परमानंदी

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शिवयोगनिद्रा च खेचरी मुद्रा च परमानंदी।

इस सूत्र में कहा है, निद्रा में भी जो शिव में स्थित हैं, जो परम आनंद है।।

हमारी नींद इतनी थिर है कि हमें यह पता भी नहीं चलता कि वह नींद है। हमारी बेहोशी हमारे खून और हमारी हड्डियों में भर गई है। जन्मों-जन्मों का सघन अंधकार है भीतर। पता ही नहीं चलता। इसलिए चुपचाप जीए चले जाते हैं और इसी को होश कहे चले जाते हैं। यह होश नहीं है, यह केवल जागी हुई निद्रा है। निद्रा के दो रूप हैं--सोई हुई निद्रा और जागी हुई निद्रा। सोई हुई निद्रा का अर्थ है कि हम भीतर भी सो जाते हैं, बाहर भी सो जाते हैं। जागी हुई निद्रा का अर्थ है, भीतर हम सोए रहते हैं, बाहर हम जाग जाते हैं। ठीक ऐसे ही दो तरह के जागरण भी हैं। जैसे दो तरह की निद्राएं हैं, ऐसे दो तरह के जागरण भी हैं। ऋषि उसी जागरण की बात कर रहा है। वह कह रहा है कि वे जो संन्यस्त हो जाते हैं, वे नींद में भी जागे रहते हैं। उनकी नींद भी प्रभु से ही भरी रहती है। वे कितने ही गहरी नींद में सो रहे हों, उनके भीतर कोई जागकर प्रभु के मंदिर पर ही खड़ा रहता है। वे स्वप्न भी नहीं देखते कोई और। वे विचार भी नहीं करते कोई और, एक में ही रम जाते हैं।

बुद्ध कहते थे, वे ऐसे हो जाते हैं, जैसे सागर का पानी कहीं से भी चखो, और खारा। उन्हें कहीं से भी चखो, वे प्रभु से ही भरे हुए हैं। उनका स्वाद प्रभु ही हो जाता है। वे जो नींद में भी परम शिवत्व में ठहरे हुए हैं और ब्रह्म में जिनका विचरण है। उठते हैं, बैठते हैं, चलते हैं, तो ब्रह्म में ही। जगत में नहीं, ब्रह्म में ही। लेकिन हम तो उन्हें जगत में चलते देखते हैं। हमने बुद्ध को चलते देखा है इसी जमीन पर, महावीर को चलते देखा है इसी जमीन पर। यही जमीन है, यहीं उनके भी चरण-चिह्न बनते हैं, इसी मिट्टी में, इसी रेत में, इन्हीं वृक्षों के नीचे उन्हें बैठे देखा। और यह सूत्र कहता है कि वे ब्रह्म में ही विचरण करते हैं। वे ब्रह्म में ही विचरण करते हैं, क्योंकि जो हमें जमीन दिखाई पड़ती है, वह उन्हें ब्रह्म ही मालूम होती है। और जो हमें वृक्ष मालूम पड़ता है, वह भी उन्हें ब्रह्म की छाया ही मालूम होती है। और जो इस जमीन पर चलता है उनका शरीर, वह भी उन्हें ब्रह्म का ही रूप मालूम होता है। उनके लिए सभी कुछ ब्रह्म हो गया है। जिसने अपने भीतर झांककर देखा, उसके लिए सभी कुछ ब्रह्म हो जाता है। और जो अपने बाहर ही देखता रहा, धीरे-धीरे उसके भीतर भी पदार्थ ही रह जाता मालूम पड़ता है। जिसकी दृष्टि बाहर है, उसे भीतर भी आत्मा दिखाई नहीं पड़ेगी। जिसकी दृष्टि भीतर है, उसे बाहर भी आत्मा ही दिखाई पड़ती है। वे ब्रह्म में ही विचरण करते हैं और ऐसे वे परम-आनंदी हैं। अब जिसका ब्रह्म में विचरण हो और जिसकी निद्रा भी भगवत-चैतन्य में हो, वहां दुख कैसा! वहां दुख का प्रवेश कैसा!

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