धैर्य

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एक दिन ऐसा हुआ सम्राट अकबर नमाज पढ़ने बैठा है एक जंगल में--भटक गया है, शिकार करके लौट रहा है, रास्ता नहीं मिल रहा है, सांझ हो गई, नमाज पढ़ रहा है। और एक स्त्री--अल्हड़ युवती--भागी हुई आई--उसको धक्का देती हुई कि वह धक्के में गिर भी गया, भागती ही चली गई। बड़ा नाराज हुआ अकबर। एक तो सम्राट, दूसरा नमाज पढ़ रहा हो! जब वह स्त्री वापस लौटी तो अकबर ने कहा कि सुन बदतमीज औरत! तुझे यह पता नहीं कि मैं सम्राट हूं? और सम्राट को भी जाने दे, कोई भी नमाज पढ़ रहा हो, प्रार्थना में लीन हो, उसके साथ यह दुर्व्यवहार? तूने इतने जोर से मुझे धक्का दिया कि मैं लुढ़क ही गया! तेरे पास क्या उत्तर है? उस स्त्री ने कहा: मुझे क्षमा करें! लेकिन मुझे याद ही नहीं कि आप बीच में भी थे, कि आप लुढ़के भी! लुढ़के होंगे तो आप ठीक कहते हैं, ठीक ही कहते होंगे, मगर मुझे याद नहीं है। मेरा प्रेमी आ रहा था, मैं उससे मिलने जा रही थी। मैं तो सिर्फ एक बात आपसे पूछती हूं कि मेरे प्रेमी के कारण मुझे आप दिखाई ही नहीं पड़े और आप अपने प्रेमी से मिलने चले थे और आपको मेरा धक्का अनुभव में आ गया! यह कैसी नमाज! मेरा तो साधारण सा प्रेमी है, उसके लिए दीवानी हुई भागी जा रही थी, क्योंकि वर्ष भर बाद वह लौट रहा है शहर से, राह के किनारे उसका स्वागत करना है। तो मुझे तो कुछ याद नहीं, मैं बेहोश थी। मुझे पता नहीं कब आप आए, कब आप बीच में पड़े, कब आपको धक्का लगा। क्षमा करें मुझे! मगर इतना मैं याद दिलाऊं कि आप किस तरह अपने परम प्रेमी से मिलने गए थे कि मेरा धक्का लगा और आपको याद रहा! अकबर ने लिखवाया है अपने संस्मरणों में कि उस स्त्री की बात मुझे फिर कभी भूली नहीं। मेरी नमाज झूठी थी। प्यारे से मिलने चले हैं, फिर क्या याद! मगर कौन प्यारे से मिलने चला है? हमारी दीपावलियां झूठी, हमारे निर्वाण-लाडू झूठे, हमारे मंदिर-मस्जिद, पूजा के उपक्रम झूठे। हमने सब ऊपर-ऊपर के आयोजन कर लिए हैं। इतने सस्ते से नहीं होगा। स्वयं को मिटाने की कीमत चुकानी पड़ती है।


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