लेते हैं लकीर के फकीर की तरह और फिर चाहे स्थिति बदले, समय बदले, काल बदले, हम नहीं बदलते। हम तो अपने सिद्धांत पर दृढ़ रहते हैं। यह मूढ़ता का लक्षण है। कोई सिद्धांत ऐसा नहीं है, जो काल और स्थिति के साथ बदल न जाता हो। लेकिन हम कहते हैं, सब बदल जाए, लेकिन हम सिद्धांत नहीं बदलेंगे। सिद्धांत तो हमारा अटल है। ऐसे अटल सिद्धांत बुद्धिमानी का लक्षण नहीं है।
कृष्ण जैसा आदमी सिद्धांतों की तरलता को जानता है। कृष्ण को भी पता है कि अहिंसा बहुमूल्य है, परम सिद्धांत है, भलीभांति पता है। लेकिन अर्जुन को हिंसा के लिए तत्पर करते हैं, क्योंकि काल और क्षेत्र बिलकुल भिन्न हैं। क्योंकि सवाल अहिंसा का नहीं है इस जगत में, इस जगत में कृष्ण के सामने सवाल यह था कि अर्जुन से जो हिंसा होगी, वह हिंसा दुर्योधन से होने वाली हिंसा से बेहतर होगी। 

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