(ईशावस्योपनिषद) जीवन को देने वाले सूर्य, और हे मृत्यु से जीवन को संतुलित करने वाले ! तू अपने किरणों के जाल को सिकोड़ ले। तू अपने जीवन को भी सिकोड़ ले, तू अपनी मृत्यु को भी सिकोड़ ले। मैं तो उस तत्व को जानना चाहता हूं, जो जीवन और मृत्यु दोनों के पार है। जो न कभी जन्मता और न कभी मरता है। मैं तो उस मूल उदगम को जानना चाहता हूं या उस मूल विलय, अंतिम विलय को। या तो उस प्रथम क्षण को जानना चाहता हूं, जब कुछ भी नहीं था और उस कुछ भी नहीं से सब पैदा हुआ। और या उस अंतिम, अल्टीमेट क्षण को जानना चाहता हूं, जब सब कुछ फिर लीन हो जाएगा, कुछ भी नहीं होगा। उस शून्य को जानना चाहता हूं, जिससे जन्मता है सब, या उस शून्य को जानना चाहता हूं, जिसमें लीन हो जाता है सब। तू सिकोड़ ले अपने सारे जाल को।
निश्चित ही, यह बाहर किसी सूर्य से की गई प्रार्थना नहीं है। यह तो भीतर उस जगह पहुंचकर की गई प्रार्थना है, जहां अंतिम, अंतिम पड़ाव आ जाता है। जहां से छलांग लगती है। जहां से शून्य में छलांग लगती है। जहां से अनादि, अनंत में छलांग लगती है। उस घड़ी की गई प्रार्थना है--हे आदित्य, सिकोड़ ले अपना सब। बड़े साहस की जरूरत है इस प्रार्थना के लिए। आखिरीसाहस की जरूरत है। क्योंकि जहां जीवन और मृत्यु सिकुड़ जाएंगी और जहां उस महासूर्य की सभी किरणें सिकुड़ जाएंगी, वहां मैं बचूंगा? वहां मैं भी नहीं बचूंगा। लेकिन ऋषि की अभीप्सा यह है कि मैं बचूं, न बचूं, यह सवाल नहीं है, मैं तो वह जानना चाहता हूं, जो सदा ही बच रहता है। सबके नष्ट हो जाने पर भी जो बच रहता है, उसे ही मैं जानना चाहता हूं। मैं भी नष्ट हो जाऊंगा, तब जो बच रहता है, उसे ही मैं जानना चाहता हूं। कहना चाहिए कि जगत में अनेक-अनेक युगों में, अनेक-अनेक लोगों ने सत्य की खोज की है। लेकिन जैसी खोज इस जमीन के टुकड़े पर, जैसी आत्यंतिक, अल्टीमेट खोज और जैसे आखिरी साहस का परिचय इस जमीन के टुकड़े पर कुछ लोगों ने दिया है, वैसा बहुत मुश्किल से समानांतर परिचय कहीं भी दिया जा सका है। बहुत खोज करने पर भी मैं वैसे लोग नहीं खोज पाता हूं, जो अपने को खोकर सत्य पाने को राजी हों। सारे जगत में सत्य के खोजी हुए हैं, लेकिन एक शर्त बचाकर, मैं बचा रहूं और सत्य को जान लूं। लेकिन जब तक मैं बचा रहूंगा, तब तक मैं संसार को ही जानूंगा, क्योंकि मैं संसार का हिस्सा हूं। और अगर उन खोजियों से कोई कहे--अगर कोई अरस्तू से कहे, अफलांतू से कहे या हीगल या कांट से कहे--कि तुम अपने को खोओगे तभी सत्य को जान सकोगे, तो वे कहेंगे, ऐसे सत्य को जानने की जरूरत क्या है? जब हमीं न बचेंगे तो सत्य को जानकर भी क्या करना है? न, एक शर्त के साथ उनकी खोज है। एक कंडीशन के साथ, हम बचें और सत्य को जान लें। इसलिए जितने खोजियों ने स्वयं को बचाकर सत्य को जानने की कोशिश की है, उन्होंने सत्य को नहीं जाना, सत्य को फेब्रीकेट किया। उन्होंने सत्य को बनाया। इसलिए हीगल बड़ी से बड़ी किताबें लिखे या कांट बड़े से बड़े, गहरे से गहरे सिद्धांतों की बात करे। वह चूंकि मैं को खोने की कोई तैयारी नहीं है, उनके सिद्धांतों की, उनके बड़े से बड़े शास्त्रों की कोई कीमत, कोई मूल्य नहीं है। अगर कांट और हीगल से पूछें कि उनका इस उपनिषद के ऋषि के बाबत क्या खयाल है, तो वे कहेंगे, पागल है! क्योंकि अपने को खोकर, अपने को खोकर सत्य को पाकर क्या करना है? इसलिए पश्चिम का दार्शनिक खोजता है सत्य को, तो उसके सत्य मानवीय सत्य से ज्यादा नहीं हो पाते, ह्यूमन ट्रुथ्स। आदमी की ही खोजबीन होते हैं। एक्झिस्टेंशियल नहीं, अस्तित्वगत नहीं, मानवीय। पूरब का संत जब खोजने निकलता है, तो उसके सत्य मानवीय नहीं, उसके सत्य अस्तित्वगत हैं, एक्झिस्टेंशियल हैं। उपनिषद का ऋषि कहता है कि मैं हूं असत्य का ही हिस्सा, मैं हूं संसार का ही हिस्सा। अगर मैं चाहता हूं कि बाहर से तो संसार हट जाए और सत्य आ जाए और मेरे भीतर मैं पूरी तरह मौजूद रहूं, तो मैं असंभव कामना कर रहा हूं, इंपासिबल। संसार जाएगा तो पूरा जाएगा -बाहर भी, भीतर भी। यहां बाहर पदार्थ खो जाएगा, यहां भीतर मैं खो जाएगा। यहां बाहर आकृतियां खो जाएंगी, यहां भीतर भी आकार खो जाएगा। बाहर भी शून्य होगा, भीतर भी शून्य होगा। इसलिए अगर सत्य को खोजना है तो स्वयं को खोने की तैयारी अनिवार्य शर्त है।
यह अल्टीमेट जंप है, आत्यंतिक छलांग है। इस छलांग का साहस जब कोई जुटाता है, तब परम सत्य के साथ एक हो जाता है। बिना स्वयं मिटे परम सत्य के साथ कोई एकता संभव नहीं है।
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