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भय मोह शोक क्रोध त्यागस्त्यागः।

इस सूत्र में एक बहुत अनूठी बात कही। कहा है, त्यागियों का त्याग है भय, मोह, शोक और क्रोध। इसका अर्थ हुआ, भोगियों का भी कुछ त्याग होता है। भोगी जब छोड़ता है कुछ, तो धन छोड़ता है, मोह नहीं। भोगी जब छोड़ता है कुछ, तो वस्तु छोड़ता है, वृत्ति नहीं। और वस्तु के त्याग से कुछ भी नहीं होता। क्योंकि वस्तु से कोई संबंध ही नहीं है, संबंध वृत्ति से है। त्यागियों का त्याग...। बड़ी मजे की बात है। क्योंकि इससे साफ हो जाता है कि भोगियों का भी त्याग है कुछ। त्यागियों का त्याग है भय, मोह, शोक और क्रोध। वृत्तियों का त्याग। वह अंतर में जो छिपे हुए कारण हैं, मूल कारण, उनका त्याग। वस्तु या व्यक्ति का नहीं है सवाल, मोह का त्याग। और निश्चित ही जब मोह ही गिर जाता है, तो वस्तु से हमारा कोई सेतु, कोई संबंध नहीं रह जाता। फिर त्यागी महल के बीच में भी हो सकता है, महल उसे बांध नहीं पाता। और अगर महल के बीच रहकर त्यागी को महल बांध लेता है, तो झोपड़ा भी बांध लेगा। कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। जिसके भीतर मोह है, वह कहीं भी बंध जाएगा। क्षुद्रतम से बंध जाएगा। कोई बड़े साम्राज्य आवश्यक नहीं हैं बंधने के लिए। नहीं तो इस दुनिया में दो-चार ही लोग बंध पाएं, बाकी तो सब मुक्त ही रहें। हीरा ही जरूरी नहीं है, कौड़ी भी बांध लेती है। त्यागी का त्याग तो, संन्यासी का त्याग तो उस आधार के ही विसर्जन का है, जिससे उपद्रव पैदा होता है। मूल पर आघात है। एक आदमी पत्नी को छोड़कर भाग जा सकता है, बच्चों को छोड़कर जंगल जा सकता है। लेकिन उस आदमी को पता नहीं कि जिसने पत्नी बनाई थी और जिसने बच्चे निर्मित किए थे, वह मोह साथ चला गया। वह मोह नई पत्नियां निर्मित कर लेगा, नये बच्चे बना लेगा। मन इतना चालाक है कि नये नाम रख देगा, नई व्यवस्था कर लेगा। जड़ें सुरक्षित थीं, अंकुर फिर निकल आएंगे। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह आदमी घर छोड़कर आश्रम बना लेगा। अब उसको आश्रम कहेगा और आश्रम के लिए उतना ही चिंतारत हो जाएगा, जितना घर के लिए था। और आश्रम की जमीन के लिए अदालत में वैसे ही मुकदमा लड़ेगा, जैसे घर के लिए लड़ता था। आश्रम की ईंट-ईंट के लिए पैसा जुटाएगा, जैसे घर के लिए जुटाता था। और अब एक बड़ा धोखा है। वह है गृहस्थ, और जहां रह रहा है, उस जगह का नाम आश्रम है। अब वह अपने को और भी धोखा दे सकता है, सेल्फ डिसेप्शन और आसान है। क्योंकि वह कहेगा, मैं अपने लिए थोड़े ही करता हूं, आश्रम के लिए करता हूं। आप यह नहीं कह सकते कि मैं अपने लिए थोड़े ही करता हूं। हालांकि हम भी कोशिश करते हैं। बाप कहता है, मैं अपने लिए थोड़े ही करता हूं, बेटे के लिए करता हूं। अपने लिए थोड़े ही करता हूं, पत्नी के लिए करता हूं। जिम्मेदारी है। वह अब कहेगा, परमात्मा के लिए कर रहा हूं। यह तो आश्रम है, यह कोई मेरा घर नहीं है। लेकिन उसके सारे संबंध वही हैं, जो उसके घर से थे। वह मोह तो साथ ले आया, क्रोध तो साथ ले आया, राग तो साथ ले आया, आसक्ति तो साथ ले आया। एक और मजे की बात है कि भोगी अगर छोड़कर भागता है, तो जिस चीज को छोड़कर भागता है, उससे डरता है। सदा डरता रहता है। क्योंकि उसे पक्का पता है कि अगर वह चीज फिर सामने आ जाए, तो फिर उसके भीतर जो छिपी हुई जड़ें हैं, वे अंकुरित हो जाएंगी। अगर वह धन को छोड़कर भागा है, तो वह ऐसी जगह से बचकर निकलेगा जहां धन मिल सकता है फिर। अगर वह स्त्री को छोड़कर भागा है, तो वह बचेगा ऐसी जगह से जहां स्त्री दिखाई पड़ सकती है फिर। यह तो गृहस्थ से भी ज्यादा बदतर स्थिति हो गई। यह तो भय भयंकर हो गया। यह तो दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगा। यह तो बहुत भय से आक्रांत स्थिति है। और भय से आक्रांत स्थिति ब्रह्म में प्रवेश नहीं बन सकती। और यह सारा का सारा जो भय है, उसे ऐसी सीमाएं निर्मित करने को मजबूर करेगा, जिनके भीतर वह एक कारागृह का कैदी हो जाएगा। भय है, इसलिए हम बहुत आयोजन करते हैं। जब एक आदमी महल बना रहा है, दीवारें उठा रहा है, परकोटे घेर रहा है, तो भयभीत है, इसलिए इतना सुरक्षा का इंतजाम कर रहा है। एक आदमी तलवार बगल में लटकाए हुए चल रहा है, भयभीत है। हम बहादुरों की जो मूर्तियां बनाते हैं, तो उनके हाथ में तलवार जरूर रखते हैं। घोड़ों पर चढ़ा देते हैं, तलवारें रख देते हैं, चौरस्तों पर खड़े कर देते हैं। ये भय की मूर्तियां हैं। क्योंकि तलवार निर्भय आदमी के लिए कैसी आवश्यकता है? कहां है जरूरी? वह तलवार तो बताती है कि भीतर भय छिपा है। अगर हमें एटम बम बनाना पड़ा है, तो उसका कारण है कि आदमी आज जितना भयभीत है, इतना इसके पहले कभी भी नहीं था।हमारे अस्त्र-शस्त्र हमारे भय के अनुपात में विकसित होते हैं। जिस दिन आदमी निर्भय हो जाएगा, अस्त्र-शस्त्र फेंक दिए जाएंगे। उनकी कोई भी तो जरूरत नहीं है। अस्त्र-शस्त्र हमारे भय का विस्तार हैं। तो जितने अस्त्र-शस्त्र बढ़ते हैं, वे खबर देते हैं, बिलकुल आनुपातिक खबर देते हैं कि आदमी कितना भयभीत हो गया होगा कि एटम बम के बिना वह अपने को सुरक्षित अनुभव नहीं करता। बड़े से बड़े राष्ट्र--चाहे वह रूस हों और चाहे अमरीका और चाहे चीन--जिनके पास विराट शक्ति है, उनका बड़प्पन क्या है! उनका बड़प्पन यह है कि उनके पास विराट अस्त्र-शस्त्रों का ढेर है। लेकिन विराट अस्त्र-शस्त्रों का ढेर सिवाय भीतर के भय के और किसी बात की सूचना नहीं देता है। और मजा यह है कि आप अस्त्र-शस्त्र कितने ही बढ़ाते चले जाएं, कोई भीतर का भय नहीं मिट जाता, बढ़ता चला जाता है। तो एक तरकीब यह हो सकती है कि अस्त्र-शस्त्र का त्याग कर दें, छोड़ दें। तो भी जरूरी नहीं कि आप अभय को उपलब्ध हो जाएं। अगर अस्त्र-शस्त्र को आप छोड़ते हैं, तो आप दूसरे सूक्ष्म अस्त्र-शस्त्र बनाना शुरू करेंगे। आप कहेंगे, निर्बल के बल राम। अब यह भी अस्त्र है। कहना चाहिए, एटम से भी बड़ा। तो जो व्यक्ति अस्त्र-शस्त्र का उपयोग नहीं करते, लेकिन रोज प्रार्थना करते हैं, निर्बल के बल राम। मगर बल, चाहे वह एटम से आए और चाहे राम से आए, आना जरूर चाहिए। निर्बल होने को राजी नहीं हैं, बल कहीं से आना ही चाहिए। सूक्ष्म बल की खोज शुरू हो जाएगी। त्यागी वह है, जो सब खोज ही छोड़ देता है। और मजा यह है कि राम का बल तभी मिलता है, जबनिर्बल इतना निर्बल होता है कि राम का बल भी उसके पास नहीं होता, कोई बल नहीं होता उसके पास। वह आयोजन छोड़ देता है, क्योंकि वह कहता है कि भयभीत होना असंगत है। जहां मृत्यु निश्चित है, वहां भयभीत होने की जरूरत क्या है? जहां मरना होगा ही, वहां अब भय का कारण क्या है? 

बस, इतना ही सूत्र है, अपने को धोखा नहीं देना। और जिसे यह पता चल गया कि अपने को धोखा नहीं दिया जा सकता, देन ए न्यू डिसिप्लिन इज बॉर्न, ए इनर डिसिप्लिन। तब एक नया अनुशासन पैदा होता है, जो आंतरिक है, जिसे ऊपर से आयोजित नहीं करना पड़ता। संन्यासी ऐसा नहीं कहता कि मैं सत्य बोलूंगा। जब भी घटना घटती है, वह सत्य बोलता है। संन्यासी ऐसा नहीं कहता कि मैं चोरी नहीं करूंगा। जब भी ऐसा अवसर आए, तो वह चोरी नहीं करता है। ये एक भीतरी अनुशासन है और बाहरी कोई अनुशासन नहीं है। अनियामकपन, टु बी अनडिसिप्लिण्ड। इट इज़ बेटर टु यूज अनडिसिप्लिण्ड दैन इनडिसिप्लिण्ड, अनुशासनमुक्त, अनुशासनहीन नहीं। क्योंकि हीन कहना ठीक नहीं। उसके भीतर एक नया अनुशासन जन्म गया, इसलिए बाहर के अनुशासन हटा लिए गए। ऐसे अनियामकपन को उपलब्ध हुई ऊर्जा, यह जो विराट प्रपंच है, इसको छेदकर परम ब्रह्म में प्रवेश कर जाती है। अगर जगत में कुछ बनाना हो तो तामसिक शक्ति चाहिए--दूषित, अंधेरी, ब्लैक। अगर इस जगत के पार जाना हो तो शुभ, ह्वाइट, निर्मल, शांत, पगध्वनि-शून्य शक्ति चाहिए। अगर जगत में कुछ करना हो, तो अनुशासन के बिना नहीं होगा; और अगर जगत के प्रपंच के पार यात्रा करनी हो, तो सब अनुशासन छोड़कर परम अनुशासनहीनता में, परम अनुशासनमुक्ति में प्रवेश करना पड़ता है।

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