अगणित

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कर्म का सिद्धांत न्याय का सिद्धांत है। न्याय के तराजू पर प्रत्येक व्यक्ति तौला जाएगा; और कोई विशिष्ट नहीं है, और कोई अपवाद नहीं है। न्याय किसी के साथ पक्षपात नहीं करेगा। कर्म का सिद्धांत निष्पक्ष सिद्धांत है। वह गणित की खोज है; तर्क की खोज है। और हमें भी ठीक लगेगा। लेकिन भक्ति के मार्ग पर कर्म के सिद्धांत की कोई जगह ही नहीं है। और तुम चकित होओगे जान कर कि भक्त किसी दूसरी ही दिशा से यात्रा करते हैं। भक्त कहते हैं: कर्म से हम जाएंगे स्वर्ग; ठीक, अच्छा करेंगे, तो स्वर्ग मिलेगा; बुरा करेंगे, तो नरक मिलेगा; लेकिन परमात्मा कैसे मिलेगा? अच्छा करने से सुख मिल जाएगा, बुरा करने से दुख मिल जाएगा; लेकिन परमात्मा कैसे मिलेगा? परमात्मा तो न अच्छा है, न बुरा है। परमात्मा तो दोनों के पार है। परमात्मा तो अतीत है। परमात्मा को तुम अच्छा नहीं कह सकते, न बुरा कह सकते। अच्छा-बुरा कहोगे, तो परमात्मा में भी द्वंद्व हो जाएगा। अच्छा-बुरा कहने के कारण ही तो लोगों को शैतान भी खोजना पड़ा है। क्योंकि परमात्मा को अच्छा कहते हो, तो फिर बुरा कहां जाएगा? बुरा किसके सिर जाएगा?  तो जिन धर्मों ने परमात्मा को अच्छा कहा है, जैसे ईसाइयत, या इस्लाम, या यहूदी, उन धर्मों को एक और बात खोजनी पड़ी; फिर बुरे के लिए भी कोई स्रोत खोजना पड़ा। बुरा कहां से आएगा? परमात्मा से अच्छा-अच्छा आ रहा है, सोना परमात्मा से बरस रहा है; और मिट्टी--और जीवन का नरक, और जीवन की विपदाएं, और जीवन के कष्ट? सुबह तो परमात्मा से आ रही है, तो अंधेरी रात? अंधेरी रात को भी जन्म देने वाला कोई स्रोत चाहिए, नहीं तो बात बड़ी बेबूझ हो जाएगी। तो फिर एक शैतान खड़ा करना पड़ता है। लेकिन इससे कुछ बात हल होती नहीं; क्योंकि शैतान कहां से आता है? तो ईसाइयत भी मानती है, इस्लाम भी मानता है कि वह भी परमात्मा से आता है। वह भी देवदूत है, जो भ्रष्ट हो गया। इसका तो मतलब हुआ कि शैतान के पहले भी भ्रष्ट होने की व्यवस्था थी! अर्थात शैतान ही भ्रष्टता का स्रोत नहीं हो सकता, क्योंकि शैतान खुद भ्रष्टता से पैदा हुआ। एक देवदूत भ्रष्ट हुआ; तो भ्रष्ट होने की संभावना तो देवदूत के होने के पहले थी। इसलिए ईसाइयत, यहूदी, इस्लाम--तीनों के पास एक बड़ी से बड़ी झंझट है, जिसको वे हल नहीं कर पाते। वह झंझट यही है कि शैतान को कैसे समझाएं! शैतान भी परमात्मा ने पैदा किया; शैतान भी परमात्मा से आया, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम शैतान से, कहते हो, रात आई। अंततः तो परमात्मा से ही रात आई। परमात्मा से शैतान आया--शैतान से रात आई। परमात्मा से शैतान आया--शैतान से पाप आया, बुराई आई। तो अंततः तो जिम्मेवार परमात्मा ही होगा। इन अर्थों में भारत की दृष्टि, परमात्मा के संबंध में बहुत अनूठी और साफ है। सब परमात्मा से आया है--बुरा भी, भला भी। इसलिए परमात्मा दोनों के पार है। न तो हम परमात्मा को भला कह सकते, न बुरा कह सकते। तो भक्त कहते हैं: भला करेंगे, तो भले हो जाएंगे; सज्जन हों जाएंगे; बुरा करेंगे, तो बुरे हो जाएंगे, दुर्जन हो जाएंगे। लेकिन संत कैसे होंगे। संतत्व का तो अर्थ है: भले और बुरे के पार है।

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