आघात

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मैंने सुना है, एक आदमी को एक लाख रुपये की लाटरी मिल गई थी। उसकी पत्नी को रेडियो पर समाचार मिला। वह घबड़ा गई--कि काश, उसके पति को खबर मिली कि एक लाख रुपये मिल गए हैं इकट्ठे, तो इस सुख में प्राण भी निकल सकते हैं! क्योंकि उसके पति को दस रुपये भी कभी इकट्ठे मिले हों, इसका भी उसे पता नहीं था। वह डरी, और पड़ोस में ही जिस चर्च में वह जाती थी, उस चर्च के पादरी के पास गई। क्योंकि चर्च के पादरी से उसने सदा ही धन में कुछ भी सार नहीं है--ज्ञान की और शांति की बातें सुनी थीं। उस पादरी के पास गई और उसने कहा: मैं मुश्किल में पड़ गई हूं। एक लाख रुपये की लाटरी मेरे पति के नाम खुली है। कहीं ऐसा न हो कि इतने सुख का आघात उनके लिए खतरनाक हो जाए। आप कुछ उपाय करें कि यह आघात न पड़े। पादरी ने कहा: घबड़ाओ मत, मैं आता हूं। और मैं धीरे-धीरे इस खबर को तुम्हारे पति पर प्रकट करूंगा। वह पादरी आया, उसने आकर कहा: सुना तुमने कुछ, तुम्हारे नाम पच्चीस हजार रुपये लाटरी में मिले हैं! सोचा उसने पहले पच्चीस हजार का धक्का सह ले, फिर और पच्चीस हजार का बताऊं, फिर और पच्चीस हजार का। उस आदमी ने कहा: पच्चीस हजार! अगर पच्चीस हजार मुझे मिले हैं तो साढ़े बारह हजार मैं तुम्हें देता हूं। पादरी वहीं गिरा और उसका हार्टफेल हो गया। साढ़े बारह हजार! आघात लग गया सुख का।

सुख का भी एक आघात है, एक चोट है। दुख का भी एक आघात है, एक चोट है। और इसीलिए तो ऐसा होता है कि अगर दुख का आघात पड़ता ही रहे, तो आदमी दुख के आघात के लिए भी राजी हो जाता है। आदी हो जाता है, हैबिच्युअल हो जाता है। फिर दुख का आघात नहीं पड़ता है। फिर उतना तनाव सहने की उसकी क्षमता हो जाती है। इसलिए एक ही दुख में बहुत दिन रहने पर वह दुख दुख नहीं रह जाता। इससे उलटा भी सच है। सुख का आघात पड़ता है पहली बार, तो पता चलता है कि कुछ हुआ। फिर वही आघात रोज पड़ता रहे, तो फिर पता चलना बंद हो जाता है। 

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