खोज
दो तरह की खोज है परमात्मा के परम सत्य के लिए एक वह आदमी जिस आदमी के दिमाग में यह खयाल बैठ गया कि ईश्र्वर नहीं है, अब यह आदमी इसी खयाल की दीवाल में बंद जिंदगी भर जीएगा। इसे कहीं भी ईश्र्वर दिखाई नहीं पड़ सकता है, क्योंकि आदमी को वही दिखाई पड़ सकता है जो देखने की उसकी तैयारी हो। और इस आदमी की देखने की तैयारी कुंठित हो गई, बंद हो गई, इस आदमी ने तय कर लिया कि ईश्र्वर नहीं है। अब इसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। लेकिन आप कहेंगे कि इससे तो हम बेहतर हैं, जो मानते हैं कि ईश्र्वर है। हम भी उतनी ही बदतर हालत में हैं। क्योंकि जिस आदमी ने यह तय कर लिया कि ईश्र्वर है, अब वह फिर कभी आंख उठा कर खोज-बीन नहीं करेगा कि वह कहां है! मान कर बैठ गया कि है और खत्म हो गया। अब वह समझ रहा कि है, बात खत्म हो गई। अब और क्या करना है? जिसने मान लिया कि है, वह ‘है’ में बंद हो जाता है। जिसने मान लिया कि नहीं है, वह ‘नहीं है’ में बंद हो जाता है। एक नास्तिकता में बंद हो जाता है, एक आस्तिकता में बंद हो जाता है। दोनों की अपनी खोल हैं। लेकिन सत्य की खोज वह आदमी करता है, जो कहता है, मैं खोल क्यों बनाऊं? मुझे अभी पता ही नहीं है कि ‘है’ या ‘नहीं।’ मैं कोई खोल नहीं बनाता। मैं बिना खोल के, बिना दीवाल के खोज करूंगा। मुझे पता नहीं है। इसलिए मैं किसी सिद्धांत को अपने साथ जकड़ने को राजी नहीं हूं। किसी भी तरह का सिद्धांत आदमी को बांध लेता है और सत्य की खोज मुश्किल हो जाती है। अब हर आदमी अपने को समझता है कि मैं स्वतंत्र हूं! इससे बड़ा झूठ और कुछ भी नहीं हो सकता। और जब तक आदमी यह समझता रहता है कि मैं स्वतंत्र हूं, मैं एक स्वतंत्र आत्मा हूं, तब तक, तब तक वह आदमी स्वतंत्रता की खोज में कुछ भी नहीं करेगा। इसलिए पहला सत्य समझ लेना जरूरी है कि हम परतंत्र हैं। हम का मतलब पड़ोसी नहीं, हम का मतलब मैं। हम का मतलब यह नहीं कि और लोग जो मेरे आस-पास बैठे हों--वे नहीं, मैं। मैं एक गुलाम हूं और इस गुलामी की जितनी पीड़ा है, उस पूरी पीड़ा को अनुभव करना जरूरी है। इस गुलामी के जितने आयाम हैं, जितने डाइमेन्शंस हैं, जितनी दिशाओं से यह गुलामी पकड़े हुए है, उन दिशाओं का भी अनुभव कर लेना जरूरी है। किस-किस रूप में यह गुलामी छाती पर सवार है, उसे समझ लेना जरूरी है। इस गुलामी की क्या-क्या कड़ियां हैं, वे देख लेना जरूरी है। जब तक हम इस आध्यात्मिक दासता से, स्प्रिचुअल स्लेवरी से पूरी तरह परिचित नहीं हो जाते, तब तक इसे तोड़ा नहीं जा सकता। और ये स्लेवरी सिद्धांतो की है और स्वयं के अनुभव के बिना थोपे गए सिद्धांत आदमी को गुलाम बना देते है, असल में धार्मिक आदमी के बदलने में देर नहीं लगती। धार्मिक आदमी से ज्यादा बेईमान आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। वह जरा में बदल सकता है। दुकान पर वह कुछ और होता है, मंदिर में कुछ और हो जाता है। मंदिर में कुछ और होता है, बाहर निकलते ही कुछ और हो जाता है। बदलने की कला सीखनी हो तो उन लोगों से सीखो जो मंदिर जाते हैं। क्षण भर में उनकी आत्मा दूसरी कर लेते हैं वे! फिल्मों के अभिनेता भी इतने कुशल नहीं हैं, क्योंकि वे भी सिर्फ चेहरा बदल पाते हैं, कपड़े, रंग-रोगन। लेकिन मंदिरों में जाने वाले लोग आत्मा तक को बदल लेते हैं। दुकान पर वही आदमी, उसकी आंखों में झांको, कुछ और मालूम पड़ेगा। वही आदमी मंदिर में जब माला फेर रहा हो, तब देखो तो मालूम पड़ेगा कि यह आदमी कोई और ही है। फिर घड़ी भर बाद वह आदमी दूसरा आदमी हो जाता है। वह जो घड़ी भर पहले कुरान पढ़ रहा था मस्जिद में, इस्लाम खतरे में देख कर किसी कि छाती में छुरा भोंक सकता है। वह जो घड़ी भर पहले गीता पढ़ रहा था, घड़ी भर बाद हिंदू धर्म के लिए किसी के मकान में आग लगा सकता है। धार्मिक आदमी के बदल जाने में देर नहीं लगती। और जब तक ऐसे बदल जाने वाले आदमी दुनिया में धार्मिक समझे जाते रहेंगे, तब तक दुनिया से अधर्म नहीं मिट सकता और न अधर्म के नाम पे चल रही धार्मिक गुलामी मिटेगी। इसलिए पहली बात आपसे यह कहना चाहता हूं: सत्य की खोज पर वे जाते हैं, जो सिद्धांतों के कारागृह को तोड़ने में समर्थ हो जाते हैं। हम सब सिद्धांतों में बंधे हुए लोग हैं, शब्दों में बंधे हुए लोग हैं, हम सब शास्त्रों में बंधे हुए लोग हैं--सत्य हमारे लिए नहीं हो सकता है। और ये शास्त्र बड़े सोने के हैं और इन शास्त्रों में बड़े हीरे-मोती भरे हैं। पिंजड़े सोने के भी हो सकते हैं और पिंजड़ों में हीरे-मोती भी लगे हो सकते हैं। लेकिन कोई पिंजड़ा इसलिए कम पिंजड़ा नहीं हो जाता कि वह सोने का है, बल्कि और खतरनाक हो जाता है। क्योंकि लोहे के पिंजड़े को तो तोड़ने का मन होता है, सोने के पिंजड़े को बचाने की इच्छा होती है। कारागृह में बंधा हुआ चित्त--हम अपने ही हाथ से अपने को बांधे हुए हैं। यह पहली बात जान लेनी जरूरी है कि जब तक हम इससे मुक्त न हो जाएं, तब तक सत्य की तरफ हमारी आंख नहीं उठ सकती। तब हम वही नहीं देख सकते, जो है। तब तक हम वही देखने की कोशिश करते रहेंगे, जो हम चाहते हैं कि हो। और जब तक हम चाहते हैं कि कुछ हो, तब तक हम वही नहीं जान सकते हैं, जो है। जब तक हमारी यह इच्छा है कि सत्य ऐसा होना चाहिए, तब तक हम सत्य के ऊपर अपनी इच्छा को थोपते चले जाएंगे। जब तक हम कहेंगे कि भगवान ऐसा होना चाहिए--बांसुरी बजाता हुआ, कि धनुषबाण लिए हुए, तब तक हम अपनी ही कल्पना को भगवान पर थोपने की चेष्टा जारी रखेंगे। और यह हो सकता है कि हमें धनुर्धारी भगवान के दर्शन हो जाएं; और यह भी हो सकता है कि बांसुरी बजाता हुआ कृष्ण दिखाई पड़े; और यह भी हो सकता है कि सूली पर लटके हुए जीसस की हमें तस्वीर दिखाई पड़ जाए। लेकिन ये सब तस्वीरें हमारे ही मन की तस्वीरें होंगी। इनका सत्य से कोई दूर का भी संबंध नहीं है। यह हमारी ही कल्पना का जाल होगा, यह हमारा ही प्रोजेक्शन होगा। यह हमारी ही इच्छा का खेल होगा। यह हमारा ही सपना होगा। और इस सपने को जो सत्य समझ लेता है, फिर तो सत्य से मिलने के उसके मौके ही समाप्त हो जाते हैं। नहीं, सत्य को तो केवल वे ही जान सकते हैं, जिनकी आत्मा पर कोई सिद्धांत का आग्रह नहीं है, और उन्ही को आत्म अनुभव से बुद्ध, कृष्ण, जीसस और मोहम्मद जैसे लोगो का परम सत्य का अनुभव भी ज्ञात हो पाएगा।इसलिए यह ध्यान में रख लेना जब तक आपके मन में कोई भी एक सिद्धांत चाहे आस्तिक का, चाहे नास्तिक का; चाहे कम्युनिस्ट का; चाहे हिंदू का, चाहे मुसलमान का; चाहे ईसाई का जब तक कोई भी सिद्धांत आपको पकड़े हुए है और आप कहते हैं कि मैं इस सिद्धांत को सही मानता हूं, तब तक आपको सत्य का दर्शन नहीं हो सकता।
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