ध्यान का विज्ञान

दुनिया के सारे धर्मों में बहुत विवाद है। सिर्फ एक बात के संबंध में विवाद नहीं है। और वह बात ध्यान है। मुसलमान कुछ और सोचते, हिंदू कुछ और, ईसाई कुछ और, पारसी कुछ और, जैन-बौद्ध कुछ और। उनके सिद्धांत सबके बहुत भिन्न-भिन्न हैं। लेकिन एक बात के संबंध में इस पृथ्वी पर कोई भी भेद नहीं है। और वह यह कि जीवन के आनंद का मार्ग ध्यान से होकर जाता है। और परमात्मा तक अगर कोई भी कभी पहुंचा है तो ध्यान की सीढ़ी के अतिरिक्त और किसी सीढ़ी से नहीं। वह चाहे जीसस, और फिर चाहे बुद्ध, और चाहे मोहम्मद, और चाहे महावीर--कोई भी, जिसने जीवन की परम धन्यता को अनुभव किया है, उसने अपने ही भीतर गहरे में डूब कर उस निर्जन द्वीप की खोज कर ली है। 

ध्यान कहता है, 

पहले तल का नाम बैखरी है,

मतलब सहज बोलना, साधारणतः जब हम बोलते हैं, तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर कौन से विचार चलते थे। जब हम बोलते हैं तभी हमें पता चलता है कि हमारे भीतर क्या था। ध्यान का विज्ञान इस स्थिति को अत्यंत ऊपरी अवस्था मानता है। अगर एक आदमी न बोले तो हम पहचान भी न पाएं कि वह कौन है, क्या है। शब्द हमारे बाहर प्रकट होता है, तभी हमें पता चलता है--हमारे भीतर क्या था। ध्यान का विज्ञान कहता है, यह अवस्था सबसे ऊपरी अवस्था है चित्त की, सरफेस है, ऊपर की पर्त है। 

दूसरे तल का नाम मध्यमा है। 

मतलब सहज सोचना, वह दूसरी पर्त है व्यक्तित्व की गहराई की। साधारणतः आदमी ऊपर की पर्त पर ही जीता है। उसे दूसरी पर्त का भी पता नहीं होता। उसके बोलने की दुनिया के नीचे भी एक सोचने का जगत है, उसका भी उसे कुछ पता नहीं होता। काश, हमें हमारे सोचने के जगत का पता चल जाए तो हम बहुत हैरान हो जाएं। जितना हम सोचते हैं, उसका बहुत थोड़ा सा हिस्सा वाणी और दृश्य में प्रकट होता है। ठीक ऐसे ही जैसे एक बर्फ के टुकड़े को हम पानी में डाल दें तो एक हिस्सा ऊपर हो और नौ हिस्सा नीचे डूब जाए। हमारा भी नौ हिस्सा जीवन का, विचार का तल नीचे डूबा रहता है। एक हिस्सा ऊपर दिखाई पड़ता है। इसीलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि आप क्रोध कर चुकते हैं, तब आप कहते हैं कि यह कैसे संभव हुआ कि मैंने क्रोध किया! लेकिन वह तल गहरा है और उस तल से हमारा कोई संबंध नहीं रह गया। इसलिए हम नहीं बोले होते हैं तब भी पहले उसके विचार भीतर चलता है। अन्यथा हम बोलेंगे कैसे? अगर मैं कहता हूं--‘ओम’, तो इसके पहले कि मैंने कहा, उसके पहले मेरे भीतर ओंठों के पार और मेरे हृदय के किसी कोने में ‘ओम’ का निर्माण हो जाता है। 

तीसरा तल है पश्यंति।

मतलब सहज देखना, दर्शन करना इसके पहले कि भीतर, ओंठों के पार, हृदय के कोने में शब्द निर्मित हो, उससे भी पहले ह्रदय में दृश्य का निर्माण होता है। लेकिन उस तीसरे तल का तो हमें साधारणतः कोई भी पता नहीं होता। उससे हमारा कोई संबंध नहीं होता। दूसरे तक हम कभी-कभी झांक पाते हैं, तीसरे तक हम कभी नहीं झांक पाते। जहां शब्द देखे जाते हैं। मोहम्मद कहते हैं कि मैंने कुरान देखी; सुनी नहीं। वेद के ऋषि कहते हैं--हमने ज्ञान देखा; सुना नहीं। मूसा कहते हैं--मेरे सामने टेन कमांडमेंट्‌स प्रकट हुए, दिखाई पड़े; सुने नहीं। यह तीसरे तल की बात है, जहां विचार दिखाई पड़ते हैं, सुनाई नहीं। 

चौथा तल है परा। 

वहां विचार दिखाई भी नहीं पड़ते, सुनाई भी नहीं पड़ते। और जब कोई व्यक्ति देखने और सुनने से नीचे उतर जाता है, तब उस चौथे तल का पता चलता है। और उस चौथे तल के पार जो जगत है, वह ध्यान का जगत है। ये चार हमारी पर्तें हैं, इन चार दीवालों के भीतर हमारी आत्मा है। हम बाहर के परकोटे की दीवाल के बाहर ही जीते हैं। पूरे जीवन शब्दों की पर्त के साथ जीते हैं और स्मरण में नहीं आता कि खजाने बाहर नहीं हैं, बाहर सिर्फ रास्तों की धूल है। और आनंद बाहर नहीं है। बाहर आनंद की धुन भी सुनाई पड़ जाए तो बहुत। जीवन का सब-कुछ भीतर है--जड़ों में, गहरे अंधेरे में दबा हुआ। ध्यान वहां तक पहुंचने का मार्ग है। 

पृथ्वी पर बहुत से रास्तों से उस ध्यान की स्थिति में पहुंचने की कोशिश की जाती रही है। और जो व्यक्ति इन चार स्थितियों को पार करके गहराई में नहीं डूब पाता, उस व्यक्ति को जीवन तो मिला, लेकिन जीवन को जानने की उसने कोई कोशिश नहीं की। उस व्यक्ति को खजाने तो मिले, लेकिन खजानों से वह अपरिचित रहा और रास्तों पर भीख मांगने में समय बिताया। उस व्यक्ति के पास वीणा तो थी जिससे संगीत पैदा हो सकता, लेकिन उसने उसे कभी छुआ नहीं। उसकी अंगुलियों का कभी कोई स्पर्श उसकी वीणा तक नहीं पहुंचा। ध्यान एक सुख की तरह है,  सुख एक पाजिटिव, एक विधायक स्थिति है, नकारात्मक नहीं। सुख एक विधायक अनुभव है। लेकिन बिना ध्यान के वैसा विधायक सुख किसी को अनुभव नहीं होता है। और जैसे-जैसे आदमी सभ्य और शिक्षित हुआ है, वैसे-वैसे ध्यान से दूर हुआ है। सारी शिक्षा, सारी सभ्यता आदमी को, दूसरों से कैसे संबंधित हों, यह तो सिखा देती है, लेकिन अपने से कैसे संबंधित हों, यह नहीं सिखाती। 

ध्यान से न पद मिलेगा, न रुपये मिलेंगे, न मकान मिलेगा। ध्यान कोई उपयोगिता नहीं है। लेकिन जो आदमी सिर्फ उपयोगी चीजों की तलाश में घूम रहा है, वह आदमी सिर्फ मौत की तलाश में घूम रहा है। जीवन की भी कोई उपयोगिता नहीं है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, वह परपजलेस है। जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसकी बाजार में कोई कीमत नहीं है। प्रेम की कोई कीमत है बाजार में? कोई कीमत नहीं है। आनंद की कोई कीमत है? कोई कीमत नहीं है। प्रार्थना की कोई कीमत है? कोई कीमत नहीं है। ध्यान की, परमात्मा की, इनकी कोई भी कीमत नहीं है। लेकिन जिस जिंदगी में अनुपयोगी, नॉन-यूटिलिटेरियन मार्ग नहीं होता, उस जिंदगी में सितारों की चमक भी खो जाती है। उस जिंदगी में फूलों की सुगंध भी खो जाती है। उस जिंदगी में पक्षियों के गीत भी खो जाते हैं। उस जिंदगी में नदियों की दौड़ती हुई गति भी खो जाती है। उस जिंदगी में कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ बाजार बचता है। उस जिंदगी में काम के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। उस जिंदगी में तनाव और परेशानी और चिंताओं के सिवाय कुछ भी नहीं बचता। 

ध्यान व्यवस्थित रूप से जीवन में उस द्वार को बड़ा करने का नाम है, जहां से आनंद की किरण उतरनी शुरू होती है, जहां से हम पदार्थ से छूटते हैं और परमात्मा से जुड़ते हैं।



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