तादात्म्य
जगजीवन का सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है। ठीक इस ढंग से किसी ने कहा ही नहीं है। इतना सीधा-सीधा, साफ-साफ। गंवार आदमी थे, पढ़े-लिखे नहीं थे। बातों को उलझा कर कहने की आदत भी न थी। जैसा था वैसा कह दिया है। एक बात साफ दिखाई पड़ गई होगी कि लोग नकल करने लगे होंगे। लोग नकल करने में बड़े कुशल हैं। और कभी-कभी तो इतनी कुशलता से नकल करते हैं कि मूल को भी मात दे दें; मूल भी हार जाए। जगजीवन कहते हैं: हम जो कहते हैं वह मानो। हम जो करते हैं, उसकी फिकर न करो अभी। क्योंकि हम जहां हैं, वहां जो हो रहा है, वहां तुम अभी नहीं हो। तुमने अभी वैसा किया तो तुम बुरी तरह गिरोगे; बड़ी फजीहत होगी। मनुष्य के भीतर चेतना के कई तल हैं। जो व्यक्ति समाधि को उपलब्ध हो गया है उसे जीवन के छोटे-मोटे नियम, मर्यादाएं मानने की कोई जरूरत नहीं है। जो वृक्ष बादलों को छूने लगा है, अब उसे बचाने के लिए बागुड़ थोड़े ही लगानी पड़ती है! मगर जो पौधा अभी-अभी पैदा हुआ है, नये-नये पत्ते आए हैं, अगर इसको ऐसा ही छोड़ दिया बिना बागुड़ के, जानवर चर जाएंगे। यह बच नहीं सकेगा। अभी देह को इस योग्य बनना है। जैसी देह की योग्यता निर्मित होती है ऐसी ही आत्मा की योग्यता भी क्रमशः निर्मित होती है। जो पहुंच गए हैं समाधि में उन्हें न नियम की कोई जरूरत है, न मर्यादा की कोई जरूरत है। लेकिन जो नहीं पहुंचे हैं, अगर सब नियम और मर्यादा छोड़ देंगे तो कभी भी पहुंच नहीं पाएंगे। टूट ही जाएंगे। रास्ते में ही बिखर जाएंगे। इसलिए ठीक कहते हैं जगजीवन कि जो मैं कहूं, वह सुनना। मैं क्या करता हूं उसे करने की कोई जरूरत नहीं है। उसे किया तो बड़ी फजीहत होगी।
मानै कहा कहे जो चलिहै, सिद्ध काज सब होई।।
जगजीवन कहते हैं कि हमारी तो तुम मत पूछो। क्योंकि हम तो अब ऐसी हालत में हैं कि जहां हम जानते हैं कि हम देह नहीं हैं। अब तो हम जानते हैं कि हम और हैं, देह और है। अब तो हम नाच रहे हैं देह में। अब देह से हमारा कोई बंधन नहीं रह गया है। अब देह से हमारी कोई आसक्ति नहीं रह गई है। अब देह और हमारे बीच फासला पैदा हो गया है, तादात्म्य टूट गया है। तो हम जो करें, वही तुम मत करने लगना। जब तक तुम्हारा देह से तादात्म्य है तब तक तुम वही मत करने लगना, अन्यथा तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। पहले तादात्म्य टूटने दो। और तादात्म्य टूटने की प्रक्रियाएं हैं। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि तादात्म्य टूटने के बाद जो व्यक्ति करता है अगर वही तादात्म्य रहते हुए करे तो तादात्म्य और मजबूत हो जाता है। ऐसे मिथ्या न हो जाओ इसलिए जगजीवन का यह सूत्र है कि मैं तुमसे जो कहूं वह करो, ताकि धीरे-धीरे, सीढ़ी-सीढ़ी तुम्हें चढ़ाऊं; ताकि इंच-इंच तुम्हें रूपांतरित करूं। एक दिन ऐसी घड़ी जरूर आ जाएगी कि जो मैं करता हूं वही तुम भी करोगे लेकिन नकल के कारण नहीं, तुम्हारे भीतर से बहाव होगा। तुम्हारा अपना फूल खिलेगा। तुम्हारी अपनी सुगंध उठेगी। धर्म के जगत में नकल की बहुत सुविधा है, क्योंकि नकल सस्ती है। ज्यादा अड़चन नहीं मालूम होती। बुद्ध जिस ढंग से चलते हैं, तुम भी चल सकते हो। क्या अड़चन है? थोड़ा अभ्यास करना पड़ेगा। लाओत्सु ने कहा है कि ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे प्रत्येक कदम पर खतरा है--इतना सावधान! ज्ञानी ऐसे चलता है सावधान, जैसे कोई ठंड के दिनों में, गहरी ठंड के दिनों में बर्फीली नदी से गुजरता हो। एक-एक पांव सोच-सोच कर रखता है। ज्ञानी ऐसे चलता है जैसे चारों तरफ दुश्मन तीर साधे बैठे हों--कब कहां से तीर लग जाए, इतना सावधान चलता है। पर ये सावधानी भीतर के साथ हुए तादात्म्य से आती है भीतर के होश से आती है।
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