अमर्यादीत

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परंपरा राम और कृष्ण, मीरा और हनुमान, सबको समकक्ष ही रखती है। कोई उनमें इनफीरियर है या सुपीरियर है, ऐसा भाव नहीं रखती। यह हो सकता है कि हनुमान की निजता वही हो जो वह हैं, राम की निजता वही हो जो वह हैं, और हममें कुछ लोग ऐसे हों जिन्हें हनुमान और राम की निजता ही अनुकूल पड़े। तो क्या यह परधर्म न होगा कि वे हनुमान और राम को कुछ इनफीरियर मान कर कृष्ण और मीरा का ही मार्ग अपनाना चाहें? मैंने जो कहा, उसमें किसी को इनफीरियर नहीं कहा, सिर्फ भिन्न-भिन्न कहा। हीन नहीं कहा, अलग-अलग कहा। और जिसकी निजता हनुमान के करीब पड़ती है, वह मेरे कहने से हनुमान को हीन न मान सकेगा। अब मेरी निजता में तो हनुमान करीब नहीं पड़ते हैं। तो मैं किसी और की निजता का ध्यान रख कर झूठा वक्तव्य नहीं दे सकता हूं। मुझसे आपने पूछा है। मैंने ही उत्तर दिया है। मुझे अगर चुनना हो, तो मीरा चुनने जैसी लगेगी। मुझे अगर चुनना हो, तो राम छोड़ देने जैसे लगेंगे और कृष्ण चुनने जैसे लगेंगे। और मुझे क्यों लगेंगे, उसके कारण मैंने कहे। ऐसा नहीं है कि आप कृष्ण को चुनें और राम को छोड़ें। समझ लें मेरी बात को, उतना काफी है। आपकी निजता आपको जहां ले जाए वहीं जाना है। मेरी दृष्टि में, राम का व्यक्तित्व मर्यादित है और मैं मानता हूं कि राम को मानने वाले लोग भी नहीं कहेंगे कि अमर्यादित है। असल में राम को मानने वाले लोग भी राम को इसीलिए मानते हैं कि वह मर्यादा में हैं। और जिन-जिन के चित्त मर्यादा में जीते हैं, उन-उन के लिए राम अनुकूल पड़ेंगे। लेकिन मैं कह यह रहा हूं कि मर्यादा का मतलब सीमा होता है। सीमा के बाहर भी चीजों का होना है। सीमा के बाहर भी सत्य है। इसलिए पूर्ण सत्य को तो अमर्यादीत ही घेर सकेगा, पूर्ण सत्य को मर्यादित नहीं घेर सकता। पूर्ण सत्य को तो कृष्ण ही घेर सकेंगे, राम नहीं घेर सकते। और ऐसा नहीं है कि आपकी परंपरा ने भेद नहीं किया है। आपकी परंपरा भी राम को कभी पूर्ण अवतार नहीं कहती है। कृष्ण को ही पूर्ण अवतार कहती है। राम बगिया है तो कृष्ण जंगल, आपकी परंपरा फर्क निश्र्चित करती है।हनुमान और मीरा के बाबत कभी आपकी परंपरा ने तुलना भी की है, यह भी मुझे पता नहीं है। तुलना भी नहीं की है। राम और कृष्ण के बाबत तो तुलना आपकी परंपरा में है और उसमें कृष्ण पूर्ण अवतार हैं। और यह भी साफ है कि राम को मानने वाला कृष्ण को नहीं मान सका है। कान भी बंद कर लिए हैं उसने कि कृष्ण का नाम न पड़ जाए। और कृष्ण को मानने वाला राम को कुछ भी नहीं समझ पाया है। स्वाभाविक है। लेकिन तथ्य की बात कहूं, क्योंकि मैं तो किसी को मानने वाला नहीं, मुझे जैसा दिखाई पड़ता है, वह मैं कहता हूं। मैं किसी का मानने वाला नहीं हूं। मैं न कृष्ण का मानने वाला हूं, न राम का मानने वाला हूं। मुझे तो जो दिखाई पड़ता है वह यह है कि राम का एक व्यक्तित्व है साफ-सुथरा, निखरा। उतना निखरा और साफ-सुथरा व्यक्तित्व कृष्ण का नहीं है। हो नहीं सकता। वही उसकी गहराई है। राम ने एक बड़े जंगल का एक छोटा सा हिस्सा काट-कूट कर साफ-सुथरा कर लिया है। वहां से वृक्ष हटा दिए हैं, लताएं हटा दी हैं, घास काट दिया है, पत्थर हटा दिए हैं। वह जगह बड़ी साफ-सुथरी, बैठने योग्य हो गई है। लेकिन वह विराट जंगल भी है, जो उस जगह को चारों तरफ से घेरे हुए है। अस्तित्व उसका भी है। डी एच लारेंस निरंतर कहा करता था कि कब हम आदमी को जंगल की तरह देखेंगे? अभी तक हमने आदमी को बगिया की तरह देखा है। राम एक बगिया हैं। कृष्ण एक विराट जंगल हैं, जिसमें कोई व्यवस्था नहीं है, जिसमें क्यारियां कटी हुई और साफ-सुथरी नहीं हैं, जिसमें रास्ते बने हुए नहीं हैं, पगडंडियां तय नहीं हैं; जिसमें भयंकर जंतु भी हैं, हमलावर शेर भी है, सिंह भी है, अंधेरा भी है, चोर-डाकू भी हो सकते हैं, जीवन को खतरा भी हो सकता है। कृष्ण का व्यक्तित्व तो एक विराट जंगल की भांति है--अनियोजित, अनप्लांड; जैसा है वैसा है। राम का व्यक्तित्व एक छोटी सी बगिया की तरह है, किचन गार्डन की तरह है जो आपने अपने घर के बगल में लगा रखा है। सब साफ-सुथरा है। कोई खतरा नहीं है, कोई जंगली जानवर नहीं हैं। मैं नहीं कहता कि आप किचन गार्डन न लगाएं। इतना ही कहता हूं कि किचन गार्डन किचन गार्डन है, जंगल जंगल है। और कभी जब किचन गार्डन से ऊब जाएंगे तो पाएंगे कि जंगल में ही असली राज है। वह हमारा लगाया हुआ नहीं है। तो आपकी परंपरा ने राम और कृष्ण में तो तुलना कर ली है, लेकिन मीरा और हनुमान में नहीं की। मीरा और हनुमान में करने का बहुत कारण भी नहीं है। लेकिन, कल बात उठी, इसलिए मैंने कहा। मैंने कहा कि हनुमान, जब राम ही किचन गार्डन हैं, तो हनुमान को कहां रखिएगा? एक गमला ही रह जाएंगे। जब मैं राम को कहूंगा कि एक छोटी सी बगिया हैं बंगले के बाहर लगी हुई...बंगले के बाहर बगिया होनी चाहिए, और बंगले के बाहर जंगल नहीं लगाया जा सकता, वह भी मुझे भलीभांति ज्ञात है। लेकिन फिर भी बगिया बगिया है, जंगल जंगल है। और कभी-कभी जब बगिया से ऊब जाते हैं तो जंगल की तरफ जाना पड़ता है। और एक दिन ऊब जाना चाहिए बगिया से, वह भी जरूरी है। तो हनुमान को कहां रखिएगा? हनुमान तो फिर एक गमला रह जाते हैं। बहुत साफ-सुथरे हैं। कई बार राम से भी ज्यादा साफ-सुथरे हैं। क्योंकि और छोटी जगह घेरते हैं, इसलिए और साफ-सुथरे हो सकते हैं। नर्तन कर सकते हैं, बंगले के बगीचे पर जब हवा बहती है तो उसके पौधे भी नाचते हैं। और गमले में लगे पौधे पर भी जब हवा बहती है तो वह भी डोलता है। लेकिन जंगल में तांडव चलता है। उसकी बात ही और है। हम उससे ही तो घबड़ाते हैं। वह नर्तन विराट है, हमारे कंट्रोल के बाहर है। यह नर्तन हमारे भीतर है। हनुमान नर्तन करते हैं, लेकिन राम की आज्ञा मान लेंगे। मीरा नर्तन करती है और कृष्ण भी अगर रोकें तो नहीं रुकेगी। फर्क बड़े बुनियादी हैं। मीरा कृष्ण को भी डांट-डपट देगी। हनुमान न डांट-डपट सकेंगे। मीरा कृष्ण को भी कह देगी, बैठो एक तरफ, हटो रास्ते से, नाच चलने दो, बीच में मत आओ! वह हनुमान न कर सकेंगे। हनुमान एक आज्ञाकारी व्यक्ति हैं, एक डिसिप्लिडं आदमी हैं। दुनिया में डिसिप्लिन की जरूरत है, बिलकुल है। अनुशासन की जरूरत है। लेकिन, जीवन में जो भी विराट है, जो भी गहन-गंभीर है, वह सब अनुशासनमुक्त है। वह जीवन में जो भी सुंदर है, सत्य है, शिव है, वह बिना किसी अनुशासन के अचानक फूट पड़ता है। तो मुझे तो जैसा दिखाई पड़ा, वह मैंने कहा है। ऐसे हनुमान हैं, ऐसी मीरा है। मेरे देखे में चुनाव मेरा मीरा का है। आपसे नहीं कहता। और भिन्नता कहता हूं। हीनता और श्रेष्ठता क्या है, वह हरेक व्यक्ति अपनी तय करेगा। अपने से ही तय होगी वह। किसी को हनुमान श्रेष्ठ दिखाई पड़ सकते हैं। उससे वह सिर्फ इतनी ही खबर देगा कि उसकी श्रेष्ठता का मापदंड क्या है। और जब मैं कहता हूं कि मीरा कहीं श्रेष्ठ दिखाई पड़ती है तो उसका कुल मतलब इतना है कि मेरी श्रेष्ठता का अर्थ क्या है। इसमें हनुमान और मीरा गौण हैं, खूंटियों की तरह हैं, मैं अपने को उन पर टांगता हूं। में इन सभी के भीतर जो परम तत्व है उसे पूर्ण कहूंगा। और वही परम तत्व मुजमे आप में सब में है, में उसको प्रणाम करूंगा।

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