निष्कामता और अनासक्ति

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अनासक्ति का अर्थ समझ लेना चाहिए। अनासक्ति थोड़े से अभागे शब्दों में से एक है जिसका अर्थ नहीं समझा जा सका है। अनासक्ति से लोग समझ लेते हैं--विरक्ति। अनासक्ति विरक्ति नहीं है। विरक्ति भी एक प्रकार की आसक्ति है। विरक्ति विपरीत आसक्ति का नाम है। कोई आदमी काम में आसक्त है, वासना में आसक्त है। कोई आदमी काम के विपरीत ब्रह्मचर्य में आसक्त है। कोई आदमी धन में आसक्त है। कोई आदमी धन के त्याग में आसक्त है। कोई आदमी शरीर के श्रृंगार में आसक्त है, कोई आदमी शरीर को कुरूप करने में आसक्त है। लेकिन शरीर को कुरूप करने वाला विरक्त मालूम पड़ेगा, धन का त्याग करने वाला विरक्त मालूम पड़ेगा, क्योंकि उनकी आसक्तियां निगेटिव हैं, नकारात्मक हैं।अनासक्ति हमारा स्वभाव है। आसक्ति या विरक्ति हमारा स्वभाव नहीं है। इसीलिए हम आसक्त और विरक्त हो पाते हैं। और अनासक्ति हमारा स्वभाव है, इसीलिए अनासक्ति पाई जा सकती है। जो बीज है, वह फूल बन सकता है। यह अनासक्ति सभी का स्वभाव है। ऐसा नहीं कि किसी का है और किसी का नहीं। जहां भी चेतना है, चेतना सदा अनासक्त है। हां, चेतना का व्यवहार, पलक का झपना और बंद होना, आसक्त हो जाता है या विरक्त हो जाता है। यह दूसरी बात ठीक से समझ लें! चेतना अनासक्त है, व्यवहार आसक्त या विरक्त है, व्यवहार। अगर मुझे निपट अकेला छोड़ दिया जाए, जहां सिर्फ मेरी चेतना ही है, तो उस क्षण में मैं आसक्त हूं या विरक्त हूं? नहीं, उस क्षण में मैं कोई भी नहीं हूं। आसक्ति या विरक्ति सदा दूसरे के संबंध में पैदा होती है। अगर मैं कहूं कि फलां आदमी आसक्त है, तो आप तत्काल पूछेंगे, किस चीज में? क्योंकि बिना किसी चीज के आसक्त कैसे होगा? अगर मैं कहूं, फलां आदमी विरक्त है, तो आप पूछेंगे, किस संबंध में? क्योंकि अकेली विरक्ति का कोई अर्थ नहीं होता। विरक्ति और आसक्ति, दोनों वस्तुओं या व्यक्तियों, या ‘पर’ से हमारे संबंध हैं, रिलेशनशिप्स हैं। वह हमारा व्यवहार है, वह हमारा बिहेवियर है, वह हम नहीं हैं। आसक्त या विरक्त हमारा व्यवहार है। और इसलिए यह भी सुविधापूर्ण है कि जिसके प्रति आज हम आसक्त हैं, कल विरक्त हो सकते हैं। जिसके प्रति आज विरक्त हैं, कल आसक्त हो सकते हैं। लेकिन एक बात तय है कि विरक्ति और आसक्ति हमारा व्यवहार है, हमारा स्वभाव नहीं। व्यवहार का मतलब है, जिस में ‘पर’ अनिवार्य है, जो ‘पर’ के बिना न हो सकेगा। जो अकेले में न हो सकेगा। और स्वभाव का मतलब है, जो निपट अकेले में ही है। अगर मुझे बिलकुल ही अकेला छोड़ दिया जाए सारी वस्तुओं से, सारे लोगों से, सारे विचारों से, मैं निपट अपने अकेलेपन में, टोटल लोनलीनेस में रह जाऊं, तो वहां मैं आसक्त रहूंगा कि विरक्त रहूंगा? नहीं, वहां ये दोनों बातें असंगत होंगी। रिलेवेंस नहीं होगा इनका कोई। वहां मैं कोई भी नहीं होऊंगा, क्योंकि ये सारे के सारे संबंधों के सूचक शब्द हैं। वहां मैं असंग होऊंगा या वहां मैं अनासक्त होऊंगा। यह मैं समझाने के लिए कह रहा हूं कि आप इन शब्दों की पूरी अर्थवत्ता को समझ लें, तो फिर बहुत कठिनाई नहीं रहेगी कि कैसे उपलब्ध हों। आसक्ति-विरक्ति संबंध है, ‘पर’ अपेक्षित है। ‘पर’ के बिना नहीं होगा। वह जो दि अदर है, वह अनिवार्य है। इसीलिए आसक्ति भी गुलामी है और विरक्ति भी गुलामी है, दासता है; क्योंकि जो दूसरे के बिना न हो सके, उसमें हम कभी स्वतंत्र नहीं हो सकते। इसलिए आसक्त भी एक तरह का गुलाम होता है और विरक्त भी उलटी तरह का गुलाम होता है। आसक्त के पास तिजोड़ी न हो, तो मुश्किल में पड़ जाता है; विरक्त के कमरे में रात तिजोड़ी रख दो, तो उतनी ही मुश्किल में पड़ जाता है। लेकिन तिजोड़ी से दोनों का बड़ा गहरा संबंध है। दोनों की स्थितियां भर अलग हैं, परिस्थितियां भर अलग हैं, मनःस्थितियां अलग नहीं हैं। दोनों की मनःस्थितियां पर-निर्भर हैं। और पर-निर्भरता से न कोई स्वतंत्रता है, न कोई सत्य है। पर-निर्भरता से न कोई आनंद है, न कोई मुक्ति है। ‘पर’ ही बंधन है। लेकिन विरक्त कहता है, तो हम ‘पर’ को छोड़ कर भाग जाते हैं। लेकिन उसे पता नहीं कि जिसे वह छोड़ कर भागता है, उससे उसके संबंध नहीं टूटते, सिर्फ भागने के संबंध हो जाते हैं। और जिसे हम छोड़ कर भागते हैं वह हमारा पीछा करता है। वह नहीं करता पीछा, लेकिन हम छोड़ कर भागे हैं, उस कारण ही हम उससे भयभीत हैं, हम उससे डरे हैं, हम उससे चिंतित हैं, वही हमारी वृत्ति हमारा पीछा करती है। निष्काम अनाशक्ति हमारा स्वभाव है, इसलिए स्वभाव भी अभागे शब्दों में एक है, क्योंकि उसका मतलब होता है, स्वयं का भाव। लेकिन जहां स्वभाव शुरू होता है, वहां ‘स्व’ मिट जाता है। स्वभाव का स्वयं से कोई भी संबंध नहीं है। स्वभाव का मतलब ही है: जो हमसे होने के पहले था; हमसे होने के बाद होगा; हम हैं तब भी है, हम नहीं हैं तब भी है। अगर मैं बिलकुल भी मिट जाऊं, मेरा ‘मैं’ बिलकुल भी मिट जाए, तब भी जो शेष रह जाएगा वह स्वभाव है। स्वभाव में ‘स्व’ शब्द खतरनाक है। उससे खतरा पैदा होता है, उससे लगता है कि स्वयं का होना। नहीं, स्वभाव का मतलब है, दि नेचर। जब तक ‘मैं’ हूं, तभी तक जो मुझे दिखाई पड़ रहा है वह ‘जगत’ है। ‘जगत’ मेरे ‘मैं’ के बिंदु से देखा गया कोण है। मेरे ‘मैं’ के बिंदु से देखा गया सत्य है। इसलिए ‘पर’ है। अगर मेरा ‘मैं’ मिट जाए तो ‘पर’ कोई भी नहीं है, फिर मैं किससे बचूंगा और किससे बंधूंगा? फिर मैं ही हूं। अनासक्ति स्वभाव है। कैसे चलें इसकी तरफ? जो बड़ी से बड़ी भूल है वह यह है कि कोई विरक्ति की तरफ चल पड़े अनासक्ति को पाने के लिए। खयाल रहे, आसक्ति उतना बड़ा खतरा नहीं है अनासक्ति के मार्ग पर, क्योंकि आसक्ति का चेहरा साफ है। कोई भूल नहीं करेगा आसक्ति को अनासक्ति समझने की। कैसे करेगा? कोई भूल नहीं करेगा धन को पकड़ने को अनासक्ति समझने की। लेकिन धन को छोड़ने को अनासक्ति समझने की भूल होती रही है, होती है, हो सकती है। इसलिए बड़ा खतरा अनासक्ति की यात्रा में आसक्ति नहीं है, आसक्ति का चेहरा बिलकुल साफ है, बड़ा खतरा विरक्ति है, विरक्ति के चेहरे पर बुर्का है। विरक्ति को जो न पहचान पाए, वह अनासक्ति के नाम पर विरक्ति का खोटा सिक्का लेकर घूमता रहेगा। इसलिए अनासक्ति की यात्रा में विरक्ति से सावधान रहने की पहली जरूरत है। विरक्ति भी आसक्ति है। इतना समझते ही सावधानी उत्पन्न हो जाती है। हम अपनी आंखों और अपने मन का उपयोग बिलकुल मूवी कैमरे की तरह कर रहे हैं। जो देखते हैं उसे उतारते चले जाते हैं; फिर आंख बंद करके उसको पर्दे पर देखते रहते हैं मन के। फिर वह चलता रहता है। यह भी ‘पर’ की छाया है। यह भी हट जाए तो हम ‘स्व’ में उतरते हैं। यह हट सकती है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। हम इसे चलाते हैं, इसीलिए यह चलती है। हम इसे चलाने में उत्सुक न रह जाएं, हमारी रुचि इसके चलाने में न रह जाए, तो ये प्रतिमाएं तत्काल गिर जाती हैं, इनका कोई अर्थ नहीं रह जाता। हमारा रस ही इन प्रतिमाओं के चलने का मूल आधार है। विरस भी। ध्यान रहे, रस ही नहीं, विरस भी। जिसे हम याद करना चाहते हैं वह भी याद आता है और उससे भी ज्यादा वह याद आता है जिसे हम भूलना चाहते हैं। लेकिन जिसे न हम भूलना चाहते हैं, जिसे न हम याद करना चाहते हैं, वह अचानक गिर जाता है। वह हमारे चित्त से अर्थहीन हो जाता है। वह पर्दे से हट जाता है। तो इस भीतर चलती हुई फिल्म को अगर कोई सिर्फ साक्षीभाव से देखे--सिर्फ देखे, न रस ले, न विरस ले; न आसक्त हो, न विरक्त हो, इस भीतर की फिल्म पर, तो थोड़े ही दिन में यह साक्षी का बोध इस फिल्म को गिराता जाता है। और एक क्षण आता है जब निपट चेतना अकेली रह जाती है और कोई ऑब्जेक्ट, कोई विषय नहीं होता है, निर्विषय चेतना रह जाती है। इस निर्विषय चेतना में जिसका अनुभव होता है, वह अनासक्ति है। इस निर्विषय चेतना से जो व्यवहार निकलता है, उसका नाम अनासक्ति-योग है। जिसे हम निष्काम अनाशक्ति भी कह सकते है। निश्र्चित ही अब व्यवहार बिलकुल दूसरा होगा। जिस व्यक्ति ने अपने इस स्वभाव की अनासक्ति को पहचाना, जिसने जाना कि मुट्ठी बांध लेती है, खोल लेती है, लेकिन मुट्ठी के दोनों काम नहीं हैं इसलिए दोनों काम कर पाती है, अब ऐसा व्यक्ति बाहर के जगत में लौट कर, भीतर से बाहर आकर वही नहीं होगा जो बाहर से भीतर जाते वक्त था। 

यह व्यक्ति प्रेम भी करेगा ऐसे ही जैसे पानी पर लकीर खींची जाती है। यह लड़ेगा भी ऐसे ही जैसे पानी पर लकीर खींची जाती है। इसका दर्पण लड़ने को भी दिखलाएगा और प्रेम को भी दिखाएगा। और यह दोनों के बाहर, पूरे समय दोनों के बाहर चलता रहेगा। इस व्यक्ति के व्यवहार की स्थिति अभिनय की हो जाएगी, एक्ंटीग की हो जाएगी। और यह व्यक्ति अब कर्ता नहीं, अभिनेता हो जाएगा। कृष्ण अगर कुछ हैं, तो अभिनेता हैं। और उनसे कुशल अभिनेता पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ है। उन्होंने इस पूरे जगत को मंच बना लिया है। बाकी अभिनेता एक छोटे से मंच को मंच मानते हैं। उन्होंने पूरी पृथ्वी को मंच बना लिया है। और अभिनेता जो है उसे न तो आंसू बांधते हैं, न उसे मुस्कुराहट बांधती है। जब वह रोता है, तब भी रोता नहीं; जब हंसता है, तब भी हंसता नहीं; जब प्रेम करता है, तब भी प्रेम करता नहीं; जब लड़ता है, तब भी लड़ता नहीं; उसकी मित्रता मित्रता नहीं, उसकी शत्रुता शत्रुता नहीं। तब ऐसे व्यक्ति के जीवन को अगर हम कहें तो एक ट्राएंगल बन जाता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन एक त्रिभुज बन जाता है, ट्राएंगल। हम त्रिभुज नहीं हैं। हमारा तीसरा जो कोण है, वह जो थर्ड एंगल है, वह अंधेरे में डूबा हुआ है। हमारे सिर्फ दो कोण हमें दिखाई पड़ते हैं--आसक्ति, विरक्ति। एक तीसरा इन दोनों को जोड़ने वाला ट्राएंगल का तीसरा हिस्सा, वह हमारा अंधेरे में दबा है। अनासक्त व्यक्ति का वह भी प्रकाश में आ जाता है। उसकी पूरी जिंदगी--दोनों कोणों पर वह व्यवहार करता है, लेकिन रहता सदा अपने तीसरे कोण पर है। हम सबके पास तीनों कोण हैं, लेकिन दो कोण हमारी आंखों के सामने और एक कोण हमारी आंख के पीछे है। दो कोण स्पष्ट हैं, और एक तीसरा कोण भीतर अंधेरे में डूबा है। वह तो जब हम अपने भीतर उतरेंगे एकांत में, तभी हमें स्पष्ट होगा, तभी रोशनी वहां पहुंचेगी। और जिसने अपने तीसरे कोण को पा लिया, उसने कृष्ण को पा लिया, उसने बुद्ध को पा लिया, उसने महावीर को पा लिया, उसको कुछ पाने को बचता नहीं। क्योंकि एक बार उसे यह पता हो गया कि आसक्त होते हुए मैं अनासक्त होता हूं, विरक्त होते हुए मैं अनासक्त होता हूं, तब फिर आसक्ति और विरक्ति खेल हो गए। और वही निष्काम कर्म होगा इसलिए कृष्ण कहते हैं कि निष्कामता और अनासक्ति से बंधनों का नाश होता है और परमपद की प्राप्ति होती है।

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